पर्वतीय इलाकों में बांज के जंगलों बांज प्रजातियों का अस्तित्व
पर्वतीय इलाकों में बांज के जंगलों बांज प्रजातियों का अस्तित्व
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय
दुनियाभर में अलग और अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाला हिमालय जैव विवधता का हॉट-स्पॉट है। यहां के जंगल व इन पर निर्भर जीवों ने इस ख़ास वातावरण में अपनी एक अलग जगह बनाने के लिए लाखों सालों तक संघर्ष किया है। इस दौरान जलवायु परिवर्तन भी हुआ और संसाधनों के लिए जीव जंतुओं के बीच आपसी संघर्ष की भी नौबत आई। इस प्रक्रिया में बहुत से जीव व उनकी प्रजातियों का अस्तित्व खत्म हुआ, तो कई प्रजातियां सर्वाइव कर गई। पर्यावरणीय बदलाव, जलवायु परिवर्तन और आपसी संघर्ष लाखों सालों की प्रक्रिया का हिस्सा रही है। इस दौरान जीव जुंतुओं ने सर्वाइव करना भी सीखा, लेकिन इन जंगलों व जीवों के लिए लाखों सालों के जलवायु परिवर्तन ने जो मुसीबतें खड़ी नहीं की, वह मानव दखल के कारण पिछले 50-100 सालों में पैदा हो गई है।इंसानों के जंगलों को निगलने की रफ्तार ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है। जंगलों का कटान अनेकों कारणों से जारी है, जो इन जंगलों पर निर्भर जीवों को संभलने का मौका नहीं दे रहा है। इसके चलते कई जीवों के अस्तित्व मिटने की गति हज़ार गुना बढ़ गयी है। देहरादून स्थित सेंटर फॉर इकोलॉजी, डेवलपमेंट एंड रिसर्च शोध संस्थान ने अपने शोध में पाया है कि उत्तराखंड के जंगलों के भू- प्रयोग में बदलाव से जंगलों पर निर्भर पक्षियों की व उनकी अनेकों प्रजातियों की संख्या में 50 फीसदी तक की गिरावट आयी है। जंगलों को कृषि के साथ-साथ बढ़ते शहरीकरण ने बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, जिस कारण ये नौबत आयी है।शोध के नतीजों को ग्लोबल कंज़र्वेशन एंड इकोलॉजी पत्रिका ने प्रकाशित किया है। यह शोध मुख्यतः नैनीताल जिले के मुक्तेश्वर और पंगोट गांव में किया गया। इन दो केंद्रों को 194 स्टडी साईट में बांटा गया था। शोध में लिए गए बांज के जंगलों को तीन श्रेणी में बांटा गया, जिससे अलग-अलग भू-प्रयोग का पता चलता है। पहला (प्राकृतिक) पूरी तरह से सुरक्षित/संरक्षित बांज का जंगल, जहां मानव दखल की गुंजाईश न हो। दूसरा (मध्यम) जंगल जिसमें आसपास से लोग सीमित मात्रा में पत्तियां, लकडियां, इत्यादि लेने आते थे। तीसरे (खराब) तरह का जंगल जो आस-पास के लोगों द्वारा अत्यधिक प्रयोग में लाया जाता था। शोध में चीड़ का जंगल उसके आसपास की कृषि भूमि और पूरी तरह से शहरीकृत क्षेत्र को भी शोध में शामिल किया गया (तीनों ही अलग अलग तरह के भू-प्रयोग हैं) कुल प्रजातियों की संख्या के मामले में अगर एक अनछुए बांज के जंगल से तुलना करें तो अन्य तरह के भू- प्रयोगों में गिरावट चौंकाने वाली है। खासकर शहरी इलाकों में यह गिरवाट चिंतनीय है। सभी क्षेत्रों में बांज वन के मुकाबले औसत प्रजातियों की संख्या भी निराश करने वाली है। बांज वन की तुलना में कृषि में 50 फीसदी व शहर के आसपास केवल 48 फीसदी प्रजातियां ही पायी गयी।