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जब धोती की किनारी पर लिखा जाने लगा ‘खुदीराम
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
भारत की आजादी के लिए जिन क्रांतिकारियों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए उनमें एक नाम है खुदीराम बोस एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जिन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे युवा क्रांतिकारियों में से एक के तौर पर जाना जाता है। उनका जन्म 3 दिसंबर 1889 को हुआ था। उनके पिता त्रैलोक्यनाथ बसु शहर के तहसीलदार थे और मां लक्ष्मीप्रिया देवी एक धर्मनिष्ठ महिला। उनका जन्म पश्चिम बंगाल के मेदिनिपुर जिले के बहुवैनी में हुआ था।खुदीराम बोस पर भगवद गीता के कर्म अध्याय का गहरा असर था। वह भारत माता को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए थे। 1905 में बंगाल के विभाजन की नीति से असंतुष्ट होकर उन्होंने जुगांतर की सदस्यता ले ली थी। यह संगठन क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देता था। 16 साल के किशोर वय में बोस ने पुलिस स्टेशन के पास बम फेंके और सरकारी अधिकारियों को निशाना बनाया। सिलसिलेवार बम धमाकों के सिलसिले में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। खुदीराम बोस का। जिस उम्र में युवा अपने भविष्य को लेकर सपने बुनता है उस उम्र यानि महज 18 साल की आयु में खुदीराम बोस खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर झूल गए थे, वो भी सिर्फ देश की आजादी के लिए। 1908 में आज ही के दिन खुदीराम बोस को अंग्रेज सरकार ने फांसी की फंदे पर लटका दिया था। 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले में पैदा हुए खुदीराम बोस महज 16 साल की उम्र में आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। खुदीराम बोस में देश की आजादी को लेकर किस तरह का जूनून था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 9 की पढ़ाई बीच में छोड़ इसलिए छोड़ दी क्योंकि उन्हें जंग-ए-आजादी में शामिल होना था। स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने। 17 साल की उम्र में ही उन्हें दो बार गिरफ्तार किया गया था लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। खुदीराम बोस में देश की आजादी को लेकर कुछ भी कर गुजरने का जूनून था।30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर क्लब के सामने एक जोरदार बम धमाका हुआ। यह धमाका दमनकारी जज किंग्सफोर्ड को मौत की घाट उतारने के लिए किया गया था, जो रोज उस रास्ते से बग्गी में सवार होकर निकलता था। बम की चपेट में किंग्सफोर्ड तो नहीं आया लेकिन एक अंग्रेज वकील की बेटी और पत्नी दोनों मारे गए। इस धमाके को अंजाम दिया था खुदीराम बोस ने, जिसके बाद अंग्रेजी हकूमत की चूलें हिलने लगी। उसी दिन राम को खुदीराम बोस को अरेस्ट कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। महज 8 दिन हुई सुनवाई में खुदीराम बोस को फांसी की सजा मुकर्रर हुई। इसके खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट में अपील की गई लेकिन कोर्ट ने सजा को बरकरार रखा और अंतत 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फांसी पर लटका दिया गया।जब खुदीराम बोस को फांसी के फंदे पर लटकाया जा रहा था तो उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। मुज्जफरपुर सेंट्रल जेल में में जब खुदीराम को फांसी दी गई तो उनके हाथ में गीता थी। शहीद होने के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हुए कि उनकी खास किस्म की धोती युवाओं में फैशन का आइकन बन गई। इस धोती के किनारे पर खुदीराम लिखा होता था।बेशक आधुनिक व स्वतंत्र भारत में अब खुदीराम बोस के बलिदान को सहज ही याद नहीं किया जाता। देश की वर्तमान परिस्थिति खास कर राजनैतिक दशा को देखते हुए हम कह सकते हैं कि शुक्र है कि खुदीराम बोस इस युग में नहीं हुए, वर्ना क्या पता कि उनकी शहादत पर भी राजनीति शुरू हो जाती। जैसा कि सीमा की सुरक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर जवानों के बलिदान पर हो रहा है। सीमा की सुरक्षा का सवाल हो या आंतरिक खतरों का। हमारे राजनेता किसी भी विषय पर बोले बिना नहीं रह सकते। चाहे वह जितना ही गैर जरूरी क्यों न हो। दिल्ली के बटला हाउस में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में प्राण गंवाने वाले जांबांज पुलिस इंस्पेक्टर की शहादत पर भी यही हुआ। अपनी निम्न सोच जाहिर करते हुए राजनेताओं ने मुठभेड़ की परिस्थितयों पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। लिहाजा कई महीने तक यह मसला उच्चतम न्यायालय में भी विचाराधीन ।उनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए गीत रचे गए और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ। उनके सम्मान में भावपूर्ण गीतों की रचना हुई जिन्हें बंगाल के लोक गायक आज भी गाते हैं।शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा रहता था।दरअसल, खुदीराम को जब फांसी की सजा दी जानी थी वह हंसते हुए फांसी के फंदे की तरफ चले। नई धोती पहनकर वह ऐसे मुस्कुरा रहे थे मानो फांसी की सजा नहीं कोई महोत्सव मनाने जा रहे हों। खुदीराम को फांसी दिये जाने के बाद बंगाल में चारों ओर बगावत के सुर उठने लगे। स्कूल कालेजों में पढ़ने वाले युवा इन धोतियों को पहनकर सीना तानकर स्वाधीनता की राह पर चल था ।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय है.

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