उत्तराखंड की संस्कृति व परंपरा का प्रतीक: पिछौड़ा
उत्तराखंड की संस्कृति व परंपरा का प्रतीक: पिछौड़ा
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हर राज्य का परिधान उसकी संस्कृति का परिचय देता है। इसी तरह उत्तराखंड में कुमाऊं का परिधान अपनी अलग पहचान रखता है। एक दुल्हन की बात करें तो यहां पिछौड़े को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। कुमाऊं में हर विवाहित महिला मांगलिक अवसरों पर इसको पहनना नहीं भूलती है। यहां की परंपरा के मुताबिक त्यौहारों, सामाजिक समारोहों और धार्मिक अवसरों में इसे महिलाएं पहनती है। शादी के मौके पर वरपक्ष की तरफ से दुल्हन के लिए सुहाग के सभी सामान के साथ पिछौड़ा भेजना अनिवार्य माना जाता है। कई परिवारों में तो इसे शादी के मौके पर वधूपक्ष या फिर वर पक्ष द्वारा दिया जाता है। जिस तरह दूसरे राज्यों की विवाहित महिलाएं के परिधान में ओढनी, दुपट्टा महत्वपूर्ण जगह रखता है, ठीक उसी तरह कुमाऊंनी महिलाओं के लिए पिछौड़ा अहमियत रखता है। कुमाऊं की लोक संस्कृति में रंगवाली पिछौड़े का अपना अलग महत्व है। धार्मिक आयोजन हो या फिर सामाजिक, शगुन के तौर पर शादी-शुदा महिलाएं पिछौड़े हर उत्सव में पहनती हैं। सदियों से इस परंपरा का निर्वहन होते आया है। वैसे तो पारंपरिक रूप से रंगवाली पिछौड़ी हस्तनिर्मित होती है। इसमें वानस्पतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है और इसमें तमाम तरह की आकृतियां उकेरी जाती हैं। खासकर, इसे बनाने में केवल दो रंग सुर्ख लाल व केसरिया का ही प्रयोग होता है। इन रंगों को मांगलिक भी माना गया है। कल्याणी समिति की अध्यक्ष भी लंबे समय से अपनी संस्था के जरिये पिछौड़े बनवाती हैं, जिसे आधुनिक लुक भी देती हैं। दूसरे राज्यों में रहने वाले कुमाउंनी लोग भी इस तरह के पिछौड़े की खासी डिमांड करते हैं। कहा जाता है की लाल रंग ऊर्जा का प्रतीक है और केसरिया रंग पवित्र धार्मिक माना गया है। इन दो रंगों से बनी पिछौड़ी मनभावन होती है।जब महिलाएं विवाह समारोह, यज्ञोपवीत, नामकरण संस्कार या फिर अन्य आयोजनों में पिछौड़े को पहनती हैं तो बहुत ही आकर्षक लगती हैं। अब प्रशासन ने भौगोलिक संकेतेक (जीआइ टैग) के जरिये पिछौड़े को पहचान देने की पहल की है। निश्चित तौर पर इस पहला का अच्छा असर देखने को मिलेगा। इससे जहां हमारी लोक संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा, वहीं स्थानीय स्तर पर भी रोजगार मिलेगा।रंगवाली पिछौड़ा हस्त-निर्मित होता है जिसे वानस्पतिक रंजकों से रंगा जाता है, इसके बाद उस पर बूटियां व अन्य आकृतियां हाथों से उकेरी जाती हैं। इनके निर्माण में केवल दो रंग सुर्ख लाल व केसरिया ही प्रयुक्त होते हैं क्योंकि भारतीय सभ्यता में इन दोनों रंगों को मांगलिक माना गया है। सुर्ख लाल रंग ऊर्जा व वैभवमय दाम्पतिक जीवन का सूचक माना जाता है और केसरिया रंग पवित्र धार्मिकता एंव सांसारिक सुखों का द्योतक होता है। इन दो रंगों का संयुग्म महिला को अपने वैवाहिक जीवन में सौभाग्य प्रदान करता है। हम सांस्कृतिक विरासत को तभी तक उच्च मांग में स्थापित कर सकेंगे या पहचान दिला सकेंगे जब तक यह अपने मौलिक स्वरूप में मौजूद रहेगी वरना बहुत जल्दी यह बाजार में मांग से अधिक एवं अपने बदले हुए स्वरूप में बिकने लगेगी और वास्तविक बाजार, समय, मांग, तत्पश्चात हमारी संस्कृति से भी यह बाहर निकल जाएगी. आने वाली पीढ़ी को इसे, इसके मौलिक स्वरूप में ही विकसित करने की कोशिश करनी होगी और इसको मजाक बनने से बचाना होगा.