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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड

उत्तराखंड राज्य को प्रकृति का अनोखा आशीर्वाद प्राप्त है। देवभूमि में जड़ी-बूटियों का भंडार है। कई ऐसे पौधे हैं, ऐसे फल हैं जो बड़ी से बड़ी बीमारी को भी ठीक कर देते हैं, उन्हीं में से एक है काफल काफल का वैज्ञानिक नाम माइरिका एसकुलेंटा है। उत्तरी भारत और नेपाल के पर्वतीय क्षेत्र, मुख्यत हिमालय की तलहटी क्षेत्रों में पाया जाने वाला सदा हरा भरा रहने वाला एक काष्ठीय वृक्ष है. काफल का पेड़ 1300 मीटर से 2100 मीटर (4000 फीट से 6000 फीट) तक की ऊँचाई पर प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाला वृक्ष है. पेट संबंधी बिमारियों में इसके पेड़ की छाल का चूर्ण काफी लाभकारी होता है। खट्टा-मीठा मिश्रित स्वाद युक्त यह फल तीखी गर्मी से भी मानव को राहत प्रदान करता है। गर्मियों में यह फल मानव के साथ ही पक्षियों का भी आहार बनता है। पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों का खट्टा-मीठा रसीला फल काफल बाजार में उतर आया है। गर्मी के मौसम मे ये फल थकान दूर करने के साथ ही तमाम औषधीय गुणों से भरपूर है। इसके सेवन से स्‍ट्रोक और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है। एंटी-ऑक्सीडेंट तत्व हाेने के कारण इसे खाने से पेट संबंधित रोगों से भी निजात मिलती है। यह फल स्‍थानीय लोगों को तीन माह के लिए रोजगार का साधन भी बनता है।काफल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण शरीर के लिए बेहद फायदेमंद है। इसे कहीं उगाया नहीं जाता, बल्कि अपने आप उगता है और हमें मीठे फल का तोहफा देता है। कहते हैं कि काफल को अपने ऊपर बेहद नाज भी है और वह खुद को देवताओं के खाने योग्य समझता है। कुमाऊंनी भाषा के एक लोक गीत में तो काफल अपना दर्द बयान करते हुए कहते हैं, ‘खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां। इसका अर्थ है कि हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब भू लोक में आ गए।’काफल से जुड़ी एक कहानी भी। कहा जाता है कि उत्तराखंड के एक गांव में एक गरीब महिला रहती थी, जिसकी एक छोटी सी बेटी थी, दोनों एक दूसरे का सहारा थे। आमदनी के लिए उस महिला के पास थोड़ी-सी जमीन के अलावा कुछ नहीं था, जिससे बमुश्किल उनका गुजारा चलता था। गर्मियों में जैसे ही काफल पक जाते, महिला बेहद खुश हो जाती थी। उसे घर चलाने के लिए एक आय का जरिया मिल जाता था। इसलिए वह जंगल से काफल तोड़कर उन्हें बाजार में बेचती, जिससे परिवार की मुश्किलें कुछ कम होतीं। एक बार महिला जंगल से एक टोकरी भरकर काफल तोड़ कर लाई। उस वक्त सुबह का समय था और उसे जानवरों के लिए चारा लेने जाना था। इसलिए उसने इसके बाद शाम को काफल बाजार में बेचने का मन बनाया और अपनी मासूम बेटी को बुलाकर कहा, ‘मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूं। तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। मैं जंगल से आकर तुझे भी काफल खाने को दूंगी, पर तब तक इन्हें मत खाना।’ मां की बात मानकर मासूम बच्ची उन काफलों की पहरेदारी करती रही। इस दौरान कई बार उन रसीले काफलों को देख कर उसके मन में लालच आया, पर मां की बात मानकर वह खुद पर काबू कर बैठे रही। इसके बाद दोपहर में जब उसकी मां घर आई तो उसने देखा कि काफल की टोकरी का एक तिहाई भाग कम था। मां ने देखा कि पास में ही उसकी बेटी सो रही है। सुबह से ही काम पर लगी मां को ये देखकर बेहद गुस्सा आ गया। उसे लगा कि मना करने के बावजूद उसकी बेटी ने काफल खा लिए हैं। इससे गुस्से में उसने घास का गट्ठर एक ओर फेंका और सोती हुई बेटी की पीठ पर मुट्ठी से जोरदार प्रहार किया। नींद में होने के कारण छोटी बच्ची अचेत अवस्था में थी और मां का प्रहार उस पर इतना तेज लगा कि वह बेसुध हो गई। बेटी की हालत बिगड़ते देख मां ने उसे खूब हिलाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी। मां अपनी औलाद की इस तरह मौत पर वहीं बैठकर रोती रही। उधर, शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई। जब महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा जाते हैं और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए। अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर गई। कहा जाता है कि उस दिन के बाद से एक चिड़िया चैत के महीने में ‘काफल पाको मैं नि चाख्यो’ कहती है, जिसका अर्थ है कि काफल पक गए, मैंने नहीं चखे.. फिर एक दूसरी चिड़िया गाते हुए उड़ती है ‘पूरे हैं बेटी, पूरे हैं’.ये कहानी जितनी मार्मिक है, उतनी ही उत्तरखंड में काफल की अहमियत को भी बयान करती है। आज भी गर्मी के मौसम में कई परिवार इसे जंगल से तोड़कर बेचने के बाद अपनी रोजी-रोटी की व्यवस्था करते हैं।काफल तीन महीने तक स्थानीय बेरोजगारों के लिए स्वरोजगार का भी साधन बनता है। इसके पेड़ ठंडी जलवायु में पाए जाते हैं। इसका लुभावना गुठली युक्त फल गुच्छों में लगता है। प्रारंभिक अवस्था में इसका रंग हरा होता है और अप्रैल माह के आखिर में यह फल पककर तैयार हो जाता है, तब इसका रंग बेहद लाल हो जाता है। इन दिनों काफल 400 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा है। विभिन्न गांवों के ग्रामीण इन दिनों शहर में काफल बेचने पहुंच रहे हैं। काफल विक्रेता ने बताया कि वह प्रतिदिन 500 रूपये से 1000 रूपये के बीच कमा लेते थे। इसी से उनके परिवार की इन दिनों आजीविका चल रही थी। उनका कहना है कि स्वरोजगारपरक इस पेड़ के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए सरकार व वन महकमे को विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। काफल जंगली तौर पर पाया जाने वाला एक फल ही नहीं है, बल्कि हमारे शरीर में एक औषधी का काम भी करता है.काफल में विटामिन्स, आयरन और एंटी ऑक्सीडेंन्टस प्रचूर मात्रा में पाये जाते हैं. इसके साथ ही यह कई तरह के प्राकृतिक तत्वों जैसे माइरिकेटिन, मैरिकिट्रिन और ग्लाइकोसाइड्स से भी परिपूर्ण है. इसकी पत्तियों में लावेन -4-हाइड्रोक्सी-3 पाया जाता है. काफल के पेड़ की छाल, फल तथा पत्तियां भी औषधीय गुणों के लिये जानी जाती है. काफल की छाल में एंटी इन्फलैमेटरी, एंटी-हेल्मिंथिक, एंटी-माइक्रोबियल, एंटी-ऑक्सीडेंट और एंटी-माइक्रोबियल क्वालिटी पाई जाती है. इतने गुणों से परिपूर्ण काफल रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है लेकिन कोरोना का असर काफल पर भी दिखायी दे रहा है. आजकल इस बेमौसम ने क्या मैदान। क्या पहाड़ हर तरफ जहां लोगो को उलझन मैं। डाल रखा है उनके स्वास्थ्य जहा में गिवारट आ रही है वही जानवर भी ही परेशान है तो जंगली फलों को नुकसान पहुचना स्वाभविक है इस बेमौसम की बारिश ने पहाड़ों में न केवल मई के महीने में ठंड बढ़ा दी है, बल्कि इस सीजन में पकने वाले औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों काफल, हिसालू, किल्मोड़ की फसल को भी अत्यधिक हानि पहुंचाई है।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय है.

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