सीधे तौर पर कहा जाए तो जंगलों का भू-प्रयोग शहरीकरण व कृषि के कारण बदलने का दुष्परिणाम पक्षियों की प्रजातियों की घटती संख्या के तौर पर साफ़ दिखाई देता है। यह आम समझ है कि शहरीकरण व खेती बढ़ने से पक्षियों की संख्या घटेगी पर उनकी विविधता व प्रजातियों का इस हद तक गिरावट देखना अप्रत्याशित है। आंकड़ों से यह भी साबित होता है कि चीड़ के जंगल पक्षियों की जैवविविधता को बढ़ावा देने में असफल हैं। पूर्व में भी तमाम वैज्ञानिक बढ़ते चीड़ वन के क्षेत्र और उसके खतरों से आगाह कर चुके हैं। दूसरे वनों की कीमत पर चीड़ क्षेत्र का बढ़ना पक्षियों की संख्या व विविधता के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। सीमित रूप में प्रयोग में लाये जा रहे (मध्यम) जंगल जरूर इस सब में आशा की किरण के रूप में सामने आये हैं। इन क्षेत्रों ने तुलनात्मक रूप से काफी अधिक प्रजातियों व समूहों को संरक्षित रखा है।बांज वन की तुलना में अन्य तरह के जंगल जिसमें आस-पास के लोग बहुत अधिक चारा, पत्ती, ईंधन लेने आते हैं वहां 75 फीसदी तक ऐसी प्रजातियां कम हो गयी हैं, जो केवल बांज वन पर ही निर्भर हैं। शोध के नतीजो से पता चलता है कि जहां जंगलों में इंसानों का अत्यधिक दखल है और जहां वन के भू-उपयोग में बड़ा बदलाव लाया गया है, वहां पक्षियों का भविष्य गंभीर खतरे में है। ऐसे पक्षी जो वन पर पूर्णतः निर्भर न रहकर अन्य स्रोतों /क्षेत्रों (खेती) से भी भोजन व रहने का जुगाड़ करते हैं, उनपर भू-प्रयोग में बदलाव का अधिक असर नहीं पड़ा है। हालांकि, शहर में इनकी प्रजातियों की संख्या में गिरावट दर्ज हुई है।दुनिया में बांज की कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। बांज का महत्व समझते हुए वन विभाग ने इसकी प्रजातियों के संरक्षण के ठोस प्रयास शुरू कर दिए हैं। द मॉर्टन अर्बोरटम और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के ग्लोबल ट्री स्पेशलिस्ट ग्रुप की ओर से जारी रिपोर्ट द रेड लिस्ट ऑफ ओक्स 2020 में दुनिया की 31 प्रतिशत बांज प्रजातियों को विलुप्ति के कगार पर बताया गया है।रिपोर्ट में भारत में चार प्रजातियां संकटग्रस्त बताई गई है। हालांकि राज्य में बांज की किसी प्रजाति के विलुप्त होने के कगार पर पहुंचने की रिपोर्ट विभाग के पास नहीं है। उत्तराखंड में पांच प्रकार का बांच पाया जाता है, जिनको संरक्षित किया जा रहा है। बांज को उत्तराखंड का हरा सोना कहा जाता है। चीड़ का जंगल खत्म कर बांज के जंगल बढ़ाने की मांग उठती रही है। वन विभाग के हल्द्वानी रिसर्च केंद्र ने रानीखेत में एक हेक्टेयर में बांच संरक्षण केन्द्र बनाया है।बांज की जड़ें भरपूर मात्रा में पानी अवशोषित करती हैं और गर्मी में पानी छोड़ती हैं।इसकी वजह से पर्वतीय क्षेत्रों में जलसंकट से निपटने में बांज के जंगल अपनी अहम भूमिका अदा करते हैं। इतना ही नहीं बाज के पेड़ों की जड़ें मिट्टी को जकड़ कर रखती हैं, जिससे भू कटाव कम होने के साथ ही भूस्खलन का भी खतरा कम रहता है। बांज के पेड़ों की लकड़ियां ईंधन के तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं। वहीं पत्तों की मदद से बिछौने बनाए जाते हैं। ठंड के मौसम में पत्तों के बिछौने बनाकर मवेशियों को ठंड से बचाया जाता है।उत्तराखंड में विकास योजनाओं के लिए बांज के पेड़ नहीं काटे जाएंगे। बांज के जंगल वाली जमीनें भी परियोजनाओं के लिए हस्तांतरित नहीं की जाएंगी। बहुत जरूरी होने पर उस जमीन के बदले ऐसी ही भूमि पौधे लगाने के लिए दी जाएगी जो बांज के लिए अनुकूल हो। केंद्रीय वन भूमि हस्तांतरण के क्षेत्रीय अधिकारियों और वन विभाग के बीच इसे लेकर सहमति बनी है।इस मामले में केंद्रीय वन भूमि हस्तांतरण के क्षेत्रीय अफसरों के साथ बैठक की गई। इस दौरान ये बात सामने आई कि जिन योजनाओं के लिए बांज वाली वन भूमि दी जाती है, अक्सर उनके बदले पौधरोपण अन्य प्रजातियों का कर दिया जाता है। या ऐसी जगह जमीन दे दी जाती है जहां बांज उग ही नहीं सकता। इससे राज्य में बांज के जंगल कम हो रहे हैं। चूंकि बांज पहाड़ी क्षेत्रों में जल संरक्षण और पारिस्थतिकीय महत्व के लिहाज से सबसे अच्छी प्रजाति है, इसलिए इसका संरक्षण बेहद जरूरी है। पीसीसीएफ के अनुसार, इस पर बैठक में सहमति बनी कि विभिन्न योजनाओं के लिए बांज वाली वन भूमि नहीं दी जाएगी। बहुत जरूरी होने तक बांज के पेड़ ना काटने की कोशिश की जाएगी। अगर ये भी संभव नहीं होगा तो बांज के जितने पेड़ काटने पड़ेंगे, उनके बदले बांज का ही पौधरोपण करना होगा, जहां वह आसानी से उग पाएदरअसल देखा जाए तो वन पंचायत काफी हद तक की आग पर काबू पाने में सफल हो सकते हैं। वन पंचायतों का गठन आज मात्र एक औपचारिकता ही प्रतीत होती है क्योंकि, उनके वर्तमान दायित्व और अधिकार उन्हें वनों के संरक्षण के प्रति प्रेरित भी नहीं करते हैं। इन वन पंचायतों को नये तर्ज व शैली में पर्याप्त प्रोत्साहन, इंटेंसिव देकर गांवों के हर दर्जे के वनों के रखरखाव के लिए भी जोड़ा जा सकता है। अकेले उत्तराखंड में 12 हजार से ज्यादा वन पंचायतें हैं, जो जंगल की आग को समय पर रोकने के लिए काफी हैं। देवभूमि के पर्यावरण के अनुसार करीब 50 फीसद वनक्षेत्र बांज का होना जरूरी है, लेकिन फिलहाल करीब 17 फीसद है। जबकि हिमालय के पर्यावरण के प्रतिकूल चीड़ के जंगल 20 फीसद इलाके पर हैं, जिससे इको सिस्टम बिगड़ रहा है और विनाशकारी आपदाएं दस्तक दे रही है। आरक्षित वनों को छोड़कर बांज के जंगलों की हालत अत्यन्त ही दयनीय अवस्था में है।जनसंख्या बहुल गांव-इलाकों में बांज समेत दूसरी प्रजातियों के जंगल सिमटने की ओर अग्रसर हैं। निश्चित ही इससे हिमालय के पर्यावरण व ग्रामीण कृषि व्यवस्था में इसका प्रभाव पड़ पर रहा है। इन बातों को ध्यान में रखकर हमें बांज के संरक्षण, विकास व इनके पौंध रोपण में सामूहिक प्रयासों की जरुरत प्राथमिकता के तौर पर समझनी होगी। कदाचित इस बात की कल्पना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ग्रामीण परिवेश में बांज के पेड़ आने वाले दशकों में कहीं इतिहास की वस्तु न बन जाय। देखा जाय तो पहाड़ के इस लोकगीत “नी काटा-नी काटा झुमराली बांजा, बजांनी धुरो ठण्डो पाणी“ का आशय भी यही लगता है कि – लकदक पत्तों वाले बांज को मत काटो, शिखरों में स्थित बांज के इन जंगल के बदौलत हमें शीतल जल प्राप्त होता है।
लेखक,वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।