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नागफनी उत्तराखंड को बना सकती है धनी
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
नागफनी एक ऐसा पौधा होता है जिसका तना पत्ते की तरह ही होता है लेकिन वह पूरी तरह से गूदेदार होता है. इसे मरूभूमि का पौधा भी कहा जाता है क्योंकि यह पौधा पानी के अभाव में उगता है. इसीलिए नागफनी के पौधे को हम सूखे क्षेत्र का पौधा भी कहते हैं. इसकी पत्तियों पर कांटे लगे होते है. यह पौधे बहुत धीरे-धीरे बढ़ते है और काफी लंबे समय तक आसानी से जीवित रहते हैं. इसकी 25 प्रजातियां पाई जाती है. यह विशेषकर मैक्सिको, दक्षिण अमेरिका आदि में पाई जाती है. नागफनी का मूल रूप से जन्म मेक्सिको में हुआ था। इसकी 127 प्रजातियां और 1775 उप वंश पाये जाते हैं। आम तौर पर इस पौधे की उम्र 100 से 500 वर्ष तक हो सकती है। यह पौधा बंजर-रेतीली, ऊबड़-खाबड़ और कम पानी वाली भूमि पर पनपने में सक्षम होता है। मेक्सिको में यह पौधा 500 से 1500 वर्षों तक की उम्र का भी पाया जाता है। इसमें पक्षी अपना घरौंदा बना कर भी रहते हैं। लेकिन यहां जो नागफनी का पौधा पाया गया है वह अत्यन्त पुराना है और यहां चट्टान पर तीन पौधे जो ब्रोकली के फूल के आकार के हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि यह इलाका कभी बिना पानी का बंजर, पथरीला था। उन्होंने दावा किया कि यह पौधा आकाशीय बिजली गिरने को रोकने का कार्य भी करता है, इसमें तांबे की मात्रा अधिक पाई जाती है। भारत में भी नागफनी या कैक्टस का पौधा आसानी से देखने को मिल जाता है. नागफनी में कैल्शियम, पौटेशियम, मैगनीशियम, मैगनीज आदि शामिल होते है. नागफनी कैलोरी में कम, वसा से भरपूर, कोलेस्ट्रोल में कम होने के साथ कई तरह के पोषक तत्वों का स्त्रोत है. इसके फलों को सुखाकर और पीसकर मवेशियों को भी खिलाया जाता है. इसमें कैल्शियम के अलावा कई उपयोगी तत्व भी मौजूद होते है. यह क्षतिग्रस्त होने के बाद मजबूत हड्डियों के निर्माण और हड्डियों की रिपेयर का एक अनिवार्य हिस्सा है फाइटोकैमिकल और एंटीऑक्साइड गुण मौजूद होते है. यह बढ़ती उम्र के लक्षणों के खिलाफ एक अच्छा रक्षात्मक तंत्र है. सेलुलर चायपच के बाद मुक्त कण त्वचा पर रह जाते है जो आपकी त्वचा को प्रभावित करते है. इसमें बहुत अधिक मात्रा में फाइबर होता है. पाचन क्रिया में आहार फाइबर बहुत ही आवश्यक होता है. पाचन प्रक्रिया में आहार फाइबर बहुत ही आवश्यक होता है क्योंकि यह आंतों के लिए एक बेहतरीन बल्क जोड़ होता है. यह हस्त और कब्ज के लक्षणों को भी कम करता है. यह डायबिटीज वाले मरीजों के लिए बहुत लाभदायक है.यह ग्लूकोज के स्तर में कम स्पाइक को पैदा कर सकता है सजावट से लेकर रोजमर्रा के हर उत्पाद में चमड़ों का प्रयोग धड्ड्ले से हो रहा है. लेकिन बढ़ते हुए चमड़ों के प्रयोग का सबसे अधिक खामियाज़ा बेजुबान जानवरों को भुगतना पड़ता है. पेटा द्वारा लिए गए आंकड़ों से पता लगता है कि हर साल लेदर इंडस्ट्री चमड़ें की मांग को पूरा करने के लिए लाखों जानवरों का क़त्ल कर देती है. जिससे पर्यावरण में असंतुलन पैदा होता जा रहा है और जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है. चमड़े के लिए जानवरों पर होने वाले यह जुल्म लेकिन अब बहुत जल्दी बंद हो सकता है. क्योंकि दो व्यापारियों ने लेदर बनाने का अनोखा तरीका खोज निकाला है. इन्होंने देस्सेर्टो (नामक कैक्टस के पत्तों के उपयोग से फ़ैब्रिक बनाया है. यह अपने आप में चमड़ा बनाने की एक नई तकनीक है. हालांकि चमड़े के विकल्प के रूप में हमारे पास फ़ॉक्स लेदर का विकल्प मौजूद है. लेकिन फ़ॉक्स लेदर नकली लेदर होने के बावजदू भी पर्यावरण को नुकसान ही पहुंचाता है क्योंकि प्लास्टिक से बनाया जाता है. लेकिन कैक्टस से बनने वाले चमड़े को पूरी से इको-फ्रेंडली माना जा रहा है. इसको रंगने की प्रक्रिया भी नैचुरल ही है. इस बायोडिग्रेडेबल चमड़े को हर कोई उपयोग कर सकता है. फ़िलहाल इसे कैक्टस-लेदर का नाम दिया गया है. जानकारी के मुताबिक़ इससे सीट्स, जूते कपड़े और अन्य तरह के उत्पाद बनाए जा सकते हैं. पौधे को मरुस्थल से लेकर पहाड़ी क्षेत्रों कहीं भी उगाया जा सकता है। यह राज्यवासियों को मालामाल बना सकता है। ये कांटे ही होते हैं जिनसे गुल महफूज होते हैं, न होते ये कांटे गर गुलिस्तां भी कहां होते। किसी शायर की इन पंक्तियों का महत्व एक वन अफसर ने समझ लिया और उत्तराखंड में विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी कैक्टस व सैक्युलैन्ट प्रजातियों के पौधों के बचाव के लिए एक कंजर्वेशन सेंटर की स्थापना की है।आमतौर पर कैक्टस शुष्क जलवायु में पाया जाने वाला पौधा है। कंटीला होने की वजह से लोग इसे अपशगुन मानते हैं। हालांकि एक मान्यता है कि नागफनी घर के मुख्य द्वार पर लगाने से बुरी नजर घर में प्रवेश नहीं करती है बावजूद इसके लोग घरों में कैक्टस, सैक्युलैन्ट जैसे पौधे लगाने से कतराते हैं। लेकिन इनके फायदे भी बहुत हैं। डीएफओ हल्द्वानी ने एक रिसर्च में पाया कि कैक्टस कार्बन डाइ आक्साइड, कार्बन मोनो जैसी हानिकारक गैसों को अवशोषित कर लेता है। यदि एक घर में तीन-चार पौधे लगे हों तो उक्त घर की वायु में आसपास के वायु मंडल की अपेक्षा ऑक्सीजन की मात्रा ज्यादा होगी। इसके अलावा उन्होंने दुर्गम इलाके में खेती के चारों ओर कैक्टस लगाकर जंगली जानवरों सुअरों, बंदरों, नील गाय आदि से बचाव का भी प्रयोग किया। सकारात्मक परिणाम मिलने के बाद सनवाल ने हल्द्वानी डिवीजन के छकाता रेंज के सुल्तान नगरी में एक कैक्टस एंड सैक्युलैन्ट कंजर्वेशन सेंटर की स्थापना की है। इसके अलावा नर्सरी भी बनाई जा रही है ताकि किसानों को कैक्टस मुहैया कराया जा सके। इतना ही नहीं डिवीजन शिविर लगाकर किसानों को कैक्टस के महत्व के बारे में जागरूक करने का प्रयास किया जाएगा। इस सेंटर की स्थापना का मकसद विलुप्त प्रजाति के संरक्षण के साथ-साथ दुर्गम इलाकों की खेती को जंगली जानवरों से बचाना है ताकि पहाड़ से तेजी से हो रहे पलायन पर रोक लग सके।राजाजी राष्ट्रीय पार्क के रेंज अधिकारी विजय कुमार सैनी ने अधीनस्थ अधिकारियों के साथ भीमगोड़ा तीर्थ स्थित मंदिर के ऊपर का इन दुर्लभ कैक्टस के पौधों का निरीक्षण किया. जिसकी रिपोर्ट पार्क निदेशक सहित प्रमुख वन सरक्षंक को प्रेषित करने तैयारी की जा रही है. गगन से जैसे उतरकर, एक तारा, कैक्‍टस की झाड़ियों में आ गिरा है, एक अदभुत फूल काँटो में खिला है। कवि हरिवंशराय बच्चन ने ये पंक्तियां कैक्टस के चटक रंग के फूलों पर लिखी थीं। कैक्टस में बंजर ज़मीन में भी उग आने की क्षमता होती है और फिर अपनी उर्वरकता से वे पौधों की नई किस्मों के लिए ज़मीन तैयार करते हैं। उत्तराखंड वन विभाग ने वर्ष 2018-19 में कैक्टस गार्डन तैयार करने के लिए रिसर्च एडवायज़री कमेटी से अनुमति ली थी। हल्द्वानी रिसर्च सर्कल के 0.2 हेक्टेअर क्षेत्र में कैक्टस की करीब 150 किस्में सहेजी गई हैं। जहां इस समय बहार छायी है।इस कैक्टस उद्यान में उत्तराखंड की स्थानीय प्रजातियां हैं, इसके साथ ही मैक्सिको मेडागास्कर जैसी जगहों से लाए गए पौधे भी हैं। वन अनुसंधान केंद्र हल्द्वानी में मुख्य वन संरक्षक बताते हैं कि कैंपा के तहत शुरू किया गया ये प्रोजेक्ट पांच वर्षों के लिए है। जिसका उद्देश्य कैक्टस पर शोध को बढ़ावा देना और लोगों को इसके बारे में जागरुक करना है। इनकी मौजूदगी उस भूभाग में मृदा अपरदन को कम करती है और जल संचयन में भी यह नागफ़नी फायदेमंद हैं. साथ ही अपने फैलाव को बढ़ाने में अत्यधिक सक्षम होने के बावजूद भी यह अपने आस पास उगने वाली वनस्पतियों को नुकसान नही पहुंचाती, जैसे चीड़ व सागौन के वृक्ष करते हैं जिनके नीचे कोई और वनस्पति नही उग पाती. उनकी पत्तियों व स्पाइक के क्रमशः क्षारीय व अम्लीय होने के कारण साथ ही उनके पत्तों के जमीन पर गिरने से एक मजबूत परत भी बनती है जो अन्य वनस्पतियों के अंकुरण को प्रभावित करती है. जलवायु परिवर्तन से माहौल में आए बदलाव का प्रभाव वनस्पतियों पर भी है। इसके अलावा मानव हस्तक्षेप से भी वासस्थलों के वातावरण में बदलाव आता है।

लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय dk;Zjr है.

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