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बड़ा खतरा बन गया है ई-कचरा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
भारत में हर साल करीब 10 लाख टन ई-कचरा निकलता है. कबाड़ बन चुके इलेक्ट्रॉनिक गैजेट हवा, पानी और मिट्टी को दूषित तो करते ही हैं, वे जलवायु परिवर्तन को भी उकसा रहे हैं. ई-वेस्ट से आशय पुराने, उम्र पूरी कर चुके, फेंक दिए गए बिजली चालित तमाम उपकरणों से हैं. इसमें कम्प्यूटर, फोन, फ्रिज, एसी से लेकर टीवी, बल्ब, खिलौने और इलेक्ट्रिक टूथब्रश जैसे गैजेट तक शामिल हैं. ई-कबाड़ में लेड, कैडमियम, बेरिलियम, या ब्रोमिनेटड फ्लेम जैसे घातक तत्व पाए जाते हैं. ताजा रिपोर्टें और अध्ययन बताते हैं कि भारत में ई-कचरे को न सही ढंग से इकट्ठा किया जाता है और न ही वैज्ञानिक तरीके उसका निस्तारण हो पाता है. इसके चलते हवा पानी मिट्टी जहरीली और दूषित होती जा रही है और लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा हो रहा है.ई-वेस्ट प्रबंधन और परिचालन नियम 2011 के बदले केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ई-वेस्ट प्रबंधन नियम 2016 को अधिसूचित किया था. 2018 में इसमें उत्पादकों से जुड़े कुछ मुद्दों को लेकर संशोधन भी किए गए थे. विषैले और खतरनाक पदार्थों के अपशिष्ट (कचरे) के निपटान के लक्ष्य निर्धारत करने के अलावा विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (एक्सटेन्डेड प्रोड्युसर रिस्पॉन्सिबिलिटी- ईपीआर) योजना बनाई गई है. सरकारी आदेश की भाषा में कहें तो ई-अपशिष्ट संग्रहण लक्ष्यों के मुताबिक 2019-20 में ईपीआर के तहत अपशिष्ट उत्पादन की मात्रा का वजन के हिसाब से 40 प्रतिशत संग्रहण का लक्ष्य रखा गया था. 2021-22 के लिए ये 50 प्रतिशत, 2022-23 के लिए 60 प्रतिशत और उससे आगे के लिए 70 प्रतिशत है. संशोधित नियमों में कहा गया है कि “ई-अपशिष्ट का संग्रहण, भंडारण, परिवहन, नवीकरण, भंजन, पुनर्चक्रण और निपटान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडेन्स के अनुसार होगा.”लेकिन सीपीसीबी की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरे देश में लाखों टन ई-कचरे का महज तीन से दस फीसदी ही इकठ्ठा किया जाता है. एनजीटी में पिछले साल दिसंबर में पेश इस रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में ई-कचरा कलेक्शन का लक्ष्य था 35422 टन लेकिन वास्तविक कलेक्शन हुआ 25325 टन. इसी तरह 2018-19 में लक्ष्य था 154242 टन लेकिन जमा हुआ 78281 टन. और अगले ही साल यानी 2019-20 का हाल देखिए कि लक्ष्य पर पहुंचना तो दूर भारत में 1014961 टन ई-कचरा पैदा कर दिया गया! यानी दस लाख टन से अधिक! करीब 1630 इलेक्ट्रॉनिक गैजेट निर्माताओं को ईपीआर मिली हुई है जिनके पास बताते हैं कि सात लाख टन से ज्यादा की ई-वेस्ट प्रोसेसिंग की क्षमता है. यानी दायित्व के निर्वाह में वे पीछे हैं. और ऐसा सीपीसीबी की चेतावनी के बावजूद है. ई-कचरे से छुटकारा पाने के लिए एक समयबद्ध और युद्धस्तर की कार्ययोजना की जरूरत है. सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियों, उद्योगों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं, स्वयंसेवी समूहों और सरकारों के स्तर पर जागरूकता पैदा करने और उसे बनाए रखने की जरूरत है. ई-कचरे के संग्रहण लक्ष्य और वास्तविक संग्रहण के अंतर को कम किया जाना चाहिए. डिसमैंटल क्षमता को बढ़ाने की जरूरत भी है. पर्यावरणीय लिहाज से जुर्माने या मुआवजा जैसी व्यवस्थाएं रखनी चाहिए, और ई-कचरे को लेकर सतत निगरानी और निरीक्षण की जरूरत भी है.यह भी जरूरी है कि गैरआधिकारिक और गैरकानूनी स्तर पर चल रही डिसमेन्टिल और रिसाइक्लिंग कारोबार को बंद किया जाना चाहिए, बेहतर होगा कि उन्हें सही दिशा में प्रशिक्षित और जागरूक कर वैध बनाया जाए, लेकिन ये भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि ऐसे ठिकाने आबादी और हरित क्षेत्र से दूर बनाए जाएं ताकि पर्यावरण पर कम से कम प्रभाव पड़े. एनजीटी का कहना है कि सीपीसीबी को कम से कम छह महीने के एक निश्चित अंतराल पर ई-कचरे के निस्तारण से जुड़ा स्टेटस अपडेट करते रहना चाहिए.जाहिर है यह काम सभी राज्यों के प्रदूषण बोर्डों के साथ समन्वय से ही संभव हो पाएगा. और राज्यों में भी सभी उत्तरदायी एजेंसियों को इस बारे में न सिर्फ मुस्तैद रहना होगा बल्कि उन ठिकानों को चिन्हित भी करते रहना होगा जो इस अवैध निस्तारण के चलते पर्यावरणीय लिहाज से नाजुक हो रहे हैं. फिर चाहे वो वहां का भूजल हो या वहां की हवा या वहां के लोगों की सेहत. इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट को सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ता हुआ कचरा स्रोत माना गया है. कड़े निर्देशों और कानूनों के अभाव में आज अधिकतर ई-वेस्ट सामान्य कचरा प्रवाह का हिस्सा बन जाता है. यहां तक विकसित देशों के रिसाइकिल होने वाले ई-कचरे का 80 प्रतिशत हिस्सा विकासशील देशों में जाता है. कचरे का ये भूमंडलीकरण पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक है. ई-कचरे के प्रभावी निस्तारण में बहुत लंबा समय लगेगा, ये तय है, लेकिन सबसे आदर्श स्थिति तो यही है कि इन इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों और उपकरणों में ऐसे रसायनों, पदार्थों, खनिजों या विधियों का इस्तेमाल न्यूनतम किया जाए जो पर्यावरणीय और स्वास्थ्य के लिहाज से ही नहीं, बल्कि अंततः एक समूची अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह खा जाने की आशंका के लिहाज से बेहद खतरनाक हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी इतनी तरक्की कर रहे हैं तो क्यों न उनकी रोशनी में ऐसी उपयोगी डिवाइसें और प्रोडक्ट बनाए जाएं जो 100 प्रतिशत पर्यावरण-अनुकूल हों. लेकिन क्या ऐसा हो पाना संभव है?क्या बेइन्तहां और बेकाबू हो चुके उपभोक्तावाद पर लगाम लगा पाना संभव है?ई-कचरे की नीतिगत कमजोरियों, व्यवस्थागत उदासीनताओं, व्यापारगत अवहेलनाओं और उपभोक्तागत असवाधानियों के बीच केद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का एक ताजा अध्ययन भी चिंता में डालने वाला है. इसके मुताबिक भारत में जहरीले और नुकसानदायक पदार्थो से दूषित और प्रभावित सबसे ज्यादा ठिकाने ओडीशा में पाए गए हैं. देश के ऐसे 112 ठिकानों में सबसे ज्यादा 23 ओडीशा में, 21 उत्तर प्रदेश में और 11 दिल्ली में हैं. 168 ठिकानों को लेकर आशंका है. एनजीटी के आदेश के बाद सात राज्यों के 14 दूषित ठिकानों की सफाई का अभियान शुरू कर दिया गया है.ई-कचरा ही नहीं, प्लास्टिक कचरा, उद्योग फैक्ट्री का रासायनिक कचरा भी पसरता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन से निपटने की चुनौतियों में ऐसी बहुत सी अलक्षित, साधारण सी दिखने वाली और लगभग अदृश्य चीजें भी हैं जिन पर सुचिंतित कार्ययोजना की जरूरत बनी हुई है. कचरा प्रबंधन यूं तो पूरे देश में एक समस्या है लेकिन हिमालयी राज्यों में सॉलिड वेस्ट का निस्तारण ठीक से न हो पाना एक विकराल समस्या बन गया है। खासतौर से हिमालय की संवेदनशील इकोलॉजी और यहां पर मौजूद अनमोल वनस्पतियों और जीव जंतुओं को कारण यह मसला और भी अहम है। नेटवर्क – 18 में छपी रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड में जगह-जगह बढ़ते कूड़े के पहाड़ यहां के जल स्रोतों और नदियों के साथ-साथ जंगली जानवरों के लिये भी समस्या बन गये हैं। उत्तराखंड के 13 में से 9 ज़िले पहाड़ी क्षेत्र में हैं और यहां तकरीबन सारा कूड़ा जंगलों में फेंका जा रहा है। इससे बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है। नीति आयोग पहले ही कह चुका है कि उत्तराखंड में 60% अधिक जलापूर्ति भू जल स्रोतों से हो रही है। जानकारों का मानना है कि यह सारा कचरा जलस्रोतों को खत्म कर रहा है। साल 2016 में ठोस कचरा प्रबंधन के लिये जो नियम बने उनमें साफ कहा गया है कि पहाड़ी इलाकों में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट उस तरह नहीं किया जा सकता जैसे मैदानी इलाकों में किया जाता है। पहाड़ की इकोलॉजी को बचाने के लिये कड़े नियम बनाने और लागू करने की ज़रूरत है। सिक्किम और काफी हद तक हिमालय जैसे राज्यों ने इस ओर रास्ता दिखाया है।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय dk;Zjr है.

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