सभी संकटों को हरने वाली होती है मार्गशीर्ष माह की संकष्टी चतुर्थी
सभी संकटों को हरने वाली होती है मार्गशीर्ष माह की संकष्टी चतुर्थी।,,,,,,,,, शुभ मुहूर्त ,,,,,, इस बार सन् 2021 में मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष संकष्टी चतुर्थी दिनांक 23 नवंबर दिन मंगलवार को है। चतुर्थी तिथि आरंभ दिनांक 22 नवंबर 2021 दिन सोमवार रात्रि 10:26 से है तथा समापन अगले मध्य रात्रि 12:55 पर। अतः व्रत दिनांक 23 नवंबर मंगलवार को मनाया जाएगा। 23 नवंबर को चंद्रोदय रात्रि 8:27 पर होगा। इस दिन आर्द्रा नामक नक्षत्र 17 घड़ी 19 पल तक है। तदुपरांत पुनर्वसु नामक नक्षत्र उदय होगा। यदि चंद्रमा की स्थिति जाने तो इस दिन चंद्रदेव पूर्णरूपेण मिथुन राशि में होंगे। पूजन विधि, ,,,,,,,, इस दिन प्रात ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नित्य कर्म से निवृत्त होकर शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। श्री गणेश जी का पूजन पंचोपचार अर्थात धूप दीप नैवेद्य अक्षत फूल से करें। तदोपरांत हाथ में जल तथा दुर्वा लेकर मन ही मन गणेश जी का ध्यान करते हुए व्रत का संकल्प करें। एक कलश में जल भरकर उसमें गंगाजल मिलाएं। गाय के दूध दही घी शहद चीनी से पंचामृत बनावे एवं कलश में मिलाएं। कलश में दूर्वा सिक्के साबूत कच्ची हल्दी का टुकड़ा रखें। इसके बाद लाल कपड़े से कलश का मुंह बांध लें। उसके ऊपर गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करें। पूरे दिन भगवान श्री गणेश जी के मंत्रों का स्मरण करें। शाम को दोबारा स्नान कर सभी सामग्री के साथ बैठकर विधि विधान से गणेश जी का पूजन करें। उन्हें फल वस्त्र सुपारी पान का पत्ता आदि अर्पित करें और गणेश जी की कथा सुने और सुनाएं। संकष्टी चतुर्थी कथा, ,,,,,,,,,, एक बार पार्वती जी ने भगवान गणेश जी से पूछा कि मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष चतुर्थी संकटा चतुर्थी कहलाती है। उस दिन कौन से गणेश की पूजा किस विधि से करनी चाहिए? भगवान गणेश जी ने उत्तर दिया कि हे हिमालय नंदिनी मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष चतुर्थी को गजानन नामक गणेश की पूजा करनी चाहिए। पूजन के बाद अर्घ्य देना चाहिए। दिनभर व्रत रखकर पूजन के उपरांत जौ तिल चावल चीनी और घृत से हवन कराएं। और ब्राह्मणों को भोजन कराएं। जो व्यक्ति ऐसा करेगा वह अपने शत्रुओं को वशीभूत कर सकता है। भगवान गणेश जी माता पार्वती को एक प्राचीन कथा सुनाते हैं। जो निम्न प्रकार से है।, ,,,,, त्रेता युग में राजा दशरथ एक प्रतापी राजा थे। वे राजा आखेट प्रिय थे। एक बार अनजाने में उन्होंने श्रवण कुमार नामक ब्राह्मण का आखेट में वध कर दिया। उस ब्राह्मण के अंधे माता पिता ने राजा को श्राप दिया कि जिस प्रकार हम लोग पुत्र शोक में मर रहे हैं इसी प्रकार तुम्हारा भी पुत्र शोक में मरण होगा। राजा को बहुत चिंता हुई। उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। फलस्वरूप भगवान जगदीश्वर ने राम रूप में अवतार लिया भगवती लक्ष्मी जानकी के रूप में अवतरित हुई। पिता की आज्ञा पाकर भगवान राम सीता और लक्ष्मण सहित वन को गए। जहां उन्होंने खर दूषण आदि अनेक राक्षसों का वध किया। इससे क्रोधित होकर रावण ने सीता जी का अपहरण कर लिया। सीता जी की खोज में भगवान राम ने पंचवटी का त्याग कर दिया। और ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचकर सुग्रीव के साथ मित्रता की। तदुपरांत सीता की खोज में हनुमान आदि वानर तत्पर हुए। ढूंढते ढूंढते वानरों ने गिद्ध राज संपाती को देखा। इन वानरों को देख कर संपाती ने पूछा कि कौन हो? इस वन में कैसे आए हो? संपाती की बात सुनकर वानरों ने उत्तर दिया कि भगवान श्री राम जी सीता और लक्ष्मण के साथ दंडक वन में आए हैं। वहां पर उनकी पत्नी सीता जी का अपहरण कर लिया गया है। हम नहीं जानते कि सीता जी कहां है? उनकी बात सुनकर संपाती ने कहा कि तुम सब रामचंद्र जी के सेवक होने के नाते मेरे मित्र हो। जानकी जी का जिसने हरण किया है और वह जिस स्थान पर है वह मुझे ज्ञात है। सीता जी के लिए मेरा छोटा भाई जटायु अपने प्राण गवा चुका है। यहां से थोड़ी ही दूर पर समुद्र है। समुद्र के उस पार राक्षसों की नगरी है। वहां अशोक के वृक्ष के नीचे सीता जी बैठी हुई हैं। रावण द्वारा अपहृत सीता जी मुझे दिखाई दे रही है। मैं आप लोगों से सत्य कह रहा हूं की सभी वानरों में हनुमान जी ही अपने पराक्रम से समुद्र लांघ सकते हैं। अन्य कोई भी इस कार्य में समर्थ नहीं है। संपाती की बात सुनकर हनुमान जी ने पूछा कि हे संपाती इस विशाल समुद्र को मैं कैसे पार कर सकता हूं? जब हमारे सभी वानर उस पार जाने में असमर्थ हैं तो मैं ही अकेला कैसे पार जा सकता हूं? हनुमान जी की बात सुनकर संपाती ने उत्तर दिया कि हे मित्र आप संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत कीजिए उस व्रत के प्रभाव से आप समुद्र को क्षण भर में पार कर लेंगे। संपाती के आदेश से संकट चतुर्थी के व्रत को हनुमान जी ने किया हे देवी इसके प्रभाव से हनुमानजी क्षण भर में समुद्र को लांघ गये । इस लोक में इसके समान कोई दूसरा व्रत नहीं है। इसके अतिरिक्त भगवान श्री कृष्ण के कहने पर एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भी यह व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह भी अपने शत्रु पर विजय प्राप्त कर राज्य के अधिकारी बन गए।