पिथौरागढ़ जनपद के गंगोलीहाट क्षेत्र अंतर्गत चहज गाँव में स्थित इस पांडव मंदिर में वर्ष में 5 बार होती है पूजा

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पिथौरागढ़ जनपद के गंगोलीहाट क्षेत्र अंतर्गत चहज गाँव में स्थित इस पांडव मंदिर में वर्ष में 5 बार पूजा होती है। ऐसा माना जाता है की स्वर्गारोहण के समय पांडव यहां आए थे और उन्होंने कुछ समय यहां निवास भी किया था। इतिहास के अनुसार एक लोक कथा के अनुसार आज से 500 वर्ष पूर्व ड्यूल गांव के विष्ट लोगों की गाय जब यहां घास चरने के लिए आई तो घर लौटकर उन्होंने दूध नहीं दिया। जब प्रतिदिन यहां घास चरने के बाद गायों ने दूध देना बंद कर दिया तो ग्वालों ने आकर एक दिन गाय पर पूरा दिन नजर रखने का निर्णय लिया। तब चरवाहों ने देखा की गाय एक पाषाण शिला को दुग्ध पान कराती है। क्रोध में आकर एक ग्रामीण ने कुल्हाड़ी से पाषाण शिला पर प्रहार किया तो उसमें से रक्त की धारा बहने लगी तभी आकाशवाणी हुई कि यह पांडवों द्वारा स्थापित पवित्र सिला है। तुम इसको दूध से स्नान कराओ और इसकी पूजा करो। जो यह देव आज्ञा नहीं मानेंगे वह नष्ट हो जाएगा। ग्रामीण ने ड्यूल के सभी 22 विष्ट परिवारों को यह सूचना दी ग्रामीण के 21 परिवार ने तो आकाशवाणी को मानने से इंकार कर दिया और इसका मजाक भी उड़ाया। तभी वह 21 परिवार मृत हो कर समाप्त हो गए। 22वें परिवार ने भयभीत होकर आदेश का पालन किया और शीला को दूध से नहला कर उसका पूजन किया। तब पुनः आकाशवाणी हुई कि जो एक झांसी से आया हुआ जोशी ब्राह्मण परिवार है उन्हें यहां का पुजारी नियुक्त करो। तभी यहां सुख शांति आएगी और गांव की उन्नति होगी। तब से यहां हर तीसरे वर्ष पांडव जागर लगता है। पांडव जागर महाभारत का ही कुमाऊनी रूपांतरण होता है। यह 22 दिनों में पूरा होता है। इसके अतिरिक्त वर्ष में 5 बार अलग से पूजा होती है। सर्वप्रथम चैत्र नवरात्र के पांचवे दिन यहां के लोग पांच नवरात्रों का अनुष्ठान के बाद मंदिर में पूजा करते हैं। उसके बाद जेठ माह में नए अन्न अर्थात गेहूं की फसल का अन्न सर्वप्रथम पांंडव दरवार में चढाया जाता है । अर्थात सर्वप्रथम गेहूं के आटे की पूरियां और रोट( रोट गेहूं के आटे को गाय के घी और गुड और दूध से गूंथ कर बनाया जाता है) और सर्वप्रथम पांडव देवता को चढ़ाया जाता है तदुपरांत लोग नए फसल के अन्न की शुरुआत करते हैं। जेठ के बाद फिर सावन के महीने पूजा होती है। इस पूजा में भी नई फसल के
अन्न चढ़ाए जाते हैं। वहां की स्थानीय भाषा में इसे नैनांन देना कहते हैं । नैनान का अर्थ है नया अन्न( नय+ अन्न) । इसके बाद चौथी पूजा आश्विन मास के नवरात्र के पांचवे दिन होती है। यह पूजा भी चैत्र मास के अनुसार नवरात्र से संबंधित है। तथा वर्ष की पांचवी पूजा पौष माह में होती है। इन सभी पूजा की तिथि भगवान पांडव देवता के आदेश के अनुसार ही होती है। यह आदेश पुजारी को सपने या अन्य किसी संकेत द्वारा होता है तदुपरांत पुजारी संपूर्ण गांव को पूजा की घोषणा करते हैं। इसके अतिरिक्त यहां मंदिर में गोदान का बड़ा महत्व है। जो भक्त यहां गोदान करता है भगवान पांडव देवता उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। सच्चे मन से किया गोदान बहुत ही फलदायक होता है। यह मंदिर अत्यंत रमणीक स्थान में स्थित है सरयू एवं रामगंगा नदी के बीच एक ऊंचा पर्वत पर सघन वन में स्थित है। पिथौरागढ़ जनपद मुख्यालय से इसकी दूरी 55 किलोमीटर है यहां पहुंच कर भक्तों पर नव चेतना का संचार होता है। और परम आध्यात्मिक शांति का अनुभव होता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तीसरे वर्ष लगने वाले जागर का भी बड़ा महत्व है। यह जागर सभी गांव के निवासियों द्वारा सामूहिक रूप में लगाया जाता है। संपूर्ण गांव मे सूतक पातक आदि सभी बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है। संपूर्ण गांव में पूर्ण शुद्ध होनी चाहिए। इसीलिए विगत कई वर्षों से पांडव मंदिर में जागर नहीं लगा है। संपूर्ण गांव बहुत बड़ा है और कई हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है जिनमें छोटे-छोटे लगभग 20-25 तोक है । जिनमें मुख्य रुप से तल्ली चहज मल्ली चहज खैलाडी कालतिर आटी कोलमण खेतगढ सतबुनिया मणकोली खोलना नानी छरपिया भुलाशिलिंग ड्यूल हाडाकोट टिलठैजर च्यूराणी मटखाणी विषद्यो और धूरा आदि है । 22 दिन के जागर के दौरान इन सभी गांव के लोगों को परिवार के हिसाब से 22 भागों में विभक्त किया जाता है। और प्रत्येक दिन प्रत्येक का दिए का पाला आता है। उस दिन उन परिवारों ने मिलकर जागरण में दिया जलाने की परंपरा है। दीया तिल को सिलबट्टे में पीसकर शुद्ध तिल के तेल का जलाया जाता है। शुद्ध तरीके से हर चीज का परहेज देखा जाता है। बहुत दूर-दूर से लोग यहां जागरण देखने मैं सम्मिलित होते हैं। इस पूरे गांव के परिवार के रिश्तेदार मेहमान लोग जहां जहां भी हो वह सभी लोग जागर में आमंत्रित किए जाते हैं। देवभूमि उत्तराखंड के लगभग सभी क्षेत्रों से लोग यहां पहुंचते हैं और भगवान पांडव देवता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

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