दरकते पहाड़ और भूस्खलन के कारण जानमाल का खतरा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
उत्तराखंड समेत देश के तमाम हिमालयी राज्यों में भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। भारत समेत पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन मे आए बदलाव के चलते मानसून चक्र में भी अजीबोगरीब बदलाव देखने को मिल रहा है।बेहद कम समय में कहीं-कहीं बहुत अधिक वर्षा हो रही है। इससे भी भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसके अलावा हिमालयी राज्यों में सड़कों, राजमार्गों के निर्माण के साथ ही होने वाले अन्य विकास कार्यों के चलते पहाड़ कमजोर हो रहे हैं। इससे भी भूस्खलन की घटनाओं में इजाफा हो रहा है।राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार राज्य के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र में लोक निर्माण विभाग की ओर से 43 जोन भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। कुमाऊं और गढ़वाल मंडलों में 400 से अधिक गांवों में भूस्खलन का खतरा है।इन गांवों के ग्रामीणों को भूस्खलन के संभावित खतरे से बचाने को लेकर सरकार, शासन के स्तर पर बैठकों का दौर तो चला, लेकिन अभी भूस्खलन संभावित इन गांव के ग्रामीणों को न तो भी विस्थापित किया गया है और न ही भूस्खलन प्रभावित जोन का वैज्ञानिक विधि से ट्रीटमेंट हो पाया हैउत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में यात्रा करना इन दिनों खतरे से खाली नहीं है। कब कौन सी सड़क पर पहाड़ से गिरकर मलबा और बोल्डर आ जाएं, कहा नहीं जा सकता है। प्रदेश में इस समय करीब 84 डेंजर जोन (भूस्खलन क्षेत्र) सक्रिय हैं, जो आए दिन सड़कों को बाधित कर रहे हैं। अकेले टिहरी जिला क्षेत्र में ऋषिकेश-गंगोत्री और बदरीनाथ हाईवे ऑलवेदर रोड के 150 किमी हिस्से में 60 डेंजर जोन चिह्नित किए गए हैं।इतना ही नहीं बारिश के कारण ऑलवेदर रोड कई स्थानों पर दरक रही है। इससे कार्यदायी एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं। चट्टानों से पत्थर गिरने का खतरा और सड़क के नदी की तरफ दरकने का ये सिलसिला लगातार जारी है। ऐसे में इन सड़कों पर यात्रा करना जोखिम भरा हो सकता है। इधर, लोनिवि की माने तो विभाग की तरफ से सड़कों को खुला रखने की हर मुमकीन कोशिश की जा रही है। जरूरत के हिसाब से जेसीबी मशीनों और मजदूरों की तैनाती की गई है।केंद्र सरकार की धार्मिक पर्यटन और सामरिक रणनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण चारधाम प्रोजेक्ट ऑलवेदर रोड अपने उद्देश्यों को फिलहाल पूरा नहीं कर पा रही है। केंद्र की ओर से इसे किसी भी कीमत पर जल्द से जल्द पूरा किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन जल्दबाजी में किए जा रहे यही प्रयास, अब परियोजना ही नहीं लोगों के लिए भी मुसीबत का कारण बनते जा रहे हैं। ऑलवेदर रोड के बड़े हिस्से में डेंजर जोन चिह्नित किए गए हैं। कार्यदायी संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठ रहे हैं।ऑलवेदर रोड के कई हिस्से बनने के साथ ही दरक रहे हैं तो कहीं चट्टानों का सही ढंग से कटान न किए जाने के कारण वह बारिशों में भूस्खलन के रूप में सड़क पर आ जा रहे हैं। बोल्डरों (बड़े-बड़े पत्थर) के गिरने का सिलसिला भी जारी है। ऐसे में इन सड़कों पर यात्रा करना खतरे से खाली नहीं है। प्रदेश में खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में हो रही बारिश के चलते नदियों के उफान पर आने और भूस्खलन के बीच ऑलवेदर रोड के कई हिस्से लगातार दरक रहे हैं।चारधाम ऑलवेदर रोड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है। इसकी शुरूआत 2016 में हुई थी। जैसा कि नाम से जाहिर है कि यहां बनने वाली सड़कों को हर मौसम के हिसाब से बनाया जाएगा। इस परियोजना के तहत करीब 900 किमी लंबी सड़क को चौड़ा किया जा रहा है। यह सड़क केदारनाथ, बदरीनाथ, युमनोत्री और गंगोत्री के साथ ही टनकपुर-पिथौरागढ़ की कनेक्टिविटी वाल सड़क भी है।बरसात के इस मौसम में विभाग के अधिकतर निर्माण कार्य और डामरीकरण का कार्य पूरी तरह से बंद है। हमारा पूरा फोकस सड़कों को खोलने पर है। हम प्रतिदिन 100 से 150 सड़कें खोल रहे हैं। राज्य में इस समय कुल 84 भूस्खलन वाले डेंजर जोन चिह्नित किए गए हैं। भूस्खलन वाले चिह्नित क्षेत्रों में दो से चार जेसीबी लगाई गई हैं। इस समय करीब 430 जेसीबी मशीनों को सड़कों को खोलने के काम में लगाया गया है। जहां तक ऑल वेदर रोड के रखरखाव का काम है, वह केंद्रीय कार्यदायी एजेंसियों के द्वारा ही किया जा रहा हैजब भी किसी ढलान का कटान होता है तो कटान के आसपास के क्षेत्र में अस्थिरता पैदा हो जाती है। प्राकृतिक कारणों में चट्टानों के संधि भ्रंश उजागर होते हैं। समय-समय पर आने वाले भूकंपों के कारण चट्टानें हिल जाती हैं। भीतर से कमजोर पड़ जाती हैं। साथ ही इन चट्टानों के बीच जल के दबाव में अंतर आ जाता है। जब चट्टानों को विस्फोटों से तोड़ा जाता है तो इनकी संधियां और ब्रांच रन भ्रंश (फाल्ट) जैसी दरारें खुल जाती हैं। इनमें वर्षा जल प्रवेश कर जाता है। इसके बाद चट्टानों की प्रकृति स्थाई नहीं रह पाती और इनमें घर्षण शुरू हो जाता है। पानी के कारण उनका वजन भी बढ़ जाता है, जिससे चट्टानों का ढलान की ओर खिसकना शुरू हो जाता है। ऑल वेदर रोड के मामले में भी बहुत से स्थानों पर ऐसा ही देखने को मिल रहा है।हिमालय सबसे नया पर्वत होने के साथ ही सबसे कमजोर भी है। इस इलाके में निर्माण को लेकर काफी संवेदनशीलता बरतनी चाहिए। यहां भूस्खलन के ज्यादातर हादसे सड़कों के साथ ही होते हैं। सड़क का वर्टिकल कर्व भी लैंडस्लाइड को न्योता देता है। इसलिए सड़कों के निर्माण के समय चट्टानों का कटान एक निश्चत ढलान के साथ होना चाहिए। ऐसे में भूस्खलन का खतरा कम रहता है। देश, दुनिया में बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक भूस्खलन से जहां हर साल हजारों इंसानों को अपनी जिंदगी बचानी पड़ती है। वहीं अरबों की संपत्ति का नुकसान होता है। उत्तराखंड में सरकार और शासन इसके प्रति गंभीर नजर नहीं आते। वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी जैसे वैज्ञानिक संस्थानों को भी भूस्खलन के कारणों के विस्तृत अध्ययन करने व रोकने को लेकर ठोस उपायों की सिफारिश देने के लिए नहीं लगाया गया है।सरकार और तमाम वैज्ञानिक संस्थान कितने संवेदनशील हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे उत्तराखंड में भूस्खलन पर निगरानी को लेकर कहीं भी अर्ली वार्निंग सिस्टम नहीं लगाए गए हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट की ओर से आपदा के लिहाज से संवेदनशील कुछ ग्लेशियरों की निगरानी को लेकर ही अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाए गए हैं।संस्थान के वैज्ञानिकों की ओर से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश समेत देश के हिमालयी राज्यों में भूस्खलन को लेकर समय-समय पर अध्ययन किए जा रहे हैं। हाल ही में वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने उत्तराखंड के नैनीताल और मसूरी जैसे इलाकों में भूस्खलन को लेकर विस्तृत अध्ययन किया है और जिसकी रिपोर्ट भी सरकार शासन को सौंपी गई। लेकिन ऐसी प्राकृतिक आपदाओं को लेकर अभी कुछ किया जाना बाकी है।ज्ञानिकों के मुताबिक हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली बर्फबारी के बाद जब गर्मी में बर्फ पिघलती है तो चट्टानों और मिट्टी को मुलायम बना देती है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ढलानों पर गुरुत्वाकर्षण बल अधिक होने की वजह से चट्टानें और मिट्टी नीचे खिसकने लगती हैं। यही भूस्खलन का कारण बनतीं हैं।इतना ही नहीं वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन के चलते उत्तराखंड समेत देश के तमाम पर्वतीय राज्यों में कम समय में बहुत अधिक बारिश भी भूस्खलन का कारण बन रही है। वैज्ञानिकों की बातों पर यकीन करें तो उत्तराखंड समेत देश के तमाम हिमालयी राज्यों में अंधाधुंध तरीके से सड़कों के निर्माण समेत तमाम विकास कार्य, वनों की कटाई और जलाशयों से पानी का रिसाव भूस्खलन का बड़ा कारण साबित हो रहा हैउत्तराखंड समेत दुनिया में भूस्खलन की जितनी भी बड़ी घटनाएं हुईं, उनमें से ज्यादातर में भूस्खलन की गति 260 फीट प्रति सेकंड के आसपास रही। वैज्ञानिकों की मानें तो गुरुत्वाकर्षण बल अधिक होने के कारण भूस्खलन के दौरान मलबा तेजी से नीचे गिरता है और भारी तबाही होती है।देश में कुल जमीन में से 12 फ़ीसदी जमीन ऐसी है जो भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील है। भूस्खलन के लिहाज से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अलावा देश के पश्चिमी घाट में नीलगिरि की पहाड़ियां, कोंकण क्षेत्र में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और गोवा, आंध्र प्रदेश का पूर्वी क्षेत्र, पूर्वी हिमालय क्षेत्रों में दार्जिलिंग, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश, पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड के कई इलाके भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं।मानसून के सीजन में पर्वतीय क्षेत्र भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हो जाते हैं। यहां लगातार बारिश होने पर कई जगह भूस्खलन होता है। आपदा प्रबंधन अधिकारी के मुताबिक जिले में कुल 120 भूस्खलन जोन चिह्नित किए गए हैं, जिनमें 90 क्रॉनिक जोन हैं, जहां बारिश के दौरान बार-बार भूस्खलन होता है। जिले में भवाली-अल्मोड़ा राष्ट्रीय राजमार्ग में कैंची से खैरना तक, भीमताल-रानीबाग रोड में सलड़ी और ज्योलीकोट-नैनीताल रोड में हनुमान मंदिर के पास बल्दियाखान सबसे खतरनाक क्रॉनिक जोन है। जहां हर साल बरसात में भूस्खलन होता है। इसका सीधा असर पर्वतीय क्षेत्र की यातायात व्यवस्था पर पड़ता है।हिमालय में भूस्खलन का खतरा बहुत ज्यादा है, लेकिन इस आपदा से निपटने के लिए विभिन्न सरकारों की तैयारी चिंताजनक है. ये राष्ट्र जान- माल की हानि कम करने के लिए आवश्यक भूस्खलन की पूर्व सूचना देने वाले कारगर तंत्र को विकसित करने में असफल रहे हैंभारत सरकार ने ऐसे क्षेत्रों की पहचान की है जहां बार-बार भूस्खलन होते हैं. उसका नक्शा खींचा गया है जिसे लैंडस्लाइड हजार्ड ज़ोनेशनका नाम दिया गया है. एनडीएमए, दुर्भाग्य से जिसका फिलहाल कोई मुखिया नहीं हैं, ने भी भूस्खलन और बर्फ की चट्टानों के खिसकने की घटनाओं के प्रबंधन से जुड़े विस्तृत दिशा-निर्देश बनाए हैं ताकि इन आपदाओं की विनाशक क्षमता को नियंत्रित किया किया जा सके. भूस्खलन के जोखिम को कम करने वाले उपायों को संस्थागत रूप देने की कोशिश हो रही है जिससे इन प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली क्षति को कम किया जा सके.
लेखक उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं ।