महत्वपूर्ण खबर- च्युर या च्यूरा एक ऐसा वृक्ष है जिसके उपयोगों का कोई नही है अन्त, आइये जानते है कैसे
हमारे समाज में प्रकृति को प्राचीन काल से ही अत्यधिक महत्व दिया गया है तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण हेतु कई तत्वों को देवता स्वरूप तथा पूजनीय बताया गया है। पुराणों में समुद्र मंथन से कई रत्न प्राप्त होने का विवरण मिलता है जिसमें एक रत्न कल्पवृक्ष का भी उल्लेख किया गया है। कल्पवृक्ष कि परिकल्पना में इसे सभी मनोकामनाऐं पूर्ण करने वाला अर्थात ऐसा वृक्ष बताया गया है जिसके सभी भाग मानव के लिए उपयोगी होते हैं। वर्तमान में अगर पहाड़ में पाये जाने वाले वृक्षों की बात करें तो कुछ ऐसे वृक्षों में च्युर या च्युरा, भीमल(भेकु या भिमुवां) तथा भांग ऐसे वृक्ष हैं जिनके हर भाग को हमारे द्वारा उपयोग किया जाता है। लेकिन इनमें च्युर या च्यूरा एक ऐसा वृक्ष है जिसके उपयोगों का कोई अन्त नही है। च्यूरा के वृक्ष का हर भाग बहुपयोगी है। इसके बहुपयोगी महत्व के कारण इसे हम पहाड़ का कल्पवृक्ष भी कहें तो अतिशयोक्ति नहि होगी।च्यूरा के वृक्ष कुमाऊँ के पहाड़ी क्षेत्रों में समुद्र कि सतह से 300 से 1500 मीटर की ऊंचाई वाले विभिन्न स्थानों पर पाये जाते हैं। सामान्यत: इसके पेड़ 10 मीटर से 20 मीटर तक ऊंचे पाये जाते हैं। कुमाऊँ में इस वृक्ष को च्यूर या च्यूरा, नेपाली में च्यूरि तथा अंग्रेजी में इंडियन बटर ट्री के नाम से जाना जाता है। च्यूर को अलग-अलग क्षेत्रों में फुलावार, गोफल आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम डिप्लोनेमा ब्यूटेरेशिया अथवा एसेन्ड्रा ब्यूटेरेशिया है। च्यूरा मैदानी क्षेत्रों में पाये जाने वाले बहुपयोगी वृक्ष महुआ की पहाड़ी प्रजाति भी माना जा सकता है, लेकिन पहाड़ो पर पाये जाने वाले च्यूरा के वृक्ष का अत्यधिक महत्व माना जाता है। भारत में च्यूर के वृक्ष सभी हिमालयी राज्यों कश्मीर से सिक्किम तथा भूटान व नेपाल में पाये जाते हैं। कुमाऊँ मंड्ल में च्यूरा के वृक्ष सभी पहाड़ी जिलों अर्थात अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चम्पावत जिले में काली, पनार, रामगंगा और सरयू नदी घाटी में बहुतायत में पाए जाते हैं, नैनीताल जिले में भीमताल के आस-पास के स्थानों, बानना, पस्तोला, भौंर्सा, पिनरौं, हल्द्वानी से छोटा कैलास मार्ग पर स्थित अमियां, डहरा, हैड़ाखान आदि जगहों पर इसके वृक्ष बहुतायत में हैं। कुमाऊं मंडल में च्यूर के करीब 60 हजार पेड़ होने की जानकारी प्राप्त है पर आधिकारिक रूप से इसकी कोई पुष्टि नही की जा सकती है। एक मोटे अनुमान के अनुसार माना जाता है कि इनमें से करीब 40 हजार वृक्ष ऐसे हैं जिनमें से फल और बीज प्राप्त किए जा सकते हैं।च्यूरा वृक्ष के फलने-फूलने का समय जनवरी माह से शुरु होकर अक्टूबर माह तक होता है तथा इसके फल जुलाई-अगस्त तक पक कर पीले हो जाते हैं। इसका फल का गूदा स्वादिष्ट- मीठा, सुगंधित और रसीला होता है, जिसे जंगली पशु जैसे लंगूर-बन्दर तथा पक्षी बड़े चाव से खाते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय लोग, विशेषत: बच्चे भी जंगली फल के रूप में इसके फल को खाते हैं। इसके पुष्पित होने तथा फलों के पकने के समय पर्वतीय घाटियां इसकी सुगंध से महक उठती हैं। इसके फूलों के रस से मधुमक्खियां शहद बनाती हैं, जो उत्तम गुणवत्ता का माना जाता है। च्यूरा का वृक्ष ऊँचा तथा तना मजबूत होता है और इस वृक्ष की जड़ों की भूमि पर मजबूत पकड़ होती है। जिस कारण यह वृक्ष पहाड़ी ढलानों पर भू-कटाव को रोकने के लिए अत्यधिक उपयोगी माना जाता है। पिथौरागढ़ के नदी-घाटी के जिन क्षेत्रों में च्यूरा के वृक्ष अधिक संख्या में हैं, उन नदी घाटियों में भूस्खलन अन्य स्थानों की अपेक्षा काफी कम पाया गया है क्योंकि इसके विशाल वृक्ष की गहरी जड़ों ने सदियों से इस क्षेत्र की भूमि को मजबूती के साथ जकड़ा हुआ है। इस प्रकार च्यूरा का वृक्ष पहाड़ो पर भू-कटाव तथा भू-स्खलन को रोकने में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।च्यूरा के वृक्ष की पत्तियां घरेलू पशुओं के लिए उपयोगी चारे के रूप में प्रयोग की होती हैं। दूधारू पशुओं के लिए इसकी पत्तियां पौष्टिक आहार और दूध को बढ़ाने वाली मानी जाती हैं। च्यूरा को पहाड़ो में धार्मिक आस्था के प्रतीक पवित्र वृक्ष के रूप में भी मान्यता है। इसकी पत्ति्यों की माला शुभ कार्यों में मकानों के बाहर शुभ प्रतीक के रूप में लगाई जाती हैं। ऐसा माना जाता है की इन पत्तियों को लगाने से परिवार पर अशुभ की छाया नहीं पड़ती है। च्यूरा का फूल बहुत सुगन्धित होने के कारण बड़ी संख्या में मधुमक्खियों को अपनी और आकर्षित करता हैतथा इसके पुष्पित होने के समय इसका वृक्ष मीठी सुगंध से महक उठता है। इसके फूलों से सबसे अधिक पराग प्राप्त होने के कारण मधुमक्खी भी इसके वृक्षों के आस-पास रहती हैं। च्यूरा के फूलों से अधिक मात्रा में मधु प्राप्त होता है। इस प्रकार इसके वृक्ष मधमक्खी पालन उद्योग में भी सहायक होते हैं तथा इसके फूलों से प्राप्त मधु (शहद) उत्तम गुणवत्ता, अधिक स्वादिष्ट एवं औषधीय गुणों से भरपूर बताया जाता है।च्यूरा के सुगन्धित फूलों का उपयोग विभिन्न सुगन्धित उत्पाद, इत्र, सेंट, धूप तथा अगरबत्ती आदि बनाने में सुगंध के लिए भी क्या जाता है। च्यूरा के फूलों के रस को अल्कोहल बनाने के कच्चे माल के स्रोत के रूप में भी का उपयोग किया जाता है।च्यूरा का फल का गूदा स्वादिष्ट-मीठा, सुगंधित और रसीला होता है और इसका उपयोग पशु तथा स्थानीय लोग भोजन के रूप में करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि कुछ लोगों द्वारा इसके फल के गूदे का प्रयोग परांठे बनाने में भी किया जाता है। इसके फल के गूदे में शर्करा की प्रचुर मात्रा होती है जिस कारण पूर्व में जब चीनी का प्रचलन बड़े शहरों तक ही सीमित था पहाड़ों में पारम्परिक रूप से इसके गूदे का उपयोग गुड़ बनाने के लिए भी किया जाता रहा है।च्यूरा की पत्तियों का उपयोग दोने (कटोरीनुमा पात्र) तथा पत्तों की थाली बनाने के लिए किया जाता है। पहाड़ो में विभिन्न अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों में इस प्रकार तैयार दोने वाली थालियों को पवित्र माना जाता है और विभिन्न खाद्य पदार्थों परोसने के लिए उपयोग किया जाता है। च्यूरा के बीजों की खली जानवरों के लिए बड़ी पौष्टिक मानी जाती है।कभी कभी इसकी खली को को जलाकर मच्छरओं को दूर भगाने के लिए भी उपयोग में लाया जाता है। च्यूरा के गूदे से गुड़ बनाने के लिए उसे कुचल और कूट कर कर गर्म पानी में पारंपरिक विधि में उबालकर गूदे के रेशों को छानकर और निचोड़कर अलग कर लिया जाता है। घोल को लगातार उबालकर पानी के पूरी तरह सूख जाने पर गुड़ ठोस के रूप प्राप्त होता है, जिसे गन्ने के रस से बने गुड़ की तरह ही इस्तेमाल किया जाता है। च्यूरा का गुड़ स्वाद में अधिक स्वादिष्ट और गुणकारी बताया जाता है और लाभकारी मूल्य पर बेचा नहीं जा सकता है। अलग किये गए गूदे के रेशों के अवशेषों को चारे के साथ मिलाकर पशुओं को खिलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। च्यूरा का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग इसके बीजों से वनस्पति घी बनाने में किया जाता है। घी बनाने के लिए पहले च्यूरा के पके फलों के गूदे से इसके बीजों को अलग कर लिया जाता है। इसके बीजों को साफ़ करके उन्हें गर्म पानी में उबाला जाता है, फिर बीजों में से छिलके को निकालकर गिरी को लगा कर लिया जाता है और कुछ समय के लिए धूप में सुखाया जाता है। सूखी गिरी को भूना जाता है, जब उसमें से भुनने वाली खुशबू (भूटैन) आने लगती है तो गर्म गिरी को तुरंत ओखल में तब तक कूटा जाता है जब तक कूटने से इसकी बारीक लूद्दी तैयार हो जाती है। कुटी हुयी लुग्दी को भारी बारीक कपड़े से निचोड़ कर तेल को छानकर अलग कर लिया जाता है।ठंडा होने पर यह घी का रूप ले लेता है तथा इसे घी की तरह ही खाद्य के रूप में प्रयोग किया जाता है जो गुणवत्ता में शुद्ध तथा दूध के मक्खन से प्राप्त घी के समान ही होता है जिसका पारम्परिक रूप से सदियों से उपयोग होता आया है। आज के युग की विलासितापूर्ण दिनचर्या में इस घी का उत्पादन और प्रयोग रासायनिक प्रक्रियाओं से निर्मित रिफाइंड आयल के मुकाबले नगण्य हो गया है। च्यूरा के बीज से प्राप्त घी का प्रयोग प्रकाश हेतु दिए जलाने में भी किया जा सकता है अगर इस घी को मोमबत्ती की तरह मोम की जगह उपयोग किया जाता है तो यह अच्छा प्रकाश तो देता ही है साथ ही सामान मात्रा के मोम या घी से दुगुने से भी ज्यादा समय तक प्रकाश देता है। इसे जलाने पर आस-पास के वातावरण में एक मधुर सुगंध भी फ़ैल जाती है। यह घी प्रकाश हेतु तेल के रूप में इस्तेमाल करने पर बहुत काम धुआं उत्सर्जित करता है अर्थात इसमें से बहुत कम कार्बन उत्सर्जान होता है। जिस कारण इसका उपयोग पंपसेट, जनरेटर आदि में जैव ईंधन के रूप में विशेष रूप से किया जा सकता है। इस घी का प्रयोग प्राकृतिक मोम की तरह जाड़ों में त्वचा को फटने से रोकने के लिए एंटी क्रैकिंग क्रीम के रूप में भी किया जा सकता है।च्यूरा की खली के चूरे को लॉन, गोल्फ मैदान और अन्य खेलों के मैदान में कीटनाशक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसमें सैपोनिन होता है, जिसका उपयोग साबुन, सौंदर्य प्रसाधन और औषधीय उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। कहीं कहीं इसका उपयोग मैदान में खाद के विकल्प के रूप में भी किया जाता है। बागवानी फसलों के लिए स्वदेशी खाद के साथ प्रयोग के लिए यह उपयोगी मानी जाती है। च्यूरा की छाल में टैनिन की प्रचुर मात्रा पायी जाती है जिस कारण इसकी छाल का प्रयोग रंगाई के लिए रंग तथा रेजिन के रूप में किया जाता था पर अब सिंथेटिक रंग, वार्निश तथा पेंट की उपलब्धता के कारण उसकी उपयोगिता लगभग समाप्त हो गयी है। यह पेड़ पहाड़ वासियों को वर्षों से घी उपलब्ध करा रहा है जिस कारण इसे इंडियन बटर ट्री कहा जाता है। लेकिन वर्तमान में लोगों को इसके महत्व का पता नहीं है तथा लोग धीरे धीरे इसे भुलाते जा रहे हैं। अगर इसका संरक्षण कर समुचित रूप से व्यावसायिक इस्तेमाल किया जाए तो जिन क्षेत्रों में यह पाया जाता है वहां की आर्थिकी में इसका योगदान हो सकता है। वर्तमान में इसके संरक्षण हेतु राज्य के वन विभाग की कुछ नर्सरियों में भी इस वृक्ष के रोपण हेतु पौध तैयार की जा रही हैं। पिथौरागढ़ के मूनाकोट ब्लॉक में प्रसंस्करण यूनिट स्थापित की जा रही है। इस यूनिट में अक्तूबर से दोनों उत्पादों का उत्पादन शुरू हो जाएगा। च्यूरा से तैयार किए गए एक साबुन की कीमत 80 से 150 रुपया होगी। घी लगभग 200 रुपया प्रति किलो बेचा जाएगा।आजकल अनेकों सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा इसके संरक्षण-संवर्धन के सांथ ही आधुनिक तकनीक से इसके प्रसंस्करण-उत्पादन के प्रयास किये जाने के समाचार अवश्य प्राप्त हो रहे हैं। च्यूरा के घी का इस्तेमाल लोग स्किन डिजीज में करते हैं, जिससे घाव जल्दी भर जाते हैं। पहाड़ में मिलने वाला ये फल उत्तराखंड के किसानों की आजीविका का बढ़िया जरिया बन सकता है हमारे पहाड़ों में कितनी ही ऐसी चीजें हैं जिनके बारे में आज की पीढ़ी को पता ही नहीं है. आज भी हम जैसे लोग पहाड़ के ऐसे लम्हों को फिर से जीना चाहते हैं.जिसकी स्थानीय स्तर पर अच्छी मांग है।जीआईटैगिंग से बढ़ेगी वैल्यू। डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।