प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया पत्थरों का उपासक प्रकृति का पुजारी

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अपनी आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ में एक विज्ञानी, शिक्षक, प्रशिक्षक, प्रशासक, यायावर, लेखक, दार्शनिक, चिंतक, किस्सागोई, सामाजिक कार्यकर्ता और ठेठ उत्तराखंडी पहाड़ी किरदार के रूप में परिपूर्णता की ठसक लिए उपस्थित हैं। इसमें रोचकता यह है कि ये किरदार एक दूसरे पर हावी न होते हुए अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘एकला चलो रे’ रीति-नीति पर हर क्षण अनवरत चरैवेति-चरैवेति में मग्न हैं। शोध और शिक्षण के आजीवन साधक प्रो. वल्दिया की आत्मकथा का खूबसूरत पक्ष यह भी है कि उन्होने अपने सम-सामयिक सामाजिक यर्थाथ को बिना लाग-लपेट के उद्घाटित कर दिया है। उन्होने अपनी जीवनीय सफलताओं को श्रेष्ठ-जनों से मिली नेकी और असफलताओं को जीवन की नियति माना है। डॉक्टर खड्क सिंह वल्दिया जी का जन्म बर्मा (वर्तमान मयंम्यार) देश के कलौ नामक कस्बे में 20 मार्च सन 1937 को हुआ था. खड्ग सिंह वल्दिया जी के पिता का नाम देव सिंह वल्दिया, माँ का नाम नंदा देवी तथा बुबू का नाम लक्ष्यमण सिंह वल्दिया था. लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी का परिवार सोर (पिथौरागढ़) से बर्मा देश के कलौ कस्बे में जाकर अपना जीवन खुशहाली से कर रहा था. उनका पविार वहाँ जाकर का धन संपन्न परिवार हो गया था. लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी जीवन-यापन के लिए सन् 1911 में अपने परिवार को सोर में छोड़कर बर्मा चले गए थे.आरंभ में लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी ने अपना छोटा सा व्यवसाय आरंभ किया. व्यवसाय को आगे बड़ाने के लिए ईमानदारी के साथ-साथ रात-दिन परिश्रम किया, परिणाम के फलस्वरुप कलौ में वह एक अच्छे व्यवसायी स्थापित हो गए थे. लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी का धन संपन्न होने के पश्चात् एक दिन अपने परिवार को सोर (पिथौरागढ़) से बर्मा के कलौ कस्बे में ले गए थे. लगभग 36 वर्ष तक लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी बर्मा के कलौ कस्बे में अपने परिवार के साथ रहे.इन 36 वषों में लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी के दो पोतों खड्ग और गुडी का जन्म भी कलौ में हुआ. वह कलौ में अच्छी धन-संपदा के स्वामी थे, उनका परिवार अच्छी तरह फल-फूल रहा था. जब जापान ने बर्मा में आक्रमण किया तो उनकी धन-संपदा खाक हो गई थी. लेकिन उन्होंने हार नही मानी, वह संघर्षरत रहे. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के बनते ही वह फिर से धनवान हो गए. जब अंग्रजों ने बर्मा में आक्रमण किया तो उन्होंने जो भी संम्पत्ति एकत्र की हुई थी वह सब खाक हो गई थी. लेकिन वह एक जीवट व्यक्ति थे. हार कर जीतना वह जानते थे. उन्होंने अपनी योग्यता के बलबूते फिर से धन-संपत्ति प्राप्त कर ली थी.लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी घन-दौलत से अधिक शिक्षा को महत्व देते थे. उनका परिवार बर्मा में अच्छी तरह गुजर-बसर कर रहा था. लेकिन वे अपने देश से दूर रहते हुए भी, अपने देश के रीति-रिवाजों, अपनी संस्कृति तथा शिक्षा को अपने दिल में संजोए हुए थे. लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी अपनी भावी पिढ़ी को अपने देश में शिक्षित कराना चाहते थे. अतः एक दिन लक्ष्यमण सिंह वल्दिया जी अपने धन वैभव को बर्मा के कलौ कस्बे में त्याग के, अपने परिवार सहित सोर (पिथौरागढ़) आ गए.डॉक्टर खड्ग सिंह वल्दिया जी की शिक्षण यात्रा सोर घाटी के प्रथमिक विद्यालय से आरंभ होकर लखनऊँ विश्वविद्यालय में पी.एच.डी. पूर्ण करने तक चलते रही. वहीं लखनऊँ में वह शिक्षक के रुप में नियुक्त हुए. वहाँ से कुछ समय पश्चात् वाडिया संस्थान में रहे, तत्पश्चात् वहाँ से कुमाउ विश्व विद्यालय में, फिर वहाँ से जवाहर लाल नेहरु सेंटर बंगलौर तक, उनके में उच्च कोटी स्तर का अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक बनने तक का, उनकी जीवन यात्रा चलती रही. 1981 में वे कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति बने। डॉ. वालिया भूविज्ञान से संबंधित अनेक संस्थानों की स्थापना में भी सहायक रहे।डॉ. वाल्दिया ने हिंदी और अंग्रेजी में 110 शोधपत्र और 14 पुस्तकें लिखे। नौ पुस्तकों का संपादन करने के साथ ही उन्होंने भूगर्भ विज्ञान पर 40 से अधिक लेख भी लिखे।भूविज्ञान के क्षेत्र में योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 2007 में पद्मश्री और 2015 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। पद्मश्री और पद्मभूषण के अतिरिक्त उन्हें दर्जनों राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। इनमें शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार, विज्ञान और पर्यावरण के लिए जीएम मोदी पुरस्कार, हिंदी सेवी सम्मान, प्रिंस मुकर्रम गोल्ड मेडल, नेशनल मिनरल अवार्ड फार एक्सीलेंस, पंडित पंत नेशलन इनवायरमेंट फेलो जैसे पुरस्कार शामिल हैं। उन्होंने 1963 में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की।भू विज्ञान में उल्लेखनीय कार्य करने पर 1965 में वह अमेरिका के जॉन हापकिंस विश्वविद्यालय के फुटब्राइट फैलो चुने गए थे। 1979 में राजस्थान यूनिवर्सिटी उदयपुर में भू विज्ञान विभाग के रीडर बने। इसके बाद 1970 से 76 तक वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे। 1976 में उन्हें उल्लेखनीय कार्य के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।1983 में वह प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे।दरअसल, प्रो.वल्दिया की भूवैज्ञानिक शोध-यात्रा भाबर से लेकर हिमालय के शिखरों तक सन् 1958 से आरम्भ होती है। हिमालयी पत्थरों के भूत,भविष्य और वर्त्तमान के रहस्यों को जानने,उनकी प्रकृति एवं प्रवृति को समझने के लिए उनके पास पद-यात्रा करना ही एकमात्र विकल्प था। मूक पत्थरों से घण्टों बातचीत करने और और उस बातचीत को डायरी में लिखने के लिए भी उनकी यह पदयात्रा बहुत आवश्यक थी। वे एक तरफ हिमालय की गूढता की खोज कर रहे होते तो दूसरी तरफ जंगल में गिरि कन्दराओं से निकलने वाली  निर्मल और स्वच्छंद बहती जलधाराओं का भी एक जलवैज्ञानिक के रूप में मुआयना कर रहे होते। कहते हैं प्रकृति और जंगली जीव-जन्तुओं के साथ अंतरंग आत्मीयता के  अन्वेषक वल्दिया जी को जिस गुफा में ‘स्ट्रोमैटोलाइट’ के बारे में खोजी जानकारी मिली थी, तो उसी समय गुफा के अंदर दो बच्चों के साथ बैठी बाघिन उन्हें निहार रही थी।मगर गुफा के बाहर पत्थर पर बैठ बेखबर वल्दिया जी वहां का आंखों देखा हाल अपनी शोध डायरी लिखने में तल्लीन थे।प्रो.वल्दिया को गंगोलीहाट में मिले एक पत्थर ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर पहुंचाया था। उन्होंने अपनी किताब ‘पथरीली पगडंडियों’ में भी इसका उल्लेख भी किया है।1960 में जब प्रोफेसर वल्दिया गंगोलीहाट आए थे तो उन्हें एक पत्थर मिला था। उन्होंने इस पत्थर का नाम ‘गंगोलीहाट डोलोमाइट’ रखा और इसी पत्थर के आधार पर उन्होंने हिमालय की आयु बताई थी। जब उन्होंने यह बात कही तो कई भारतीय वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने उनका उपहास उड़ाया था।