हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन के आकलन
हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन के आकलन
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
ब्लैक कार्बन ने हिमालय को तेजी से अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। 1.17 लाख वर्ग किमी दायरे वाले मध्य हिमालय क्षेत्र में इसकी मात्र दो से तीन गुना तक बढ़ गई है, जबकि पर्यावरण की गर्माहट में करीब 24 फीसद तक बढ़ोतरी हो गई है। मध्य हिमालयी क्षेत्र के अंतर्गत नेपाल से लेकर भूटान के बीच भारत का उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर शामिल है। ब्लैक कार्बन को ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में कार्बन डाइऑक्साइड के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषक तत्व माना जाता है।ब्लैक कार्बन की मात्र बढ़ने से मध्य हिमालय का क्षेत्र गर्म हो गया है। जो गर्माहट पहले 31.7 वॉट प्रति वर्ग मीटर थी, अब बढ़कर 39.5 वॉट प्रति वर्ग मीटर हो गई है। यानी सूर्य की किरणों की ऊष्मा के आधार पर मापी गई 7.8 वॉट प्रति वर्ग मीटर की यह बढ़ोतरी करीब 24 फीसद हो चुकी है। इसीलिए ग्लेशियरों के पिघलने की आशंका पूर्व के मुकाबले अधिक बढ़ गई है। यही वजह है कि जो ग्लेशियर 50 साल पूर्व 2,077 किलोमीटर दायरे के थे वह धीरे-धीरे घटकर अब 1,590 किलोमीटर के रह गए हैं। एक नये अध्ययन में भारतीय शोधकर्ताओं ने एक ऐसी पद्धति विकसित की है, जो हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन के सटीक आकलन और मौसम तथा जलवायु संबंधी पूर्वानुमानों के सुधार में मददगार हो सकती है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन का सटीक आकलन ऑप्टिकल उपकरणों के उपयोग से संभव हो सकता है। यह पद्धति हिमालयी क्षेत्र के लिए मास एब्जॉर्प्शन क्रॉस-सेक्शन (एमएसी) नामक विशिष्ट मानदंड पर आधारित है। शोधकर्ताओं ने एमएसी, जो कि एक आवश्यक मानदंड है, और जिसका उपयोग ब्लैक कार्बन के द्रव्यमान सांद्रता को मापने के लिए किया जाता है,। माना जा रहा है कि यह कम मान इस अपेक्षाकृत स्वच्छ स्थान पर प्रसंस्कृत (ताजा नहीं) वायु प्रदूषण उत्सर्जन की आवाजाही का परिणाम हो सकता है। अध्ययन में यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि अनुमानित एमएसी मान मौसमी आधार पर बदल सकता है। ये बदलाव बायोमास जलने के मौसमी बदलाव, वायु द्रव्यमानमें भिन्नता और मौसम संबंधी मापदंडों के कारण होते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार एमएसी की गणना में उपयोग किए गए हाई-रिजोल्यूशन बहु-तरंगदैर्ध्य और दीर्घकालिक अवलोकन ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के कारण गर्मी बढ़ाने वाले प्रभावों के आकलन में संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान और जलवायु मॉडल्स के अनुमानों के प्रदर्शन में सुधार में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। विभिन्न तरंगदैर्ध्य पर ब्लैक कार्बन को लेकर स्पष्ट जानकारी ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के स्रोतों पर नियंत्रण लगाने से जुड़े अध्ययनों में भी उपयोगी हो सकती है। इसके साथ ही, इससे उपयुक्त नीतियां बनाने में भी मदद मिल सकती है। हिमालय के ग्लेशियरों की सेहत लाख जतन के बाद भी नहीं सुधर रही। शहरी क्षेत्रों का प्रदूषण तो इसके लिए जिम्मेदार है ही, मानसूनी हवाएं भी हिमालय पर विपरीत असर डाल रही हैं। निचले इलाकों में कोरोना कर्फ्यू के कारण पर्यावरण में कुछ सुधार आया है लेकिन यह तात्कालिक है। हिमालय की सेहत को महफूज रखने के लिए दूरगामी उपाय करने होंगे। शहरी क्षेत्रों का प्रदूषण ब्लैक कार्बन के रुप में हिमालय के ग्लेशियरों तक पहुंच चुका है। हिमालय में ब्लैक कार्बन की मौजूदगी ग्लेशियरों के लिए खतरनाक है। साथ ही यह दुर्लभ वनस्पतियों पर भी दुष्प्रभाव डाल रहा है। ब्लैक कार्बन की मौजदूगी धीरे धीरे वहां के इको सिस्टम को दोहरे रुप में प्रभावित कर रहा है। वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि न सिर्फ पश्चिमी विक्षोभ बल्कि दक्षिण पश्चिमी मानसूनी हवाओं के साथ ब्लैक कार्बन हिमालय की चोटियों तक पहुंच रहा है। वातावातरण में मौजूद ब्लैक कार्बन सूर्य की ऊष्मा अवशोषित कर ग्लेशियरों की बर्फ को स्पंजी बनाकर पिघला देता है। शहरों में ब्लैक कार्बन तमाम तरह की बीमारियां पैदा करता है।लेकिन जब यही ब्लैक कार्बन उच्च हिमालय में जाता है तो वहां की पारिस्थितिकी को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। हिमालय में मौजूद ब्लैक कार्बन सोलर रेडिएशन को अवशोषित कर इलेक्ट्रो मैगनेटिक के रुप में रीलिज करता है। यह दिखता नहीं है, लेकिन हिमालय की सेहत के लिए बेहद मारक है। ब्लैक कार्बन के कण दिन में सूर्य की रोशनी से उष्मा लेकर रात के समय रीलिज करते हैं। इसकी वजह से जहां रात में तापमान ठंडा रहना चाहिए, ब्लैक कार्बन की वजह से हिमालय की बर्फ रात में भी पिघलती रहती है। विश्वभर के वैज्ञानिक उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन की मौजूदगी को चिंतित हैं और इसे लेकर शोध में जुटे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, ब्लैक कार्बन कणों की आयु करीब दो सप्ताह होती है। उसके बाद यह पानी के साथ बहकर जमीन में आ जाता है। लेकिन इनकी मात्रा इतनी अधिक हो गई है कि यह लगातार पर्यावरण को खतरनाक तरीके से प्रभावित कर रही है। गर्मियों में ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है। भारत में ब्लैक कार्बन का उत्सर्जन मापने की कुल 22 सक्रिय ऑब्जरवेट्री हैं। इनमें वाडिया द्वारा हिमालय में लगाई गई एकमात्र ऑब्जरवेट्री तीन साल पहले गंगोत्री के चीड़बासा में 3600 मीटर और भोजवासा में 3800 मीटर पर स्थापित की गई थी। इसमें सबसे ज्यादा ऊंचाई 5079 मीटर नेपाल में स्थापित है। जबकि तिब्बत में दो केंद्र स्थापित हैं, जो 4600 मीटर की ऊंचाई में स्थित है। सबसे नीचे हिमालय की तलहटी देहरादून में 700 मीटर की ऊंचाई में स्थापित किया गया है। इन सभी केंद्रों में सबसे ज्यादा वायू प्रदूषण उत्तरकाशी जिले में स्थित चीरभासा में मॉनिटर किया गया है। जो कि उत्तरी भारत की ओर से आया है। वैज्ञानिकों को मिले डाटा के अनुसार गंगोत्री में 0.1 से लेकर 4.62 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर तक ब्लैक कार्बन पाया गया। ये विश्व का दूसरे नंबर का मानवजनित प्रदूषक तत्व है जो क्लाइमेंट चेंज के लिए उत्तरदायी है। वाहनों के प्रदूषण के अलावा जंगलों में लगने वाली आग से बड़ी मात्रा में ब्लैक कार्बन पैदा हो रहा है। ये प्रदूषण सिर्फ उत्तराखंड या भारत का ही नहीं है बल्कि इसमें विश्व के अन्य देशों का भी हिस्सा है जो पश्चिमी विछोभ व दक्षिणी पश्चिमी मानसून के जरिए सीधा हिमालय पहुंच रहा है। ब्लैक कार्बन की मौजूदगी मानसून और सर्दियों में भी पाई गई। शोधके अनुसार एमएसी की गणना में उपयोग किए गए हाई-रिजोल्यूशन बहु-तरंगदैर्ध्य और दीर्घकालिक अवलोकन ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के कारण गर्मी बढ़ाने वाले प्रभावों के आकलन में संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान और जलवायु मॉडल्स के अनुमानों के प्रदर्शन में सुधार में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। विभिन्न तरंगदैर्ध्य पर ब्लैक कार्बन को लेकर स्पष्ट जानकारी ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के स्रोतों पर नियंत्रण लगाने से जुड़े अध्ययनों में भी उपयोगी हो सकती है। इसके साथ ही, इससे उपयुक्त नीतियां बनाने में भी मदद मिल सकती है।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.