जैव-विविधता मानव जीवन के लिए आवश्यक, कोरोना महामारी से भी ने नहीं लिया सबक
जैव-विविधता मानव जीवन के लिए आवश्यक, कोरोना महामारी से भी ने नहीं लिया सबक
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
हाल में ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, वर्ल्ड इकनोमिक फोरम और इकोनॉमिक्स ऑफ लैंड डीग्रेडेशन इनिशिएटिव द्वारा संयुक्त तौर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार यदि दुनिया अपने सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.13 प्रतिशत प्रतिवर्ष पर्यावरण-अनुकूल खेती, वन संरक्षण, प्रजातियों के संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण पर ईमानदारी से खर्च करे तो निश्चित तौर पर पर्यावरण से संबंधित अधिकतर समस्याओं का समाधान साल 2050 तक किया जा सकता है।यह राशि भले ही छोटी दिखाई देपर तथ्य यह है कि इस समय दुनिया में इसका एक-चौथाई ही खर्च किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार दुनिया की जैव-विविधता बचाने के लिए वर्ष 2050 तक लगभग 8 खरब डॉलर इस काम के लिए खर्च करने की जरुरत होगी। इसमें से एक बड़ा हिस्सा जीवाश्म इंधनों और पर्यावरण का विनाश करने वाले औद्योगिक खेती पर सरकारों द्वारा दी जाने वाली रियायतों को समाप्त कर प्राप्त किया जा सकता है।स्टेट ऑफ फाइनेंस फॉर नेचर नामक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए दुनिया ने महज 133 अरब डॉलर का खर्च किया, और इसमें भी अधिकतर राशि जलवायु परिवर्तन रोकने के उपायों पर खर्च की गई। समस्या यह है कि पर्यावरण की हरेक समस्या एक-दूसरे से जुड़ी है और इसमें से किसी एक का अलग से समाधान समग्र पर्यावरण पर विशेष प्रभाव नहीं डालता। इसीलिए जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता, प्रदूषण और पर्यावरण का विनाश करने वाली प्रोद्योगिकी- सभी क्षेत्रों में एक साथ काम करने की जरूरत है, इन सभी को राष्ट्रीय कार्ययोजना में शामिल करने की जरूरत है।रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 तक पर्यावरण संरक्षण में निवेश तीन गुना बढ़ाने की आवश्यकता है और वर्ष 2040 से 2050 तक इसे वर्तमान से चार गुना अधिक यानि, 536 अरब डॉलर तक पहुंचाने की जरूरत है। इसके लिए वर्ष 2050 तक अतिरिक्त 4 खरब डॉलर प्रतिवर्ष की आवश्यकता होगी, जिसे देशों द्वारा सतत विकास का रास्ता अपनाकर और पर्यावरण विनाश वाली गतिविधियों में सरकारी रियायत को बंद कर आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।इस काम के लिए निजी क्षेत्र को भी अपना निवेश तेजी से बढ़ाने की जरूरत है। वर्तमान में पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए दुनिया में जितना निवेश किया जा रहा है, उसमें से महज 14 प्रतिशत निवेश निजी क्षेत्रों से आ रहा है। दूसरी तरफ ग्रीनहाउस गैसों का वायुमंडल में उत्सर्जन रोकने के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का निवेश 56 प्रतिशत से भी अधिक है। निजी क्षेत्र को अपने निवेश को पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने में भी तेजी से बढ़ाना होगा।पहले अनुमान किया गया था कि कोविड-19 के दौर में जब अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर आएगी, तब सरकारें पर्यावरण अनुकूल विकास पर ध्यान देंगी, पर सरकारों ने यह मौका गवां दिया है। कोविड-19 के पहले दौर के बाद दुनिया भर के देशों में जितनी भी राहत पैकेज की घोषणा की गई है, उसमें से महज 2.5 प्रतिशत पर्यावरण संरक्षण के लिए है।दुनियाभर में पारिस्थितिकी तंत्र का लगातार विनाश इस दौर की सबसे गंभीर समस्या है, पर इस पर अब तक अधिक ध्यान नहीं दिया गया था। जब भी वैश्विक स्तर पर पर्यावरण की बात की जाती है, तब चर्चा जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि से शुरू होकर इसी पर खत्म हो जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार जैव-विविधता का विनाश भी लगभग उतनी ही गंभीर समस्या है और पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिए जल्दी ही गंभीरता से जैव-विविधता बचाने की पहल करनी पड़ेगी। वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र ने जापान के नोगोया में जैव विविधता संरक्षण के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित किया था और इसके बाद पारिस्थितिकी तंत्र सुरक्षित रखने के लिए एक व्यापक समझौता, जिसे ऐची समझौते के नाम से जाना जाता है, पर देशों के बीच सहमति हुई थी।ऐची समझौते के तहत वर्ष 2020 तक के लिए अनेक लक्ष्य निर्धारित किये गए थे। इसमें से एक लक्ष्य को छोड़कर किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है। जिस लक्ष्य को हासिल किया जा सका है, उसे लक्ष्य-11 के नाम से जाना जाता है और इसके अनुसार वर्ष 2020 तक दुनिया में भूमि और नदियों के कुल पारिस्थितिकी तंत्र का 17 प्रतिशत और महासागरों के 10 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र को आधिकारिक तौर पर संरक्षित करना था। हाल में ही प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार भूमि और नदियों के संरक्षण का लक्ष्य तो हासिल कर लिया गया है, पर महासागरों का 8 प्रतिशत क्षेत्र ही संरक्षित किया जा सका है।हमारे देश ने इस समझौते को स्वीकार किया है और हमारे प्रधानमंत्री लगातार देश में पर्यावरण संरक्षण की पांच हजार वर्षों से चली आ रही परंपरा का जिक्र अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में करते रहे हैं। हमारे देश में कुल 679 संरक्षित क्षेत्र हैं, जिनका सम्मिलित क्षेत्र 162365 वर्ग किलोमीटर है और या देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 5 प्रतिशत है। इसमें 102 राष्ट्रीय उद्यान और 517 वन्यजीव अभयारण्य हैं। देश में 39 बाघ रिज़र्व और 28 हाथी रिजर्व हैं।संरक्षित क्षेत्रों में 6 ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र के युनेस्को ने संरक्षित धरोहर के तौर पर अधिसूचित किया है। ये संरक्षित धरोहर हैं– काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, मानस राष्ट्रीय उद्यान, केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान, नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान और फूलों की घाटी, सुंदरबन और पश्चिमी घाट। इन संरक्षित स्थानों के अतिरिक्त सरकार ने संरक्षित करने के लिए सागर और महासागर क्षेत्र में 106 स्थलों की पहचान की है।इस रिपोर्ट के सार्वजनिक किये जाने के दिन ही नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार अमीर देशों के उपभोक्तावादी रवैये के कारण बड़े पैमाने पर वर्षा वन और उष्णकटिबंधीय देशों के जंगल काटे जा रहे हैं। दुनिया के धनी देशों का एक समूह जी-7 है। अनुमान है कि जी-7 के सदस्य देशों में चौकलेट, कॉफी, मांस, पाम आयल जैसे उत्पादों का इस कदर उपभोग किया जाता है कि इन देशों के प्रति नागरिकों के लिए हरेक वर्ष 4 पेड़ काटने पड़ते हैं। अमेरिकी नागरिकों के लिए यह औसत 5 पेड़ प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है।अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार वर्ष 1960 के बाद से पनपी नई बीमारियों और रोगों में से तीन-चौथाई से अधिक का संबंध जानवरों, पक्षियों या पशुओं से है और यह सब प्राकृतिक क्षेत्रों के विनाश के कारण हो रहा है। दरअसल दुनिया भर में प्राकृतिक संसाधनों का विनाश किया जा रहा है और जंगली पशुओं और पक्षियों की तस्करी बढ़ रही है और अब इन्हें पकड़कर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में खरीद-फरोख्त में तेजी आ गई है।प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने पर या फिर ऐसे क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का जाल बिछाने पर जंगली जानवरों का आवास सिमटता जा रहा है और ये मनुष्यों के संपर्क में तेजी से आ रहे हैं, या फिर मनुष्यों से इनकी दूरी कम होती जा रही है। घने जंगलों में तमाम तरह के अज्ञात बैक्टीरिया और वायरस पनपते हैं और जब जंगल नष्ट होते हैं तब ये वायरस मनुष्यों में पनपने लगते हैं। इनमें से अधिकतर का असर हमें नहीं मालूम पर जब सार्स, मर्स या फिर कोरोना जैसे वायरस दुनिया भर में तबाही मचाते हैं, तब ऐसे वायरसों का असर समझ में आता है।ऐसी महामारी को भविष्य में पनपने से रोकने के लिए दीर्घकालीन रणनीति में जैव-विविधता, वनों और पर्यावरण को बचाने के उपाय शामिल करने होंगें। वन्यजीवों से मनुष्यों तक वायरस के पहुंचने का रास्ता कभी इतना आसान नहीं रहा है जितना आज है। प्राकृतिक जगहों को हम इतने बड़े पैमाने पर नष्ट कर रहे हैं कि अब जंगली जानवरों और मनुष्य की दूरी खत्म हो चली है। इंगेर एंडरसन के अनुसार प्रकृति हमें जंगलों की आग, तापमान का बढ़ता दायरा और टिड्डियों के अभूतपूर्व हमले और अब कोविड-19 के माध्यम से सन्देश दे रही है, पर हम इस सन्देश को सुनने को तैयार ही नहीं हैं। हमें भविष्य में प्रकृति को सुरक्षित कर के ही आगे बढ़ना पड़ेगा, तभी हम सुरक्षित रह सकते हैं। उत्तराखंड का इतिहास पर्यावरण संरक्षण का रहा है और पेड़ों को काटने का जब-जब जिक्र आता है तब-तब चिपको आंदोलन का नाम सबसे पहले लिया जाता है लेकिन उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से कोई बहुत बड़ा आंदोलन पर्यावरण संरक्षण को लेकर नहीं हुआ है. हवाईअड्डे के विस्तार के लिए काटे जाने वाले थानो के जंगलों को बचाने के लिए जरूर एक आंदोलन हमने देखा लेकिन वह देशव्यापी तो छोड़िये राज्यव्यापी भी नहीं बन सका. इसी बीच आल वेदर रोड के दौरान काटे जाने वाले पेड़ों को लेकर हमें सरकारों को घेरना चाहिये था लेकिन हम मूकदर्शक बनकर सिर्फ विकास के ढोल की थाप पर नाचते रहे. हाल ही में अपना जीवन पर्यावरण के नाम कर देने वाले सुंदरलाल बहुगुणा जी के देहावसान पर हमने उनके पर्यावरण संरक्षण में योगदान और समर्पण को लेकर तमाम बातें की और आज भी पर्यावरण दिवस पर हम पेड़ लगाने से लेकर पर्यावरण बचाने तक की सैकड़ों अपीलें सोशल मीडिया में पोस्ट कर देंगे लेकिन उत्तराखंड जैसे अतिसंवेदनशील राज्य में हो रहे पर्यावरणीय विनाश के खिलाफ हम कब उठ खड़े होंगे पता नहीं. उत्तराखंड में ऐसे कई वन क्षेत्र और पंचायतें हैं, जो कि जैव विविधता को लेकर बेहद अनुकूल है. इसी को लेकर उत्तराखंड सरकार इन दिनों राज्य में जैव विविधता वाले क्षेत्रों को विरासत के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयास में जुटी है. इसमें राज्य से कुल 10 क्षेत्रों पर विचार किया जा रहा है, लेकिन पिथौरागढ़ का थलकेदार जैव विविधता को विरासत के रूप में स्थापित किए जाने को लेकर सबसे अपडेट स्थिति में है. टिहरी के देवलसारी क्षेत्र को भी जैव विविधता विरासत के रूप में स्थापित करने के लिए प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है. इसके अलावा दूसरे प्रस्ताव भी हैं, राज्य में ऐसे क्षेत्रों को विरासत के रूप में घोषित करने के लिए फिलहाल विचार किया जा रहा है इस मामले में जैव संसाधनों का व्यवसायिक उपयोग करने वाली कंपनियों से भी लाभांश की राशि लेकर जय विविधता समितियों को वितरित किए जाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है. बता दें, राज्य में करीब 1236 कंपनियां हैं, जिनसे लाभांश लिया जाएगा. इस लाभांश को करीब 3 फीसदी तक लिए जाने की बात कही जा रही है. कुछ क्षेत्रों को विरासत के रूप में घोषित किए जाने की संभावना में. फिलहाल विचार किया जा रहा है
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.