ओबीसी सूची में अपनी मर्जी से जातियों को अधिसूचित करने का होगा अधिकार
ओबीसी सूची में अपनी मर्जी से जातियों को अधिसूचित करने का अधिकार होगा।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
ओबीसी की लिस्ट तैयार करने का अधिकार हमेशा से केंद्र के पास नहीं रहा है बल्कि केंद्र सरकार ने 2018 में कानून में संशोधन करके यह अधिकार राज्यों से छीन लिया था। उससे पहले, वर्ष 1993 से ही राज्य अपने-अपने यहां की ओबीसी जातियों की लिस्ट तैयार किया करती थी। अब जब संशोधन विधयेक संसद के दोनों सदनों से पारित होकर राष्ट्रपति का दस्तखत पा लेगा तो फिर से ओबीसी लिस्ट तैयार करने का अधिकार केंद्र से राज्यों को ट्रांसफर हो जाएगा। ऐसा होने पर राज्य सरकारें अपनी तरफ से किसी जाति को ओबीसी लिस्ट में शामिल कर पाएगी और किसी अन्य को हटा भी पाएगी। उत्तरप्रदेश राज्य के जिस हिस्से के लोग उत्तरप्रदेश से अलग होकर उसे उत्तराखंड राज्य बनाना चाहते थे वहां की भौगोलिक परिस्थितियों उत्तरप्रदेश से बिलकुल अलग थी।इस राज्य के कई गाँव दुर्गम में तो कई अति दुर्गम इलाकों में बसे हैं जहाँ पर अभी तक भी मूलभूत सुबिधायें (सडक ,बिजली, पानी,स्कूल आदि) नही पहुंच पाई हैं। सरकार को उत्तराखंड हिमालय के 10 जिलों के मूल निवासी गरीब जातियों को 27 प्रतिशत ओबीसी में शामिल किया जाना चाहिए। अब नये एक्ट के अनुसार सरकार को यह अधिकार मिल गया है कि कि वह ओबीसी में नयी जातियों को शामिल कर सकती है।बेरोजगार हिमालय के युवाओं के हक में आवाज उठनी चाहिए। मंडल आयोग की सिफारिश को भी लागू नहीं किया गया. 1990 में जब वीपी सिंह की सरकार आई तो उन्होंने इस सिफारिश को लागू किया और सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए 27 परसेंट आरक्षण का प्रावधान रखा. इससे पहले हमारे संविधान में एससी और एसटी के लिए आरक्षण का प्रावधान था लेकिन बाद में ओबीसी के लिए भी 27 परसेंट आरक्षण का नियम बनाया गया. इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले को संज्ञान में लेते हुए ओबीसी आरक्षण को वाजिब ठहराया. कोर्ट ने क्रिमी लेयर की बात की और कहा कि इसे ओबीसी आरक्षण से बाहर निकालने की जरूरत है ताकि जो लोग सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े हैं उन्हें आरक्षण का लाभ मिल सके. उत्तराखंड में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण 14 फीसदी से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने का दबाव बढ़ने जा रहा है। राज्य में ओबीसी का आरक्षण बढ़ाने और क्रीमीलेयर का दायरा संशोधित करने की मांग जोर पकड़ने लगी है। ओबीसी आयोग पहले ही राज्य सरकार से इसकी सिफारिश कर चुका है। इस संबंध में कई राजनीतिक दलों और ओबीसी नेताओं का कहना है कि उत्तराखंड बनने के समय ओबीसी के लिए 14 फीसदी आरक्षण तय किया गया था। अब चूंकि राज्य बने 20 साल से अधिक हो चुके हैं और इस दौरान ओबीसी का दायरा भी बढ़ा है तो पिछड़े वर्ग के लोगों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए आरक्षण बढ़ाया जाना जरूरी है। संविधान संशोधन बिल पेश होने के बाद ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण और क्रीमीलेयर का दायरा बढ़ाने की वकालत शुरू हो गई है। उत्तराखंड में ओबीसी के लिए अभी सालाना आठ लाख रुपये का दायरा तय है। इससे अधिक आय पर इस वर्ग के लोगों को सुविधाएं नहीं मिल पाती है। इस वर्ग से जुड़े कई लोगों का तर्क है कि महंगाई दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। ओबीसी आयोग के पूर्व अध्यक्ष ने कहा कि राज्य में सालाना आय का मानक काफी समय पहले से निर्धारित है। वर्तमान में इसे संशोधित किया जाना जरूरी है। उनका कहना है कि यदि ओबीसी वर्ग के लोगों के साथ इंसाफ करना है तो क्रीमीलेयर की सीमा बढ़ानी होगी। उत्तराखंड के लगभग 21 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां इस बिरादरी की सियासत चलती है। ओबीसी समुदाय को आरक्षण का लाभ केंद्र अब राज्यों को देने जा रहा है। इससे भविष्य में राज्य सरकार पर अन्य जातियां भी ओबीसी में शामिल कराने के लिए दबाव बना सकती हैं। भाजपा, कांग्रेस, बसपा, उक्रांद, आप समेत अन्य सभी राजनीतिक दल ओबीसी समुदाय को 14 से बढ़ाकर 27 फीसदी आरक्षण की पैरवी पर अभी से उतर आए हैं। ऐसे में आने वाले विधानसभा चुनावों में ओबीसी आरक्षण भी एक नया मुद्दा बनने जा रहा है। क्या विधेयक के कानून बन जाने के बाद आरक्षण का दायरा बढ़ जाएगा और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय की गई 50% की सीमा खत्म हो जाएगी? इसके जवाब में हमें यह समझना होगा कि संविधान संशोधन से किसी राज्य को ओबीसी लिस्ट में जातियों के नाम जोड़ने-घटाने का अधिकार मिलेगा। किसी राज्य की मौजूदा ओबीसी लिस्ट में भले ही 10 या 50 और जातियों के नाम जुड़ जाएं, लेकिन उनके आरक्षण का दायरा 27% ही रहेगा। स्पष्ट है कि किसी राज्य को यह अधिकार नहीं मिलने वाला कि वो ओबीसी लिस्ट को बढ़ाकर आरक्षण की सीमा भी बढ़ा दें। केंद्र के अलावा अभी यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, असम, त्रिपुरा समेत कई अन्य राज्यों की सत्ता में है। ये सरकारें नया कानून आते ही इन राज्यों की ओबीसी लिस्ट में उन जातियों को शामिल कर पाएगी जो उन्हें चुनावी फायदा पहुंचा सकती हैं। यूपी का ही उदाहरण ले लीजिए। इस चुनावी राज्य में 39 जातियों को ओबीसी लिस्ट में शामिल किए जाने की चर्चा है। पर्वतीय लोगों की पहचान को संरक्षित करने, रोजगार, शिक्षा व स्वास्थ्य और विकास का मॉडल यहां के भौगोलिक परिवेश की तर्ज पर ढालना ही पर्वतीय राज्य के आंदोलन और राज्य बनाने के मकसद की मूल अवधारणा थी. लेकिन सालों में इस राज्य की सरकारों ने इन लक्ष्यों को पाने के लिए कैसे काम किया, पलायन आयोग की रिपोर्ट उसी नाकामी का दस्तावेज है. उत्तराखंड के 13 ज़िलों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत रिजर्वेशन लागू हो गया है। ओबीसी में राज्य की 78 जातियां शामिल हैं। आश्चर्यजनक है कि ये 78 जातियां मात्र 3 जिलों हरिद्वार, उधम सिंह नगर, देहरादून या कुछ तराई क्षेत्रों में ही निवास करती हैं।शेष 10 हिमालयी जिलों में, यानि अल्मोड़ा, चमोली, रूद्रप्रयाग, टेहरी, नैनीताल, पौढ़ी, उत्तरकाशी, चंपावत, बागेश्वर और पिथौरागढ़ जिलों में ओबीसी जातियां मूल रूप से नहीं पाई जाती हैं। यानि कि 3 जिलों के 27 प्रतिशत निवासी शेष 10 जिलो की 27 प्रतिशत सीटों पर काबिज रहेंगी। चूंकि ये 78 घोषित/नोटीफाइड जातियां मात्र 3 जिलों में हैं, इसलिए सौ में से ओबीसी के 27 प्रतिशत पद मात्र 3 जिलों के पात्रों को जायेंगे। मूलतः कुमाऊं और गढ़वाल हिमालय में ये जातियां नहीं पाती जाती हैं। इन 10 जिलों में तो नोटीफाइड अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग ही निवास करते हैं। यानि कि इन्हें पूरे 13 जिलों के 23 प्रतिशत रिजर्वेशन से ही संतोष करना पड़ेगा।वर्तमान में उत्तराखंड में कई पदों की विज्ञप्ति लोक सेवा आयोग एवं अन्य विभागों द्वारा विज्ञापित किये गये हैं। हिमालय के दस जिलों के बेरोजगार युवाओं के हक पर इससे चोट पहुंचेगी।