विधिपूर्वक कब और कैसे बोया जाएगा हरेला आइए जानते हैं ?
देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग में हरेला एक महत्वपूर्ण त्योहार है। वैसे हरेला कुछ लोग वर्ष में तीन बार मनाते हैं परंतु मुख्य रूप से सावन मास के पहले दिन अर्थात एक गते श्रावण को मनाया जाता है।
अनेकों पाठकों का प्रश्न होता है कि हरेला कब बोया जाएगा आज इसी संदर्भ में हरेला कब और किस विधि से बोया जाए? आइए जानते हैं। इस वर्ष हरेला दिनांक 17 जुलाई को मनाया जाएगा अतः जो लोग दसवे दिन हरेला काटते हैं वह दिनांक 8 जुलाई को हरेला बोयेंगे जो लोग 11 वे दिन हरेला काटते हैं वह दिनांक 7 जुलाई को हरेला बोयेंगे कुछ लोग नौवें दिन भी हरेला काटते हैं अतः वे लोग दिनांक 9 जुलाई को हरेला बोयेंगे। देवभूमि उत्तराखंड आदि काल से अपनी परंपराओं और रिवाजों द्वारा प्रकृति प्रेम और प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और प्रकृति की रक्षा की सद्भावना को दर्शाता आया है इसीलिए उत्तराखंड को देवभूमि और प्रकृति प्रदेश भी कहते हैं। प्रकृति को समर्पित उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला त्यौहार या हरेला पर्व प्रत्येक वर्ष कर्क संक्रांति को श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष 2023 में हरेला त्यौहार 17 जुलाई को मनाया जाएगा। देवभूमि के कुमाऊं संभाग में विशेष रूप से मनाया जाने वाला यह त्यौहार प्रकृति प्रेम के साथ साथ कृषि विज्ञान को भी समर्पित है। 10 दिन की प्रक्रिया में मिश्रित अनाज को घर के देवस्थान में उगा कर कर्क संक्रांति के दिन हरेला काटकर यह त्यौहार मनाया जाता है। जिस प्रकार मकर संक्रांति से सूर्य देव उत्तरायण हो जाते हैं और दिन बढ़ते रहते हैं वैसे ही कर्क संक्रांति से सूर्य देव दक्षिणायन हो जाते हैं। और कहा जाता है कि इस दिन से दिन रत्ती भर घटने लगते हैं और रातें बड़ी होती जाती है।
कैसे बोया जाता है हरेला।, ,,,,,,
हरेला बोने के लिए घर के समीप शुद्ध स्थान से मिट्टी निकाल कर सुखाई जाती है और उसे छानकर रख लेते हैं। और हरेले में 7 या 5 प्रकार का अनाज का मिश्रण करके बोया जाता है। जैसे धान गेहूं मक्का भट्ट उड़द गहत तिल आदि को मिश्रित करके बो देते हैं इसको हरेला बोना कहते हैं। इन अनाजों को बोने के पीछे संभवतः मूल उद्देश्य यह देखना होगा कि इस वर्ष इन अनाजों के अंकुरण की स्थिति कैसी रहेगी। इसे मंदिर के कोने में सूर्य की किरणों से बचा के रखा जाता है। इनमें 2 या 3 दिन बाद अंकुरण शुरू हो जाता है। सामान्यतः हरेली की देखरेख की जिम्मेदारी घर की मातृशक्ति की होती है। इसकी सिंचाई की जिम्मेदारी कुंवारी कन्याओं की। यदि घर परिवार में जातका सौच या मृतका सौच होने की स्थिति में इसको बोने से लेकर देखभाल तक का कार्यभार घर की कुंवारी कन्याओं पर आ जाता है। घर में कन्याओं के अभाव में कुल पुरोहित को सौंप दिया जाता है। देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग में कहीं-कहीं हरियाली के दौनों का निर्धारण उस परिवार के लोगों के आधार पर तय होता है। पाठकों को एक महत्वपूर्ण जानकारी देना चाहूंगा कि हरेला बोने के लिए मालू या तिमले के पत्तों के दौनौ का प्रयोग करना चाहिए न कि प्लास्टिक के बर्तनों का। मालू या तिमले के पत्तों के बड़े दौने जिन्हें “खोपी” कहते हैं इन्हें बनाना चाहिए पाठकों से विनम्र निवेदन है कि प्लास्टिक के बर्तनों का इस्तेमाल बिल्कुल ना करें क्योंकि दोने ही शुद्ध माने जाते हैं और इससे प्रदूषण भी नहीं होता जहां एक और यह त्यौहार प्रकृति को सम्मान देने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है वहीं दूसरी ओर प्लास्टिक के बर्तनों से पर्यावरण दूषित नहीं करना चाहिए।
हरेला बोते समय ध्यान देने योग्य बातें, ,,,,,,,
मिश्रित अनाज के बीज सडे ना हो हरेले को उजाले में नहीं बोते हरेले को सूर्य की रोशनी से बचाया जाता है। यदि मंदिर में बाहर का उजाला हो रहा हो तो वहां पर्दा लगा देते हैं। प्रतिदिन सिंचाई संतुलित और आराम से की जाती है ताकि फसल सडे ना और दोने में मिट्टी बहे ना।
हरेली की पूर्व संध्या को हरेली की गुड़ाई निराई की जाती है। हरेले के दोनों को रक्षाधागे से बांध दिया जाता है। और गंध अक्षत चढ़ाकर उसका निराजन किया जाता है इसके अतिरिक्त कुमाऊं क्षेत्र में कई स्थानों में कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार हरेले के अवसर पर चिकनी मिट्टी में रुई लगा कर शिव पार्वती गणेश भगवान के डिकरे बनाकर उन्हें हरेले के बीच में रखकर उनके हाथों में दाडिम या किल्मोड़ा की लकड़ी गुड़ाई के निमित्त पकड़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त गणेश और कार्तिकेय जी के डिकरे भी बनाते हैं। इनकी विधिवत पूजा की जाती है। और मौसमी फलों का चढ़ावा भी चढ़ाया जाता है। अब वर्तमान में यह परंपरा बहुत कम हो गई है। हरेले के दिन पंडित जी देवस्थान में हरेले की प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। पकवान बनाए जाते हैं। पहाड़ों में किसी भी शुभ कार्य या त्योहार पर उड़द की पकौड़ी जिसे स्थानीय भाषा में (मास का बड़ा) कहते हैं बनाना जरूरी होता है पूड़ी के साथ बड़ा जरूर बनता है। और प्रकृति की रक्षा के प्रण के साथ पौधे लगाते हैं ।सभी मंदिरों में हरेला चढ़ाया जाता है। साथ साथ में घर में छोटों को बड़े लोग हरेले के आशीष गीत के साथ हरेला लगाते हैं। और गांव में या रिश्तेदारी में नवजात बच्चों को विशेष करके हरेला का त्यौहार भेजा जाता है।
लेखक पंडित प्रकाश जोशी, गेठिया नैनीताल ( उत्तराखंड)