विश्व पर्यावरण दिवस का महत्व
पर्यावरण दिवस, ,, पर्यावरण का अर्थ है, परि+ आवरण, अर्थात वाह्य आवरण, प्रति वर्ष पर्यावरण दिवस 5 जून को मनाया जाता है, इसका मुख्य उद्देश्य यही है कि हमें पर्यावरण की रक्षा करनाऔर जन जन को इसकी रक्षा के लिए जागरूक करना, पर्यावरण के लिए सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है वृक्षों की, अथर्व वेद में वृक्षों को संसार के समस्त सुखों का श्रोत कहा गया है, हमारे वेद पुराणों के अनुसार दस गुणवान पुत्रों का यश उतना ही है जितना एक वृक्ष लगाने का है, अथर्ववेद में वृक्षों एवं वनों को संसार के समस्त सुखों का श्रोत कहा जाता है, वृहदारण्यकोपनिषद् में बताया गया है कि वृक्षों में जीवनी शक्ति है, वन में व्याप्त महर्षियों के गुरु कुलों और आश्रम ने ही भारतीय ज्ञान प्रणाली ने संसार की संपन्नता को विकसित किया, वनों में पले भरत जैसे वीरों ने शेर के दांत गिने, वृक्षों को काटना वैदिक धर्म के अनुसार पातक माना गया है, क्योंकि वृक्ष स्वयं बडे परोपकारी होतेहैं, पद्मपुराण में लिखा है कि जो मनुष्य मार्ग अर्थात सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाते हैं, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फूलता फलता है जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता है, पर्यावरण का अर्थ सिर्फ वृक्षों से ही संबंधित नहीं है अपितु पृथ्वी पर विद्यमान जल वायु ध्वनि रेडियोधर्मिता एवं रासायनिक आदि है, वेदों में कहा जाता है कि जीवधारी अपने विकास और व्यवस्थित जीवन क्रम के लिए एक संतुलित पर्यावरण एवं वातावरण में निर्भर है, आज मोटर कार बस आदि वाहनो से जो ध्वनि की लहरे जीवधारियों को प्रभावित करती हैं, ज्यादा तेज ध्वनि से भी मनुष्य की सुनने की शक्ति कम हो जाती है, और अनिद्रा रोग सताता है, इससे स्नायु तंत्र विकृत हो पागलपन को जन्म देता है, सुधि पाठक गण इस आलेख के जरिये मैं सरकार से भी निवेदन करना चाहता हूँ कि वनों की अनियंत्रित कटाई को रोकने के लिए कठोर नियम बनाये जायें, नये वन क्षेत्र बनाये जाये, और जन सामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाये, पर्यावरण के प्रति जागरूकता से, हम आने वाले समय में और अधिक अच्छा और सवास्थ्य प्रद जीवन व्यतीत कर सकेंगे, प्रायः कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक और रोग नाशक दवाई तथा रसायन का प्रयोग करते हैं, जिसका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, आधुनिक पेस्टीसाइडों का अंधाधुंध प्रयोग लाभ के स्थान पर हानि पंहुचा रहा है, इसके अलावा परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्र और परमाणु परीक्षणों के फलस्वरूप जल वायु तथा ध्वनि का प्रदूषण निरंतर बढते जा रहा है, यह प्रदूषण आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं वरन भावी पीढ़ियों के लिए भी हानिकारक होगा, विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायु मण्डल के वाह्य आवरण मे प्रवेश कर जातेहैं, जहाँ से ठंडे होकर संघनित अवस्था में बूंदों का रूप लेतीहै, बाद में ओस की अवस्था में छोटे छोटे धूल के कणों में फैलकर वायु मण्डल को दूषित करते हैं पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने एवं उनके समुचित व्यवस्था सरकार एवं व्यक्ति गत दोनों पर पूरा प्रयास आवश्यक है, पर्यावरण का स्वच्छ एवं संतुलित होना मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, पाश्चात्य सभ्यता को यह तथ्य बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में समझ में आया, जबकि भारतीय मनीषा ने इसे वैदिक काल में ही अनुभूत कर लिया था, हमारे ऋषि मुनि जानते थे कि पृथ्वी जल अग्नि अन्तरिक्ष तथा वायु इन पंच तत्व से ही शरीर निर्मित है पंचस्वन्तु पुरुष अविवेशतान्यन्त: पुरु.षे अर्पितानि, इन्हें इस तथ्य का भान था कि यदि इन पंच तत्वों में से एक भी दूषित हो गयातो उसका दुष्परिणाम मानव जीवन में अवश्य पडेगा, प्रत्येक धार्मिक कार्य करते समय लोगों से प्रकृति के समस्त अंगों को साम्यावस्था में बनाये रखने की शपथ दिलाने का का प्रावधान किया गया था, द्योशान्तिरन्तरिक्ष शान्ति: पृथ्वी शान्ति राप: शान्ति रौषधय: शान्ति वनस्पतय: शान्ति विश्वेदेवा शान्ति व्रर्हमा शान्ति: सर्व शान्ति देव शान्ति: सामा शान्ति रेधी,, इससे स्पष्ट है कि यजुर्वेद का ऋषि सर्वत्र शान्ति की प्रार्थना करते हुए मानव जीवन तथा प्राकृतिक जीवन में अनुस्यूत एकता का दर्शन बहुत पहले ही कर चुका था, ऋग्वेद का नदी सूक्त एवं पृथ्वी सूक्त तथा अथर्ववेद का अरण्यानी सूक्त क्रमश: नदियों पृथ्वी एवं वनस्पतियों के संरक्षण एवं संवर्धन की कामना का संदेश देते हैं, भारतीय दृष्टि चिरकाल से संपूर्ण प्राणियों एवं वनस्पतियों के कल्याण की आशंका रखती आती है, यद् पिण्डे तद् ब्राह्मणे सूक्ति भी पुरुष तथा प्रकृति के मध्य संबंधों को प्रकट करती है, श्रीमद् भगवतगीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को भागीरथी गंगा तथा जलाशयों में समुद्र बता कर जल की महत्व को स्वीकृति प्रदान की है, जल स्त्रोत केवल निर्जीव जलाशय मात्र नहीं थे, अपितु वरुण देव तथा विभिन्न नदियों के रूप में उसने अनेकों देवी देवताओं की कल्पना की थी, इसी कारण स्नान करते समय सप्त सिन्धुओं में जल के समावेश हेतु आज भी इस मंत्र द्वारा उनका आहवान किया जाता है, – गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती नर्वदे सिन्धु कावेरी जलेस्मिन सन्न्धिमकुरु,,, वृहदारण्यकोपनिषद् में जल को सर्जन का हेतु स्वीकार किया गया है, और कहा गया है कि पंचभूतों का रस पृथ्वी है पृथ्वी का रस जल है जल का रस औषधियाँ हैं, औषधियों का रस पुष्प पुष्प का रस फल फल का रस पुरुष है तथा पुरुष का रस वीर्य है, जो सृजन का हेतु है, मत्स्य पुराण में पादप का अर्थ पैरों से जल पीने वाला बताया गया है, हमें पर्यावरण पर विशेष ध्यान देना होगा और जन जन को इसके प्रति जागरूक करना चाहिए, धन्यवाद! लेखक पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल