उत्तराखंड के कुमाऊं में बिरुडा पंचमी एवं सातों- आठों व्रत है एक महत्वपूर्ण त्यौहार
कुमाऊं में बिरुडा पंचमी एवं सातों- आठों व्रत,,,,,,,,, देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग में एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। विरुडा पांच प्रकार के अनाजों जैसे भट्ट उड़द चना गेहूं आदि पांच अनाजों को भिगोया जाता है। देवभूमि उत्तराखंड देवी देवताओं की भूमि रही है। यहां शक्ति स्वरूप मां नंदा व गमरा को भक्त समाज एक ही भाव से देखता है। इस व्रत की कथा को महिला वर्ग लोकगीत के रूप में गाती हैं। जब यहां की बहू गमरा से संतान की कामना करती है तो देवी कहती है। गौरा देवी को सप्तमी को व्रत करूं सासु सप्तमी को बरत, इसके बाद सास कहती है- सात समुंदर पार बटिक लाओ कुकुडी- माकुल को फूल, । बहु कहती है- गहरी छू गंगा चिफलो छू बाटो कसिक ल्यूलो इजु कुकडी- माकुल को फूल, । सप्तमी के दिन महिलाएं झंडू में एकत्रित होकर बिरुडा के वर्तनों को लेकर सिर पर रखकर नदी धारे या नौले मैं जाती है। पानी के नजदीक घास से गमरा की मूर्ति बनाती है। उसे रोली अक्षत धूप पुष्प फल मिष्ठान आदि चढ़ाती है बाद में बिरुडे धोने के बाद कुंवारी कन्याओं के द्वारा गवारा की मूर्ति बनाती है। जिसे कुमाऊनी वेशभूषा के वस्त्र आभूषण पहनाकर एक डलिया में रखकर सिर में धारण करके शंख घंटी ध्वनि के साथ घर के आंगन में गमरा के जन्म से ससुराल जाने तक है गीत गाए जाते हैं। महिलाएं उसे बिरोड़ा चढ़ाती हैं। दूसरे दिन महेश्वर जिसे स्थानीय भाषा में कहीं मैसू और कहीं मैं सर कहते हैं। की आकृति की मूर्ति बनाई जाती है। ब्राह्मण स्तोत्र पाठ प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। तथा गौरा के साथ मैसर को भी डलिया में स्थापित किया जाता है। श्री साम्ब सदाशिव प्रीति पूर्वक ऐहिकाअ्मुष्मिक सकल सुख सौभाग्य संतति बृध्दये मुक्ताभरण सप्तमी व्रतं करिये तदंगत्वेन पट्टे लिखियतों । मुक्ता भरण पट्टे चित्र में महिलाएं इस प्रकार चित्रांकन करती हैं। अब मैं पाठकों को मुक्ता भरण सप्तमी की कथा के संबंध में बताना चाहता हूं। इसे संतान सप्तमी व्रत कथा भी कहते हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार यह कथा भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी एक बार मथुरा में लोमस ऋषि आए देवकी और वसुदेव ने भक्ति पूर्वक उनकी सेवा की। देवकी और वसुदेव की सेवा से प्रसन्न होकर लोमस ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने का उपाय बताया और कहा कि उन्हें संतान सप्तमी का व्रत करना चाहिए। लोमस ऋषि ने देवकी और वसुदेव को व्रत की विधि और कथा सुनाई। जो इस प्रकार है- अयोध्यापुरी नगर का प्रतापी राजा था जिसका नाम नहुष था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसी राज्य में विष्णु दत्त नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती सखियां थी। दोनों साथ में ही सारा काम करती थी। स्नान से लेकर पूजा पाठक दोनों एक साथ ही रहती थी। 1 दिन सरयू नदी में स्नान कर रही थी और वही कई स्त्रियां स्नान कर रही थी। सभी ने मिलकर वहां भगवान शंकर और मां पार्वती की मूर्ति बनाई और पूजा करने लगी। चंद्रमुखी और रूपवती ने उन स्त्रियों से इस पूजन का नाम और विधि बताने को कहा। उन्होंने बताया कि यह संतान सप्तमी व्रत है। और यह व्रत संतान देने वाला है। यह सुनकर दोनों सखियों ने इस व्रत को जीवन भर करने का संकल्प लिया लेकिन घर पहुंच कर रानी भूल गई और भोजन कर लिया मृत्यु के बाद रानी बांदरी और ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुई। कालांतर में दोनों पशु पक्षी योनि छोड़कर मनुष्य योनि में आई। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वी नाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। इस जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था । घोषणा का विवाह राजपुरोहित अग्नि मुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। लेकिन पिछले जन्म में व्रत करना भूल गई थी। इसलिए रानी को इस जन्म में संतान प्राप्ति का सुख नहीं मिला लेकिन भूषणा नहीं भूली थी उसने व्रत किया था। इसलिए उसे सुंदर और स्वस्थ 8 पुत्र हुए। संतान न होने के कारण रानी परेशान रहने लगी। तभी एक दिन भूषणा उसे मिली भूषणा के पुत्रों को देखकर रानी को जलन हुई और उसने बच्चों को मारने का प्रयास किया। लेकिन घोषणा के किसी भी पुत्र को नुकसान नहीं पहुंचा और वह अंत में रानी को क्षमा मांगनी पड़ी। भूषणा ने रानी को पिछले जन्म की बात याद दिलाई और कहा उसी के प्रभाव से आपको संतान प्राप्ति नहीं हुई है और मेरे पुत्रों को चाह कर भी आप नुकसान नहीं पहुंचा पाई। यह सुनकर रानी ने विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ता भरण व्रत रखा। जिसके बाद रानी के गर्भ से भी संतान का जन्म हुआ।अत: यह व्रत अवश्य रखना चाहिए, । लेखक पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल,