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घर जाता हूं तो मेरा ही बैग मुझसे चिढ़ता है,
मेहमान हूं अब ये पल- पल मुझे बताता है….
मां कहती हैं, सामान बैग में फौरन डालो,
हर बार तुम्हारा कुछ न कुछ छूट जाता है….
घर पहुंचने से पहले ही लौटने का टिकट,
वक़्त परिंदे सा उड़ता जाता है,
उंगलियों पर ले कर जाता हूं गिनती के दिन,
फिसलते हुए जाने का दिन पास आ जाता है….

अब कब होगा आना सबका पूछना,
ये उदास सवाल भीतर तक बिखराता है,
घर से दरवाजे से निकलने तक,
बैग में कुछ न कुछ भरते जाता हूं….
जिस घर की सीढ़ियां भी मुझे पहचानती थी,
घर के कमरे की चप्पे-चप्पे में बसता था मैं,
लाईट्स, फैन के स्विच भूल डगमगाता हूं…..

पास पड़ोस जहां था बच्चा भी वाकिफ,
बड़े बुजुर्ग बेटा कब आया पूछने चलें आते हैं…
कब तक रहोगे पूछ अनजाने में वो,
घाव एक और गहरा कर जाते हैं….

गाड़ी में मां के हाथों की बनी रोटियां,
रोती हुई आंखों में धुंधला जाता है,

लौटते वक़्त वजनी हुआ बैग,

सीट के नीचे पड़ा खुद उदास हो जाता है…..
तू एक मेहमान है अब ये पल मुझे बताता है…..
आज भी मेरा घर मुझे वाकई बहुत याद आता हैं……

Himanshu kumar kohli
S.S.J. University almora

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