मानव का प्रकृति के साथ हैं अविच्छिन्न संबंध
मानव का प्रकृति के साथ अविच्छिन्न संबंध है। प्राकृतिक नियमों के साथ समन्वय बनाए रखना मानव को आवश्यक है।। स्वास्थ्य की उत्तम ता हेतु प्रातकाल उठना सबसे पहला नियम है। विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं वह सब प्रातकाल ही उठते रहे हैं सूर्योदय से पूर्व उठने और कराओ लोकन भूमि वंदना मंगल दर्शन मात्र पित्र तथा गुरु वंदन और प्रातः स्मरणीय मंगल श्लोकों के पाठ तथा और स्नान आदि कार्यों से निवृत्त होकर गायत्री आदि की उपासना करने की भारतीय सनातन संस्कृति की सुदीर्घ परंपरा रही है। इन सभी कार्यों को नित्य क्रियाओं का नाम दिया गया है। यदि सूर्योदय से पूर्व उठकर यह आवश्यक कर्म न कर लिए गए तो फिर आगे उनके लिए अवकाश कहां, अतः प्रातः जागरण से अपने को स्वस्थ रखते हुए सत कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए। सूर्योदय के पहले चार घड़ी तक अर्थात लगभग डेढ़ घंटा पूर्व ब्रह्म मुहूर्त का समय माना जाता है। उस समय पूर्व दिशा में क्षितिज में थोड़ी-थोड़ी लालिमा दिखाई देती है। तथा दो चार नक्षत्र भी आकाश में दिखाई देते हैं। इस समय को अमृतवेला भी कहा जाता है। यही जागरण का उचित समय है। प्रकृति के नियमानुसार पशु-पक्षी आदि संसार के समस्त प्राणी प्रातः ही जग कर इस अमृतवेला के वास्तविक आनंद का अनुभव करते हैं। ऐसी दशा में यदि विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव आलस्य वश सोता हुआ प्रकृति के इस अनमोल उपहार की अवहेलना कर दे तो उसके लिए कितनी लज्जा की बात है? जो लोग सूर्योदय तक होते रहते हैं उनकी बुद्धि और इंद्रियां मंद पड़ जाती हैं। शरीर में आलस्य भर जाता है तथा उनकी मुख क्रांति हीन हो जाती है। प्रातः विलंब से उठने वाला मनुष्य सदा दरिद्री रहता है। देववाणी में एक सूक्ति है – कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं बह्वाशिनं निष्ठुरभाषिणं च, सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमुश्चति श्रीयर्दि चक्रपाणि:, अर्थात जिसके शरीर और वस्त्र मेले रहते हैं दांतो पर मेल जमा रहता है बहुत अधिक भोजन करते हैं सदा कठोर वचन बोलते है तथा जो सूर्य के उदय और अस्त समय सोते हैं वे महा दरिद्र होते हैं, यहाँ तक कि चाहे चक्रपाणि अर्थात लक्ष्मी पति विष्णु भगवान ही क्यों न हों परन्तु उनको भी लक्ष्मी छोड़ देती हैं, अत: सूर्योदय तक सोते रहने का हानिकारक स्वभाव छोड़कर प्रातः जागरण का अभ्यास करना चाहिए, यदि हम दृढ संकल्प करें तो ऐसा कौन सा कार्य है जो पूरा न हो सके, भगवान मनु अपनी मानव संहिता में लिखते हैं- ब्राह्मो मुहूर्ते बुध्येत धर्माथो चानुचिन्तयेत, कायक्लेशांश्च तन्मूलान वेदतत्वार्थमेव च, अर्थात ब्रह्म मुहूर्त में उठकर धर्म अर्थ का चिंतन करें। प्रथम धर्म का चिंतन करें यानी अपने मन में ईश्वर का ध्यान करके यह निश्चित करें कि हमारे हाथ से दिन भर समस्त कार्य धर्म पूर्वक हूं। अर्थ के चिंतन से तात्पर्य यह है कि हम दिन भर उद्योग करके ईमानदारी के साथ धन उपार्जन करें जिससे स्वयं सुखी रहें तथा परोपकार कर सकें। शरीर के कष्ट और उनके कारणों का चिंतन इसलिए करें कि जिससे स्वस्थ रहें क्योंकि आरोग्यता ही सब धर्मों का मूल है , शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्, प्रातः उठते ही हाथों के दर्शन शुभ माने गए हैं। आचार प्रदीप में लिखा है कराग्रे वसते लक्ष्मी: कर मध्ये सरस्वती, करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते कर दर्शनम्, अर्थात हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी मध्य में सरस्वती और मूल भाग में ब्रह्मा जी निवास करते हैं। अतः प्रातः उठते ही हाथों का दर्शन करें। वास्तव में प्रातः काल प्रकृति में एक अलौकिक रमणीयता आ जाती है। उसका आनंद हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब हम प्रकृति के साथ समन्वय करें। इस प्रकार स्वास्थ्य रक्षा का प्रथम सूत्र प्रातः जागरण को ध्यान में रखकर हम नित्य सूर्योदय से पूर्व ही उठने का नियम बना लें और अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग अच्छे कार्यों में ही करें। लेखक पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल,