उत्तराखंड में बाघों का कुनबा बढ़ने के साथ ही चुनौतियां भी
उत्तराखंड में बाघों का कुनबा बढ़ने के साथ ही चुनौतियां भी
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
8 अगस्त 1936 को कॉर्बेट पार्क को ‘हेली नेशनल पार्क’ का नाम दिया गया। इसके बाद 1955 में हेली नेशनल पार्क का नाम बदलकर ‘रामगंगा नेशनल पार्क’ कर दिया गया। फिर इसे 1957 में ‘जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क’ नाम दिया गया। बताया कि एक अप्रैल 1973 में बाघ परियोजना की शुरुआत सरकार ने कॉर्बेट टाइगर रिजर्व से की। उत्तराखंड में कार्बेट नेशनल पार्क में प्राकृतिक आवास, प्राकृतिक व पक्के वाटरहोल, भरपूर पानी बाघों को सुरक्षित माहौल देता है। 700 फील्ड स्टाफ, कई किलोमीटर तक निगाह रखने वाले हाइटेक थर्मल कैमरे, ड्रोन मानिटरिंग, रामगंगा नदी में मोटरबोट से गश्त के इंतजाम यहां के बाघों को संरक्षित करने के मकसद से ही हैं। कार्बेट नेशनल पार्क का दायरा नैनीताल एवं पौड़ी गढ़वाल जिले तक है देश में बाघों की संख्या लगातार बढ़ रही है। चाहे मध्य प्रदेश हो, उत्तराखंड या बिहार का वाल्मिकी टाइगर रिजर्व, सभी जगह बाघों की संख्या में इजाफा हुआ है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के मुताबिक कार्बेट टाइगर रिजर्व (सीटीआर) बाघों की संख्या के मामले में देश के 51 टाइगर रिजर्व में नंबर एक है। राज्यों में बाघ की संख्या के लिहाज से उत्तराखंड तीसरे स्थान पर है। वहीं, मध्य प्रदेश में बाघों का कुनबा ऐसा बढ़ा है कि वहां के जंगल छोटे पड़ने लगे हैं। उन स्थानों पर भी बाघ के पगमार्क देखे गए हैं जहां से वह गायब हो चुके थे। पूरे विश्व में आज अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस है। बाघों की संख्या के लिहाज से देश में कीर्ति कायम करने वाले कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में इतिहास रचने की तैयारी कर ली है। साल 2006 में 150 बाघों वाले कॉर्बेट पार्क में 1और अब 4 साल बाद ही 250 से अधिक बाघ हो गए है। इससे उत्साहित पार्क प्रशासन वर्ष 2022 में बाघों की गिनती करने की तैयारियों में लगा हुआ है। पार्क के अधिकारियों का कहना है कि कॉर्बेट नेशनल पार्क 300 के करीब बाघों का आंकड़ा जल्द ही छू सकता है। अधिकारियों का कहना है कि बाघों की संख्या के लिहाज से भी कॉर्बेट टाइगर रिजर्व पहले पायदान मौजूद है। और कहा कि कॉर्बेट में 250 से अधिक बाघ हैं, जबकि बांदीपुर टाइगर रिजर्व में 130 के करीब बाघ हैं। महाराष्ट्र के टाइगर रिजर्व में 120 से अधिक बाघ हैं। यहां के अधिकारी बताते हैं कि कॉर्बेट में 2006 से बाघों की गणना का काम शुरू किया गया था। तब पार्क में 150 बाघ थे। वहीं हर साल बाघों की मौत भी हो रही है। अलग-अलग वजह से मारे गए बाघों की मौत का जो आंकड़ा सामने आया है, वह चिंतित करने वाला है। कार्बेट में ज्यादातर बाघ तो आपसी संघर्ष में मारे गए, लेकिन जमीन पर रेंगने वाले सेही, सांप से लेकर मगरमच्छ भी उनके लिए खतरनाक साबित हो रहे है। सीटीआर में हर साल औसतन चार बाघों की मौत हो रही है। यानी हर तीन माह में एक बाघ दम तोड़ रहा है। सबसे ज्यादा बाघ अलग-अलग वजह से बीते पांच सालों में मारे गए हैं।सीटीआर से मिले आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2001 से लेकर 2021 मार्च तक 76 बाघ मारे गए हैं। जिसमें बाघों के बीच हुई आपसी संघर्ष में सर्वाधिक 31 बाघ मारे गए हैं। जबकि 45 बाघ अन्य वजहों जिसमें सांप के हमले, सेही के हमले, मगरमच्छ के हमले, हाथी के हमले, पहाड़ी से गिरने, रोगग्रस्त होने, पहाड़ी से गिरने, टैंक में गिरना बाघ की मौत की वजह बनी। यह वह मृत बाघ है जो विभागीय कागजों में दर्ज है। सीटीआर के निदेशक ने बताया कि बाघों की यदि मौत हो रही है तो वह बढ़ भी रहे हैं। सभी मौत प्राकृतिक हैं। बाघों की सुरक्षा व संरक्षण पर विभाग हमेशा जुटा है। आपसी संघर्ष के अलावा सेही, सांप के हमले से भी बाघों की मौत हुई है। वहीं, वरिष्ठ पशु चिकित्सक सीटीआर का कहना है कि सेही बाघ पर हमलावर हो जाती है। सेही के नुकीले कांटे बाघ के गले व चेस्ट में चुभ जाते हैं। जितना बाघ मूवमेंट करेगा। उतना यह कांटे शरीर के भीतर तक घुसते जाते हैं। ऐसे में बाघ घायल या फिर उनकी मृत्यु हो जाती है। सांप के कटने से बाघ की मौत पूर्व में रिपोर्ट हुई थी। अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस पर वन्यजीव प्रेमियों को बधाई, खासतौर से उन लोगों को जो बाघों के संरक्षण के लिए बहुत सचेत हैं। दुनिया भर में जितने बाघ हैं, उनमें से 70 प्रतिशत बाघों का घर भारत है। हम एक बार फिर यह प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं कि हम अपने बाघों के लिए सुरक्षित प्राकृतिक वास सुनिश्चित करेंगे और बाघों के अनुकूल इको-सिस्टम को बढ़ावा देंगे।पीएम मोदी ने कहा, भारत में बाघों के 51 अभ्यारण्य हैं, जो 18 राज्यों में फैले हैं। बाघों की पिछली गणना 2018 में हुई थी, जिससे पता चला था कि बाघों की संख्या बढ़ रही है। बाघों के संरक्षण के मामले में सेंट पीटर्सबर्ग घोषणापत्र में जो समय सीमा तय की गई है, उसे मद्देनजर रखते हुये भारत ने बाघों की तादाद दुगनी करने का लक्ष्य चार साल पहले ही हासिल कर लिया है।उन्होंने आगे कहा, बाघों के संरक्षण के सिलसिले में भारत की रणनीति में स्थानीय समुदायों को सबसे ज्यादा अहमियत दी जा रही है। हम अपनी सदियों पुरानी परंपरा का भी पालन कर रहे हैं, जो हमें सिखाती है कि हमें जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों के साथ समरसता के साथ रहना चाहिए, क्योंकि ये सब भी इस धरती पर हमारे साथ ही तो रहते हैं। अब तो बाघों ने इन इलाकों से निकलकर उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक दस्तक दी है। जाहिर है कि इनकी सुरक्षा और इनसे जनमानस की सुरक्षा, वन क्षेत्रों में बेहतर वासस्थल की चुनौतियां भी बढ़ गई हैं। इस सबको देखते हुए वन महकमे ने वासस्थल विकास पर खास ध्यान केंद्रित किया है, ताकि बाघ जंगल की देहरी पार न करें।संरक्षण के लिए उठाए गए कदमों का ही नतीजा है कि प्रदेश में बाघ लगातार बढ़ रहे हैं। आंकड़ों को देखें तो वर्ष 2008 में यहां बाघों की संख्या 179 थी, जो वर्ष 2018 में 442 पहुंच गई। अखिल भारतीय बाघ गणना (2018) के मुताबिक संख्या के लिहाज से मध्य प्रदेश (526) व कर्नाटक (524) के बाद उत्तराखंड तीसरे स्थान पर है। जिस हिसाब से प्रदेश में बाघ बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए अगली गणना में यह आंकड़ा पांच सौ के करीब तक पहुंच सकता है। इस बीच पिछले चार-पांच वर्षों के दौरान बाघों की मौजूदगी उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भी देखी गई है। 14 हजार फीट की ऊंचाई तक केदारनाथ वन प्रभाग, मध्यमहेश्वर, अस्कोट सेंचुरी जैसे क्षेत्रों में लगे कैमरा ट्रैप में कैद बाघों की तस्वीरें इसे प्रमाणित करती है। ऐसे में बाघों के लिए वन क्षेत्रों में भोजन, सुरक्षा जैसे मामलों में चुनौतियां बढ़ गई हैं। प्रदेश में बाघों की बढ़ती संख्या को देखते हुए वासस्थल विकास पर खास फोकस किया गया है। इस कड़ी में संरक्षित क्षेत्रों को लैंटाना की झाड़ियों से मुक्त कर खाली जगह को घास के मैदानों के रूप में विकसित किया जा रहा है। इससे शाकाहारी वन्यजीवों को आहार उपलब्ध होगा तो बाघों के लिए शिकार की कमी नहीं होगी। इसके साथ ही सुरक्षा समेत अन्य पहलुओं के मद्देनजर भी प्रभावी कदम उठाए जा रहे हैं। जल्द ही बाघ, गुलदार व हाथियों की गणना का कार्यक्रम निर्धारित किया गया है। भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक कार्बेट टाइगर रिजर्व में जो क्षेत्रफल उपलब्ध है। उसमें सिर्फ 148 बाघ होने चाहिए, जबकि वहां बाघों की संख्या 250 तक पहुंच गई है। प्रदेश के वनों की भी यही स्थिति है। लगातार बिगड़ रहे पारिस्थितिकी संतुलन की वजह से बाघ व अन्य वन्य जीव जंगलों से बाहर निकल रहे हैं जिससे मानव और उनके बीच संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हैं। भविष्य में इस चुनौती से पार पाना आसान नहीं होगा। ‘मानव और वन्य जीवों के बीच बढ़ रही संघर्ष की घटना के पीछे एक वजह टेरिटरी का कमी भी है। बाघ संरक्षण के लिए जनता और वनकर्मियों को जान भी चुकानी पड़ रही है। आने वाले समय में यह चुनौती बढ़ सकती है। हमें सतर्क और सजग रहना होगा।’
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में है.