सोलह श्राद्ध का क्या है विशेष महत्व,आइये जानते हैं श्राद्ध की तिथियां के बारे में
श्रद्धा एवं आस्था का पक्ष है महालय पक्ष,,,,,,,, आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को महालय पक्ष कहते हैं। माना जाता है कि इस पक्ष में पित्र गण स्वर्ग लोक से भूलोक में भ्रमण करने आते हैं। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष पूर्णमासी और आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की 15 तिथियां मिलाकर 16 श्राद्ध माने गए हैं। इस बार सन् 2021 में तिथि वार श्राद्ध तिथियां निम्न प्रकार से हैं। दिनांक 20 सितंबर दिन सोमवार को पूर्णमासी श्राद्ध 21 सितंबर मंगलवार प्रतिपदा श्राद्ध 22 सितंबर बुधवार द्वितीय श्राद्ध 23 सितंबर गुरुवार तृतीय श्राद्ध 24 सितंबर शुक्रवार चतुर्थी श्राद्ध 25 सितंबर पंचमी श्राद्ध । 27 सितंबर षष्ठी श्राद्ध 28 सितंबर सप्तमी श्राद्ध 29 सितंबर अष्टका अथवा अष्टमी श्राद्ध 30 सितंबर अनवष्टका अर्थात नवमी श्राद्ध 1 अक्टूबर दसवीं श्राद्ध 2 अक्टूबर एकादशी श्राद्ध 3 अक्टूबर द्वादशी श्राद्ध 4 अक्टूबर त्रयोदशी श्राद्ध 5 अक्टूबर चतुर्दशी श्राद्ध 6 अक्टूबर को अमावस्या पितृ विसर्जन ई श्राद्ध। हिंदू धर्म में इन दिनों का विशेष महत्व माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि पितृपक्ष में श्राद्ध और तर्पण करने से पितर प्रसन्न होते हैं। और आशीर्वाद प्रदान करते हैं। पितरों की कृपा से जीवन में आने वाली कई तरह की बाधाएं दूर होती हैं। व्यक्ति को कई तरह की समस्याओं से भी मुक्ति मिलती है। सनातन धर्म में ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष में पितरों का स्मरण और उनकी पूजा करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। श्राद्ध न होने की स्थिति में आत्मा को पूर्ण मुक्ति नहीं मिलती है। विद्वानों के अनुसार पितृपक्ष में नियमित रूप से दान पुण्य करने से जातक की कुंडली में पित्र दोष भी दूर हो जाता है। इस पितृपक्ष में हर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने पितरों को नियमित रूप से प्रतिदिन जल अर्पित करें। पाठकों को एक महत्वपूर्ण बात बताना चाहूंगा की पितरों को जल अर्पित करते समय दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके मध्यान्ह अर्थात दोपहर के समय जल अर्पित किया जाता है। जिस दिन पूर्वज का देहांत हुआ हो ठीक उसी तिथि को वस्त्र और अन्न दान किया जाता है उस दिन किसी निर्धन व्यक्ति को भोजन कराया जाता है। पित्र तर्पण एवं श्राद्ध करने का विधान यह है कि सर्वप्रथम हाथ में जो तिल और कुशलेकर जल सहित संकल्प करें। इसके बाद पितरों का आवाहन करना चाहिए। तर्पण के उपरांत भगवान सूर्य देव को प्रणाम करके उन्हें अर्घ्यभी देना चाहिए। कहां जाता है कि पूर्वजों का श्राद्ध वह तर्पण ने किया जाए तो पित्र दोष का भागी बनना पड़ता है। श्राद्ध कर्म शास्त्र में यह उल्लेखित है- श्राद्धम न कुरूते मोहात् तस्य रक्तम पिवन्तिते । अर्थात मृतप्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे संबंधियों का रक्तपान करते हैं। उपनिषद में भी श्राद्ध कर्म के महत्व पर प्रमाण मिलता है-देवपितृकार्याभ्याम न प्रमदितव्यम,,,,, अर्थात देवता एवं पितरों के कार्यों में प्रमाद अर्थात आलस्य मनुष्य को कदापि नहीं करना चाहिए। इस महालय पक्ष मैं जो 16 दिन का माना गया है इसमें यह भी माना गया है की जब तक पितर का श्राद्ध नहीं होता तब तक पितर उसके घर के मुख्य द्वार पर श्राद्ध के इंतजार में बैठे रहते हैं। श्राद्ध में जो पत्तल परोसा जाता है उसमें घर में बने सभी पकवान के साथ-साथ फल मौसमी फल अखरोट दाड़िम अनार सभी चीज रखते हैं। क्योंकि इस महालय पक्ष में सभी फल मौजूद रहते हैं। अनेक पाठकों के मन में एक प्रश्न उठ रहा होगा कि यह श्राद्ध परंपरा कब से शुरू हुई या इस भूलोक में सबसे पहले श्राद्धकिसने किया है? पाठकों को बताना चाहूंगा महाभारत के अनुशासन पर्व मैं भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं। जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं। महाभारत के अनुसार श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमी को महा तपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था। इस प्रकार सबसे पहले महर्षि निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया। महर्षि निम्मी की देखा देखी अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे। धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्य देने लगे इस प्रकार लगातार श्राद्ध का भोजन करते करते देवता गण एवं पित्र गण पूर्ण तृप्त हो गए इतने तृप्त हो गए की पितरों को अजीर्ण( भोजन न पचने वाला) रोग हो गया और उन्हें इस रोग से बहुत कष्ट होने लगा। तब सभी ऋषि मुनि ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे कहा कि श्राद्ध का अन्नखाते-खाते हमारी गत खराब हो गई है। अब हमें बहुत कष्ट होने लग गया है। अब आप ही हमारा कल्याण कर सकते हैं। पितरों की बात सुनकर ब्रह्मा जी बोले चिंता करने की कोई बात नहीं है इस बीमारी का भी इलाज है। मेरे निकट अग्निदेव बैठे हैं। यह ही आपका कल्याण करेंगे। ऋषि-मुनियों ने अग्नि देव को प्रणाम कर कहां अग्नि देव हमारा कल्याण कीजिए। अग्निदेव बोले पितरों अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण रोग दूर हो जाएगा। यह सुनकर देवता तथा पितर प्रसन्न हो गए। इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है। इस तरह से श्राद्ध की यह परंपरा आगे बढ़ती चली गई और पितरों का श्राद्ध करके ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाने लगा। हमारे हिंदू धर्म शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख है की हवन में जो पितरों के निमित्त पिंडदान किया जाता है उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं कर पाते हैं। श्राद्ध में अग्नि देव को देखकर राक्षस भी वहां से चले जाते हैं। क्योंकि अग्नि हर चीज को पवित्र कर देती है। और पवित्र खाना मिलने से देवता और पितर भी प्रसन्न होते हैं। लेखक श्री पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल,