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प्रकृति के आठ रूप संसार को आरोग्य प्रदान करते हैं,, जो प्राणी प्रकृति में रहता है उसे प्रकृति आठ रूप आरोग्य प्रदान करते हैं, प्रकृति के आठ रूप है जल अग्नि होता सूर्य चन्द्र आकाश पृथ्वी और वायु , प्रकृति के ये आठ रूप यदि स्वच्छ और निर्मल तथा प्रसंन्न हैं तो इनके सहयोग से यह जीव जगत सदा स्वस्थ रहता है, परन्तु आज मानव समाज इन आठों रूपों को दूषित करने में तुला हुआ है, महाकवि कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तल के नान्दी पाठ में प्रकृति के आठ रूपों का भगवान शिव की अष्ट मूर्तियों के रूप में स्मरण किया है, या सृष्टि: स्न्ष्ठराद्या वहाँ विधिहुतं या हविर्या च होती ये द्वे कालं विध्यत्त: श्रुति विषय गुणा या स्थित व्याप्य विश्वम,, यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त: , प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीश: ,, कालीदास ने प्रकृति को शिव और प्रकृति के आठ रूपों को शिव कीअष्टमूर्तयां माना है, इन अष्ट मूर्तियों का सीधा संबंध जीव जगत से है, जब विधाता ने सृष्टि की रचना की तो उनहोंने सर्वप्रथम जल की रचना की, अत: कालीदास ने सबसे पहले शिव की जलमयी मूर्ति का स्मरण किया है, या सृष्टि: स्न्ष्ठराद्या आद्य सृष्टि अर्थात जल, स्वच्छ जल से शरीर स्वस्थ हो जाता है, जल ही जीवन है, जल के विना प्राण रक्षा नहीं होती है, जल अन्तर्गत होकर शरीर के विकारों को नष्ट कर देता है, जल में समस्त रोगों को नष्ट कर देने वाली औषधियों को उत्पन्न करने की शक्ति का वास है, प्रकृति अर्थात शिव का दूसरा रूप अग्नि है जिसे कालीदास ने वहतिविधिहुतं या हवि: के रूप में स्मरण किया है, जिसका अर्थ है कि जो मूर्ति विधिपूर्वक हवन की गयी हव्य सामाग्री ग्रहण करती है, अर्थात अग्नि, अग्नि समस्त प्रकार के रोगों को अपने प्रभाव से नष्ट कर देती है, इस प्रकार अग्नि प्राणी के बहुत से रोगों मन्द अग्नि आदि को नष्ट करके उसके शरीर को आरोग्य प्रदान करते हैं, प्रकृति का तृतीय रूप होता है यजमान है, सृष्टि के समस्त कर्म यज्ञ हैं और यज्ञों का कृता यजमान होता है, अतः विधाता सबसे पहला यजमान था, जिसने सृष्टि यज्ञ अर्थात पृथ्वी की रचना की, वह सृष्टि कर्म अनवरत हो रहा है, इस पृथ्वी का प्रत्येक क्रिया शील प्राणी होता यानि यजमान है, यजमान स्वकृतयज्ञ से उत्पन्न धुंए से जगत प्रदूषण को नष्ट कर प्राणियों को आरोग्य प्रदान करते हैं, ये द्वे कालं विध्यत्त: , कालीदास ने इस वाक्य से जो दो मूर्तियां अर्थात सूर्य और चन्द्र काल अर्थात दिन एवं रात्रि का विधान करते हैं, वो प्रकृति के चतुर्थ एवं पंचम रूप हैं, जिनका इस सृष्टि से अटूट संबंध है, सूर्य समस्त जगत की आत्मा है, ये जगत का नेत्र और सविता जनक हैं, इनके बिना हम सब अन्धे हैं, यदि ये न हो तो पृथ्वी पर कुछ भी पैदा नहीं होगा, इन्ही के प्रति दिन उदित होने से संसार की गतिविधियों चलती हैं, अपनी किरणों से जीव जगत को आरोग्य प्रदान करते हैं, इसलिए आरोग्य के अभिलाषी को