पर्यावरण और जल संरक्षण के प्रति समर्पित उत्तराखंड
पर्यावरण और जल संरक्षण के प्रति समर्पित उत्तराखंड
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
भारत की प्राचीनतम कृषि सभ्यता का उद्भव व विकास सिन्धु-सरस्वती और गंगा-यमुना की नदी-घाटियों में हुआ था. वैदिक काल की भौगोलिक पृष्ठभूमि का यदि अवलोकन करें तो उत्तराखंड हिमालय से ही सरस्वती नदी का उद्गम होता है वर्त्तमान हरियाणा, पंजाब और राजस्थान की अधिकांश तटवर्ती भूमियों को यह नदी उर्वर और उपजाऊ बनाती थी. अथर्ववेद के एक मन्त्र (6.30.1) में उल्लेख आया है कि देवराज इंद्र ने इसी सरस्वती नदी के तट पर सर्वप्रथम कृषि का नियोक्ता बनकर और मरुद्गणों ने काश्तकार बनकर कृषि सभ्यता का आविष्कार किया था. उन्होंने ही सबसे पहले सरस्वती नदी के प्रवाह क्षेत्र में ‘यव’ अर्थात् जौ की खेती की बुवाई की और उसके बाद धान की खेती का भी आविष्कार किया. भारत वैदिक काल से ही कृषिप्रधान देश रहा है.कृषि की आवश्यकताओं को देखते हुए ही यहां वृष्टिविज्ञान, मेघविज्ञान और मौसमविज्ञान की मान्यताओं का भी वैज्ञानिक धरातल पर समानान्तर रूप से विकास हुआ. सिंधुघाटी की सभ्यता, जो अब वैदिक आर्यों की सारस्वत सभ्यता के रूप पहचानी जाती है,विश्व की सबसे प्राचीन कृषि सभ्यता थी. इसी सिंधु सभ्यता के किसान गर्मियों और जाड़ों के मानसूनी वर्षा पर निर्भर हो कर साल में दो बार खरीफ और रबी की फसल उगाते थे. पर ध्यान देने की बात यह है कि हजारों सालों के बाद आज भी भारत के किसान वैदिक काल और हड़प्पा काल की कृषि परम्पराओं का अनुसरण करते हुए ही साल में दो बार खरीफ और रबी की फसल पैदा करते हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि भारत की कृषि व्यवस्था हजारों वर्षों से साल में दो बार आने वाले मानसूनों – ‘दक्षिण पश्चिमी मानसूनों’ और ‘उत्तर पूर्वी’ मानसूनों’ की वर्षा पर निर्भर होकर ही अपने कृषि सम्बन्धी कार्य करती आई है. वैदिक काल की मौसम वैज्ञानिक इकोलॉजी और हिमालय का नदी विज्ञान और वहां के ग्लेशियरों से निकलने वाली जल धाराओं के कारण ही समूचा उत्तराखंड क्षेत्र उर्वर और उपजाऊ बना हुआ था, जिसका मुख्य कारण था वैदिक जलवैज्ञानिकों का वृष्टिजल का कृषिपरक सदुपयोग और सिंचाई के साधनों का समुचित जलप्रबंधन. यही कारण है कि वहां धान और जौ का प्रभूत मात्रा में उत्पादन इसलिए भी सम्भव हो सका कि सालाना मानसूनों की वर्षा के साथ साथ वहां के आर्य किसानों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले कृत्रिम सिंचाई के साधन और ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ सिस्टम भी उच्च कोटि का रहा था.वैदिककाल में वर्षा के अभाव में किसान कृत्रिम सिंचाई के साधनों के रूप में कूप ,नहर, तालाब और जलाशयों के जल का भी उपयोग करते थे. ऋग्वेद में ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ की विधियों से खेतों की सिंचाई करने के अनेक उल्लेख मिलते हैं, वैदिक कालीन कृषि व्यवस्था के धरातल पर प्राचीन भारतीय जलप्रबंधन से जुड़ी मान्यताएं और सिद्धान्त वर्त्तमान काल में भी अव्यवहारिक नहीं बल्कि पहले से भी ज्यादा प्रासंगिक और उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं. क्योंकि यहां पारंपरिक खेती आज भी वैदिक कालीन भौगोलिक परिवेश में ही की जाती है. खाद और बीज के मामले में नई कृषि तकनीकें भले ही सामने आई हैं किंतु सिंचाई के स्रोत तो वही पुराने हैं,जो लगातार सूखते जा रहे हैं.इसके अलावा साल में दो बार आने वाला मानसूनों का सम्वत्सर चक्र भी वही है,खरीफ और रबी की फसल भी हजारों साल पहले की तरह आज भी उसी प्रकार बोई और काटी जाती है.