संस्कृति की पहचान के नाम पर जितना अपमान, इस पवित्र, गरिमामय पिछौडे, ऐपण, अल्पनाओं का हो रहा इतना किसी भी वस्तु का नहीं हो रहा है. जिसे देखो वही इसे अपने-अपने हिसाब से प्रस्तुत करने में लगा है. जैसे आजकल यह मास्क, फतुई (वासकट), टोपी आदि में दिखाई देने लगा है तब वह दिन दूर नहीं जब यह पुरुषों के हेलमेट, मफलर, जैकेट, मोजे, रुमाल आदि से लेकर कहीं भी किसी भी वस्तु में दिखाई देने लगेगा. क्या राज्य के पास पारम्परिक विरासतों के समान के प्रोडक्शन हेतु, अन्य द्वारा इसकी मौलिकता का हनन ना करने अथवा दुरुपयोग ना करने हेतु कोई पेटेंट नीति लागू की हुई है? क्या उत्तराखंड का जनजीवन स्वयं इन सब के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ है? ताकि वे इसे कहां? कैसे? कितना? किस प्रकार? उपयोग करें को लेकर स्वयं भी सोच रहे हों तांकि विरासत भी बची रहे और सांस्कृतिक प्रसार एवम् उससे जुड़ी संभावनाएं भी बनी रहे.खैर इस बात पर कुछ लोग कहेंगे क्या फर्क पड़ता है? उपयोग से मतलब होना चाहिए या कहेंगे कि सभ्यताएं भी तो ऐसे ही परिवर्तित होती हैं, हम अपनी विरासत की मौलिकता को हनन होने से बचाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं. ताकि भविष्य में खोज करने वाले समझ सकें कि विराट विरासतें यूं ही दम नहीं तोड़ती हैं. इनके पीछे संस्कृति के चौकीदार सदैव प्रयासरत रहते हैं और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बृहद परम्पराओं की कहानियां मूल रूप से हस्तांतरित होती रहती हैं एवम् होती रहेंगी. कुछ समय पहले तक घर-घर में हाथ से पिछौड़ा रंगने का प्रचलन था। लेकिन अब कई परिवार परम्परा के रूप में मंदिर के लिए कपड़े के टुकड़े में शगुन कर लेते हैं। मायके वाले विवाह के अवसर पर अपनी पुत्री को यह पिछौड़ा पहना कर ही विदा करते थे। पर्वतीय समाज में पिछौड़ा इस हद तक रचा बसा है कि किसी भी मांगलिक अवसर पर घर की महिलायें इसे अनिवार्य रूप से पहन कर ही रस्म पूरी करती हैं। सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है। पिछौड़ा हल्के फैब्रिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिंट का होता है। पिछौड़े के पारंपरिक डिजाईन को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है। रंग्वाली शब्द का इस्तेमाल इसके प्रिंट की वजह से किया जाता है क्योंकि पिछौड़े का प्रिंट काफी हद तक रंगोली की तरह दिखता है। शादी, नामकरण,जनैऊ, व्रत त्यौहार, पूजा- अर्चना जैसे मांगलिक मौके पर परिवार और रिश्तेदारों में महिला सदस्य विशेष तौर से इसे पहनती है। यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं तथा वह दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।