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कमल के. पांडेय
स्वतंत्र टिप्पणीकार, तकनीकी एवं मीडिया नवाचारों के विश्लेषक

उत्तराखंड की धरती केवल भूमि का टुकड़ा नहीं, बल्कि हिमालय की सांसों से जुड़ी एक जीवित विरासत है। यहाँ की मिट्टी में लोकगीतों की गूंज है, नदियों में लोकजीवन का प्रवाह, और वनों में सदियों की साधना समाई है। लेकिन आज यह पवित्र भूमि धीरे-धीरे बिक रही है, कभी बाहरी पूंजी के नाम पर, तो कभी विकास के चमकदार वादों में लिपटी नीतियों के बहाने। यह केवल ज़मीन की बिक्री नहीं, बल्कि उस आत्मा की आह है जो इस प्रदेश की पहचान रही है।

पिछले दो दशकों में पहाड़ों की भूमि तेजी से बाहरी हाथों में गई है। गाँव खाली हो रहे हैं, खेत बंजर बनते जा रहे हैं, और जो कभी धरा का गहना थे, वे अब रियल एस्टेट के प्लॉट में तब्दील हो रहे हैं। पलायन, बेरोज़गारी और प्राकृतिक असंतुलन का यह चक्र एक ही बात कहता है कि पहाड़ अब अपने नहीं रहे। और जब पहाड़ अपने नहीं रहते, तो उनकी आत्मा भी सिसकने लगती है।

जरूरत इस बात की है कि उत्तराखंड अपनी भूमि नीति पर पुनर्विचार करे। जैसे हिमाचल प्रदेश या सिक्किम में बाहरी लोगों को जमीन खरीदने पर प्रतिबंध है, वैसे ही यहाँ भी कानून बनना चाहिए कि केवल उत्तराखंडवासी ही इस प्रदेश की भूमि खरीद सकें। यदि कोई बाहरी निवेशक औद्योगिक या परियोजनात्मक उद्देश्य से भूमि लेना चाहता है, तो वह उसे केवल पट्टे पर ले सके, स्वामित्व में नहीं।

साथ ही, औद्योगिक उपयोग हेतु दी गई भूमि के लिए स्पष्ट नियम तय हों अर्थात एक वर्ष में कार्य प्रारंभ और तीन वर्षों में अनिवार्य निरीक्षण। यदि उपयोग उद्देश्य के अनुरूप न हो, तो भूमि स्वतः राज्य को वापस मिल जाए। इससे सट्टेबाज़ी रुकेगी, और निवेश केवल उन्हीं के लिए संभव होगा जो वास्तव में उत्तराखंड के विकास के प्रति प्रतिबद्ध हैं।

यह विचार किसी संकीर्ण दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि संरक्षण की भावना से उपजा है। जब स्थानीय लोग अपनी जमीन और संस्कृति के स्वामी बने रहेंगे, तभी पहाड़ों की पहचान, उनका संतुलन और आत्मा जीवित रह सकेगी। विकास जरूरी है, पर वह विकास जो अपनी जड़ों से जुड़ा हो।

अगर हमने अब भी न सोचा, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी। तब शायद कोई बच्चा किसी बूढ़े से पूछेगा—“दादाजी, क्या यहाँ कभी लोग रहते थे?” और जवाब मिलेगा—“हाँ बेटा, कभी यहाँ जीवन था पर अब बस मकान हैं।”

पहाड़ों को बचाना सिर्फ ज़मीन या पेड़ों का मामला नहीं, यह हमारे दिल और आत्मा को बचाने की पुकार है। ये वही पहाड़ हैं जिन्होंने हमें बोलना, गाना और जीना सिखाया। आज अगर हम इन्हें बेच देंगे, तो अपने ही वजूद का हिस्सा खो देंगे।

पहाड़ बिक रहे हैं, और उनके साथ हमारी संवेदनाएँ भी धीरे-धीरे मिटती जा रही हैं। अब वक्त है कि हम ठहरें, सोचें, और इस सिसकती हुई धरती को संभाल लें वरना यह सन्नाटा हमेशा के लिए हमारी यादों में जम जाएगा।

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