सूर्योपासना करने का निर्देश शास्त्रों में प्राप्त हैं, चन्द्र निशा पति और औषधि पति हैं, ये औषधियों में रसों का संचार करते हैं, और उनहे पुष्टकर प्राणियों को आरोग्य प्रदान करते हैं, प्रकृति का छठा रूप आकाश है जिसे श्रुति विषय गुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम, कहकर कालीदास ने शिव की छठी मूर्ति बताया है, इस आकाश में अनन्त ब्रहमाण्ड और अनेक गंगायें समाहित हैं, इसका सर्वाधिक विशाल रूप है, यह समस्त जीव जगत को श्रवण शक्ति प्रदान करता है, प्रकृति का सप्तम रूप पृथ्वी है, जिसे कालीदास ने यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति अर्थात जिसे समस्त बीजों को उत्पन्न करने वाली कहकर स्मृत किया है, पृथ्वी अन्नादि समस्त बीजों की जननी है, अन्नादि से प्राणियों की भूख शान्त होती है, अतः प्राणियों को आरोग्य प्रदान करती है, प्रकृति का अष्टम रूप वायु है, जिसे कालीदास ने यया प्राणिन: प्राणवन्त: अर्थात जिसके द्वारा प्राणी प्राण वाले होते हैं, कहकर शिव की अष्टमूर्ति के रूप में स्मृत किया है, वायु सतत बहता है, इसीसे समस्त प्राणी जीवित है, यह अन्तरिक्ष मार्ग पर चलता हुआ क्षण भर के लिए भी नहीं रुकता, यदि यह क्षण भर के लिए भी कहीं रुक जाये तो प्राणियों का जीवन समाप्त हो जायेगा, प्राणियों में श्वास स्पंदन ही तो जीवन है, और वह वायु से संचालित होता है, अतः वायु हमारे प्राणों की रक्षा करता है, यह अष्टरूपा प्रकृति तो निरंतर हमारे कल्याण में लगी है, किन्तु आज सारा वातावरण समस्त परिवेश अन्न जल वायु सभी कुछ दूषित होता जा रहा है, तो रोग बढेंगे ही महामारी फैलेगी ही आज मानव प्रकृति को नष्ट करने में तुला हुआ है, अन्धाधुन्ध जंगलों का कटान चला है बचे खुचे जंगल आग से नष्ट कर रहा और फिर प्राणवायु के लिए अस्पताल के चक्कर काट रहे है, यह बढे आश्चर्य की बात है, प्रकृति के साथ की जा रही छेड़छाड़ को यदि हमने नहीं रोका तो वह दिन दूर नहीं जब हम सब का सर्वनाश सुनिश्चित होगा, अभी तो एक ही महामारी से निपटना मुस्किल हो रहा है आगे देखो होताहै क्या, पहले हमारे समस्त कर्म यज्ञ द्वारा प्रकृति के इन आठ रूपों से अग्नि सूर्य चन्द्र आदि की आराधना और उपासना की दृष्टि से होते थे, यज्ञ हवन होम आदि निक्षिप्त घृत आदि हवन सामग्री उत्पन्न सुगन्धित धूमोंसे, समस्त पर्यावरण सहित वातावरण शुद्ध तथा सुगन्धित होता रहता था, किन्तु आज हमारे कर्म उद्योग तथा व्यापार की दृष्टि से हो रहे हैं, जिसके कारण धुआँ उगलते वाहनों और घातक विस्फोटकों के जहरीले धुयें से न केवल नगरों की अपितु ग्रामीण क्षेत्रों का वायु भी इतना कलुषित तथा प्रदूषित हो चुका है कि इसे इन फेफड़ों में भरना खतरे से खाली नहीं है, यह सब हो रहा है और हम सब ऐसा करते रहे तो प्रकृति अर्थात शिव के इन अष्ट रूपों को विकृत ( रुद्र) रूप धारण करना ही होगा जिससे विभिन्न घातक रोगों की उत्पत्ति अनिवार्य है, लेखक पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल

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