अनाज तथा खेती से उगाई जाने वाली धान, गेहूं, अनाज, दलहन, तिलहन की फसलें भी लगभग वही हैं. गंगा,यमुना, सिंधु,सरयू आदि नदियों का जलविज्ञान भी वही है तथा उनसे सिंचाई किए जाने वाले परम्परागत जलस्रोत भी लगभग वही हैं. पर आज केवल बदली है तो जल प्रबंधन के बारे में हमारी राष्ट्रीय उपभोक्तावादी सोच जो अंग्रेजों के जमाने से ज्यों की त्यों चली आ रही है. जल के प्रति एक उपभोक्तावादी सोच रखने के कारण ही हमारी पतित पावनी और पुण्यसलिला नदियां सूखती जा रही हैं और अन्धविकासवादी योजनाओं से भूमिगत जल संकट भी विकट होता जा रहा है. आज जल को एक प्राकृतिक संसाधन मान कर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग करते हुए ट्यूबवैल और हैंडपंप के जरिए भूमिगत जल का जिस निर्ममता से शोषण किया जा रहा है,इस पर्यावरण विरोधी जल दोहन के कारण भी आज हमारी नदियों,जलधाराओं,जलाशयों, कूप-तालाबों और नौलों, खालों का भूमिगत जल लगातार घटने और समाप्त होने के कगार पर है. इसे वर्त्तमान जलप्रबंधन की विफलता ही मानी जानी चाहिए कि आज पेयजल की समस्या तो विकट होती ही जा रही है साथ ही परम्परागत कृषि और उसके सिंचाई के साधनों में भी निरन्तर रूप से कमी आ रही है.प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में जल संरक्षण को लेकर विभिन्न प्रयासों की प्रेरक कहानियां सुनाईं. उन्होंने 40 साल से पर्यावरण और जल संरक्षण के प्रति समर्पित उत्तराखंड की गरुड़ तहसील के सिरकोट निवासी जगदीश कुनियाल की मेहनत और लगन का जिक्र करते हुए कहा कि उनका काम भी बहुत कुछ सिखाता है. जगदीश का गांव और आसपास का क्षेत्र पानी की जरूरतों के लिए एक प्राकृतिक स्रोत्र पर निर्भर था, लेकिन कई साल पहले यह स्रोत सूख गया. इससे पूरे क्षेत्र में पानी का संकट गहराता चला गया. जगदीश ने इस संकट का हल पौधारोपण से करने की ठानी57 वर्षीय कुनियाल ने 18 साल की उम्र में गांव की बंजर जमीन में पौधारोपण का कार्य शुरू किया. उन्होंने अपनी 250 नाली पैतृक जमीन में कई प्रजातियों के पौधे रोपे हैं. वह अब तक 25 हजार से अधिक पौधे रोप चुके हैं. 20 साल पहले उन्होंने जमीन में चाय बागान भी बनाया. आज उनकी चालीस साल की मेहनत के चलते क्षेत्र का सूख चुका जलस्रोत फिर से सदानीरा बन गया है. वर्तमान में इस जलस्रोत से क्षेत्र के 400 ग्रामीणों को शुद्ध पेजयल मिल रहा है. गांव की 500 नाली से अधिक खेती को भी सिंचाई के लिए पानी मिल रहा है. कुनियाल के बसाए जंगल से क्षेत्र में सूख रहे प्राकृतिक जल स्रोतों को नया जीवन मिल रहा है. गांव के करीब आधा दर्जन छोटे-बड़े जलस्रोतों का पानी लगातार कम होता जा रहा था. पौधे बढ़ते गए तो स्रोतों में पानी की मात्रा भी बढ़ने लगी. वर्तमान में गांव के सभी जल स्रोतों में भरपूर पानी है, जिसका उपयोग लोग पीने के अलावा खेती के काम में भी कर रहे हैं. कुनियाल ने बताया कि बंजर जमीन को उपजाऊ बनाना आसान नहीं था. दिन-रात कड़ी मेहनत करनी पड़ी. उनके बसाए जंगल को कई बार नष्ट करने की भी कोशिश की गई. वह पौधे लगाते और कुछ अराजक तत्व उन्हें नष्ट कर देते. जंगली जानवरों का खतरा अलग से था. इसे देखते हुए उन्होंने 20 साल पहले निजी खर्च पर दो स्थानीय युवाओं को जंगल की सुरक्षा के लिए रोजगार पर रखा. युवाओं को रोजगार देने के बाद उनकी आय के संसाधन जुटाने के लिए चाय की खेती भी करनी शुरू की. चाय का उत्पादन शुरू होने के बाद से दोनों कर्मचारियों को भी अच्छी आय हो रही है. विषम परिस्थितियों में किए कार्यों के कारण ही आज वह एक हरे-भरे जंगल के जनक हैं. जगदीश के साथ 1990 से जुड़े अमस्यारी के पर्यावरण प्रेमी बसंत बल्लभ जोशी बताते हैं कि कुनियाल जमीन से जुड़कर कार्य करने पर विश्वास रखते हैं. उनके इसी जुनून और जज्बे ने क्षेत्र के कई प्राकृतिक स्रोतों को नया जीवन दिया है. उनकी मेहनत के कारण चीड़ से भरे जंगलों के बीच बांस, बुरांश, देवदार, उतीस जैसे पौधों की पैदावार हो रही है. उन्होंने अपने जंगल में उच्च हिमालयी क्षेत्र में पाए जाने वाला अंगु का पौधा भी लगाया है.पर्यावरण संरक्षण के अलावा पौधों को उन्होंने अपनी आय का साधन भी बनाया है. उन्होंने अपनी 800 नाली जमीन पर चाय का बागान तैयार किया है. जिसके जरिए उनकी आजीविका चलती है. वहीं बाकी बची हुई जमीन पर वह साग-सब्जी सहित अन्य जड़ी-बूटी वाले पौधे उगा रहे हैबसंत बल्लभ जोशी ने कहा कि प्रकृति की रक्षा के लिए सराहनीय कार्य किया है. जिसको देखकर क्षेत्र के लोग भी प्रेरित हो रहे हैं. प्रधानमंत्री की ओर से जगदीश का जिक्र किए जाने पर परिवार गौरवान्वित महसूस कर रहा है.
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.