देवभूमि की संस्कृति ही उत्तराखण्ड की देवभूमि है
देवभूमि की संस्कृति उत्तराखण्ड को देवभूमि कहा जाता है, अर्थात देवी देवता वौ की भूमि, आदि काल से अब तक यह देवभूमि पवित्र मानी गयी है, यहाँ की संस्कृति सबसे अनूठी है, परन्तु आज कल लोग अपनी इस संस्कृति को भूलते जा रहे है, मुझे यह जान कर हर्ष हुआ कि चैनल सोशलमीडिया के समाचार यू, के द्वारा लुप्तप्राय संस्कृति को पुनः उजागर किया जा रहा है, मैं समाचार यु, के का धन्यवाद करना चाहता हूँ जो हमारी संस्कृति को नष्ट हो ने से बचाने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं, पाश्चात्य संस्कृति तो हमारी पवित्र संस्कृति पर हावी हो गयी है, यहाँ का परिवेश, यहाँ के तीज त्योहार लोग भूलते जा रहे हैं, यहाँ के लोकगीत, झोड़ा, चा़चरी, जागर, आदि, त्योहार में घुघूती हरेला विखौती, ओग्लिया, आदि, प्राकृतिक विविधता एवं हिमालय का अद्भुत अद्वितीय सौंदर्य व पवित्र ता उत्तराखण्ड की संस्कृति में एक नया आयाम जोड़ देतेहै, उत्तराखंड की प्राचीन संस्कृति परंपरा की जड़ें मुख्य रूप से धर्म से जुड़ी हुई है, संगीत न्रत्य एवं कला यहाँ की संस्कृति को हिमालय से जोडती है, उत्तराखंड की न्रत्य शैली जीवन और मानव अस्तित्व से जुड़ी है, और असंख्य मानवीय भावनाओं को प्रदर्शित करतीहै, लंगविर यहाँ की एक पुरुष न्रत्य शैली है, जो शारीरिक व्यायाम से प्रेरित है, इसके अलावा हुडकाबौल , झोड़ा चांचरी , झुमैला , छोलिया यहाँ के जाने माने न्रत्य है, भाषाऔं में मुख्य रूप से कुमाऊंनी, गढवाली, जौनसार भाषा बोली जाती है, कुमाऊंनी भाषा में अलग अलग क्षेत्र में अन्तर है, जैसे सोरयाली, गंगोलीहाट में गंगोलि, लोहाघाट में कुमांई , दनपुरिया, अल्मोडिया , चुगरखिया, आदि बोली जाती हैं, क्योंकि कोसकोस में बदले पानी, चार कोस में वानी वाली कहावत चरितार्थ होती है, चाहे जो कुछ भी है, हमें अपनी संस्कृति नष्ट होने से बचानी है, चाणक्य ने भी कहा था जिस देश को नष्ट करना है वहाँ की संस्कृति नष्ट करदे, देश स्वत:नष्ट हो जायेगा, परन्तु यहाँ तो हम स्वयं अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे है, बस हमैं अपनी संस्कृति जीवित रखनी है धन्यवाद🙏लेखक श्री पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल
अति उत्तम
धन्यवाद