सेहत और स्वाद का खजाना है जखिया
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय देहरादून, उत्तराखंड
जखिया कैपरेशे परिवार की 200 से अधिक किस्मों में से एक है. पहाड़ में जख्या, जखिया के नाम से जाना जाने वाला यह पौधा अंग्रेजी में एशियन स्पाइडर फ्लावर, वाइल्ड डॉग या डॉग मस्टर्ड के नाम से भी जाना जाता है. इसका वानस्पतिक नाम क्लोमा विस्कोसा है. 800 से 1500 मीटर की ऊँचाई में प्राकृतिक रूप से उगने वाला यह जंगली पौधा पीले फूलों और रोयेंदार तने वाला हुआ करता है. एक मीटर तक की ऊँचाई वाले जखिया का पौधा दुनिया के कई देशों में पाया जाता है. तड़के के रूप में लगने वाला यह मसाला पहाड़ी खाने की मुख्य पहचानों में से एक है, जख्या के बीजों के साथ साथ इसके पत्तों का साग भी बनाया जाता है.पहाड़ों में कड़ी, हरी सब्ज़ी,आलू के गुठके,पहाड़ी रायते और गथवाणी तो मानो बिना जख्या के तड़के के अधूरे रहते हैं जख्या का स्वाद एक बार जिसकी जुबान पर लग जाए तो वह इसका दिवाना हो जाता है। 800 से 1500 मीटर की ऊँचाई में प्राकृतिक रूप से उगने वाला यह जंगली पौधा पीले फूलों और रोयेंदार तने वाला होता है। यह एक मीटर ऊँचा, पीले फूल व लम्बी फली वाला जख्या बंजर खेतों में बरसात में उगता है। पहाड़ों में यह जखिया खरपतवार ही नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण फसल भी बन सकता है। अजगन्धा का उल्लेख कैवय देव निघण्टु, धन्वंतरि निघण्टु, राज निघण्टु में में भी मिलता है। जख्या की पत्तियां घाव व अल्सर को ठीक करने में सहायक होती हैं। इसके अलावा बुखार, सरदर्द, कान की बीमारियों की औषधि हेतु भी इसका उपयोग होता है। विभिन शोधों के पता चलता है की इसमें एंटी-हेल्मिंथिक, एनाल्जेसिक, एंटीपीयरेटिक, एंटी-डायरियल, हेपेटोप्रोटेक्टिव और एलिलोपैथिक जैसे कई गुण शामिल हैं. जख्या में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व खान-पान में इसके महत्त्व को और अधिक बड़ा देते हैं. इसके बीज में पाए जाने वाला 18 फीसदी तेल फैटी एसिड तथा अमीनो अम्ल जैसे गुणों से परिपूर्ण होता है. साथ ही इसके बीजों में फाइबर, स्टार्च, कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन, विटामिन ई व सी, कैल्शियम, मैगनीशियम, पोटेशियम, सोडियम, आयरन, मैगनीज और जिंक आदि पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं। पहाड़ की परंपरागत चिकित्सा पद्धति में जखिया का खूब इस्तेमाल किया जाता है। एंटीसेप्टिक, रक्तशोधक, स्वेदकारी, ज्वरनाशक इत्यादि गुणों से युक्त होने के कारण बुखार, खांसी, हैजा, एसिडिटी, गठिया, अल्सर आदि रोगों में जख्या बहुत कारगर माना जाता है। पहाड़ों में किसी को चोट लग जाने पर घाव में इसकी पत्तियों को पीसकर लगाया जाता है जिससे घाव जल्दी भर जाता है। आज भी पहाड़ में मानसिक रोगियों को इसका अर्क पिलाया जाता है। जखिया के बीज में रासायनिक अवयव का स्रोत होने से भी फार्मास्यूटिकल उद्योग में लीवर सम्बन्धी बीमारियों के निवारण के लिये अधिक मांग रहती है। इण्डियन जनरल ऑफ एक्सपरीमेंटल बायोलॉजी के एक शोध पत्र के अध्ययन के अनुसार जख्या के तेल में जैट्रोफा की तरह ही गुणधर्म, विस्कोसिटी, घनत्व होने के वजह से ही भविष्य में बायोफ्यूल उत्पादन के लिये परिकल्पना की जा रही है। खनिज पदार्थ इसे उच्च आर्थिक महत्व की फसल बना सकते हैं। जख्या के पौधे को जैवईंधन का एक कुशल स्रोत माना जा सकता है। पौधे के तेल में सभी गुण होते हैं जो जेट्रोफा और पोंगामिया में होते हैं। जख्या एक व्यावसायिक फसल नहीं है लेकिन वर्तमान में इसके सुखाये गये बीजों की कीमत 250 रूपये से अधिक है। जखिया पहाड़ों की निचली चोटियों पर नैसर्गिक रूप से पैदा होता है. खेतों की मेढ़ों से लेकर, खली पड़े मैदानों, घर-आंगन और बंजर जमीन तक में जखिया आसानी से उग आता है. यह सिंचित जमीन का भी मोहताज नहीं है.बरसात के मौसम में यह किसी खरपतवार की तरह किसी भी जमीन पर पनप जाता है. इसके पौधे में लगने वाली पतली फलियाँ महकदार बीजों को अपनी पनाह में रखे रहती हैं. इन फलियों में से नन्हे-नन्हे बीज निकलकर सुखा लिए जाते है. अब मसाले के रूप में यह आपकी रसोई को लम्बे समय तक महकाने के लिए तैयार हो जाता है. हालांकि यह बरसात के दिनों में बहुत सी जगह एक खरपतवार के रूप में उगता है पर अगर इसे एक व्यवसायिक फसल के रूप में उगाया जाए तो कुछ हद तक पलायन रोकने में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है साथ इसकी माँग बाज़ारों में सदैव रहती है. प्रागैतिहासिक काल में हमारे पुरखे वनवासी थे और आखेट करने या खोजबीन के दौरान जो कुछ भी मिलता, उसी को अपना आहार बनाते थे। इसी लिए इतिहासकारों ने उन्हें शिकारी-संग्रहकर्ता नाम दिया है। इस दौर में खाने की सभी चीजें जंगल से प्राप्त होती थीं। इसी तरह जानवरों तथा वनस्पतियों को ‘पालतू’ बनाने का कौशल लाखों वर्ष में अर्जित किया जा सका। आज यदि कोई खाने का पदार्थ जंगली कहलाता है तो सुनने वालों को अटपटा लगता है। जबकि हकीकत यह है कि मसालों की दुनिया में कुछ जडी-बूटियां इसी श्रेणी में रखी जा सकती हैं और दुर्लभ होने के कारण बहुमूल्य बन चुकी हैं। उत्तराखंड के तिब्बत-नेपाल की ऊंचाई पर स्थित गांवों में लोकप्रिय जंबू तथा गंदरैणी, जखिया और दुन इसी के उदाहरण है। विदेश में कई रेस्टोरेंट ने जखिया राइस को अपने इंडियन कुजिन सेक्शन में प्रमुखता से दर्ज किया हुआ है. जखिया की लोकप्रियता तो बढ़ रही है, पर पहाड़ों से निरंतर पलायन के कारण इसका संग्रहण करने वालों की तादाद लगातार घटती जा रही है. पहले पहाड़ों में बड़ी संख्या में लोग कृषि कर्म करते थे तो सीजन पर वे जखिया भी इकट्ठा कर लेते थे, लेकिन अब खेती करने वाले ही बेहद कम बचे तो जखिया भी कहां से मिले. यही कारण है कि उन शहरों में जहां पहाड़ियों की बसागत ठीकठाक संख्या में है, वहां ये काफी महंगे दामों पर बिक रहा है. यह पहाड़ और पहाड़ के बाशिंदों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार है. चूंकि राजस्थान, गुजरात की जलवायु में उगने वाला जीरा यातायात के साधनों के अभाव में आज से आधी सदी पहले तक पहाड़ के खानपान का हिस्सा नहीं रहा होगा तो पहाड़ के व्यंजनों को लजीज बनाने का काम जखिया ही करता रहा होगा. जीरे से भी बढ़कर इसमें एक और विशेषता है. शीघ्र ही स्थानीय फसलों के बीज उत्पादन की ठोस कवायद नहीं हुई तो विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका बढ़ गयी है।
उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।