इसके बाद 1964 में अंतरराष्ट्रीय मंच पर विदेशी वैज्ञानिकों ने प्रो.वल्दिया का समर्थन किया था तब उनकी बात को मान्यता मिली।बताया जाता है कि इसी के बाद उनका गंगोलीहाट से विशेष लगाव हो गया था।प्रो.वल्दिया 2009 से हिमालयन ग्राम विकास समिति गंगोलीहाट में लगातार कार्यशालाएं आयोजित कर रहे थे। कार्यक्रम समिति के अध्यक्ष राजेंद्र बिष्ट के अनुसार  ‘साइंस आउटरीच’ कार्यक्रम के माध्यम से उन्होंने पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर, चमोली और रुद्रप्रयाग के दुर्गम जिलों में 554 विद्यालयों में जाकर  25 हजार छात्र-छात्राओं और 1055 शिक्षकों को लाभान्वित किया था।प्रो.वल्दिया की भारत के लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिकों में ख्याति रही थी। इसरो प्रमुख सीएन राव उनके साथ दो बार ‘साइंस आउटरीच’ कार्यक्रम में भाग लेने के लिए गंगोलीहाट आए थे। इसके अलावा उनके साथ हर साल आईआईटी कानपुर,इसरो, पंतनगर, डीआरडीओ आदि संस्थानों से वैज्ञानिक आकर बच्चों को विज्ञान की बारीकियों से अवगत कराते थे।एक भू-वैज्ञानिक के रूप में प्रो.खड़क सिंह बल्दिया हिमालय पर्यावरण के बदलते मिजाज के प्रति बहुत संवेदनशील थे। वे कहा करते थे कि जब तक सरकार की मंशा विकास के प्रति गंगा के पानी जैसी निर्मल और स्पष्ट नहीं होगी तब तक पर्यावरण सुरक्षा की बात करना बेईमानी ही होगी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि “व्यवस्थाएँ कौन बनाता है? नीतियाँ कौन बनाता है? बजट की व्यवस्था कौन करता है? राज्य के नफा-नुकसान का हिसाब किताब कौन रखता है? वगैरह। यदि इन मुद्दों पर सरकारें गम्भीर नहीं तो मौसम भी तेजी से बदलेगा, लोग प्राकृतिक आपदाओं के संकट में आ जायेगें।पानी, पेड़ व हवा उपभोग की वस्तु बन जायेगी। वर्षा व साल की ऋतुओं का मिजाज बदल जायेगा।ऐसी परिस्थिति में लोगों की सांसे रुकनी आरम्भ हो जायेगी। इसलिए अच्छा तो यह है कि समय रहते लोग एक बार फिर से अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व दोहन के बारे में सोचें।”प्रो.के.एस.वल्दिया,ने वर्ष 1990 के दशक में सूख रहें जल स्रोतों के पुनर्जीवन हेतु जल स्रोत अभयारण्य विकसित करने का भी सरकार को सुझाव दिया था। इस तकनीक के अन्तर्गत वर्षा जल का अभियान्त्रिक एवं वानस्पतिक विधि से जलस्रोत के जल समेट क्षेत्र में अवशोषण किया जाता है। इस तकनीक से भूमि के ऊपर वनस्पति आवरण एवं कार्बनिक पदार्थों से युक्त मृदा एक स्पंज की तरह वर्षा के जल को अवशोषित कर लेती है,जिससे कि तलहटी के भू जल स्रोतों (एक्वीफर्स )में वृद्धि हो सके। आज जब हिमालय का पर्यावरण ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है,ऐसे में प्रो.खड़क सिंह वल्दिया जैसे लब्धप्रतिष्ठ भूवैज्ञानिक और पर्यावरण विद का चला जाना केवल उत्तराखंड के लिए ही नहीं बल्कि समूचे देश और अंतरराष्ट्रीय जगत के लिए भी अपूरणीय क्षति है महान भूगर्भविज्ञानी तथा पर्यावरणविद् पद्मश्री, पद्मभूषण, डॉक्टर खड्ग सिंह वल्दिया जी को मन ही मन श्रृद्धांजली हिमालय पुत्र प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का आज इस इहलोक से जाना हिमालयी समाज के लिए अपूरणीय क्षति है। ऐसा सच्चा इंसान अब हमारे समाज में दिखने ही दुर्लभ हैं। हिमालय के प्रति उनकी चिंता और चिंतन हमेशा हमारा मार्गदर्शन करेगी।
नमन पुण्य आत्मा तुम्हें बारंबार सलाम. ।(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।) लेखक डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।

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