भूस्खलन का पूर्वानुमान लगाने के लिए आवश्यक परिष्कृत चेतावनी तंत्र का है अभाव

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भूस्खलन का पूर्वानुमान लगाने के लिए आवश्यक परिष्कृत चेतावनी तंत्र का अभाव है.
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
भूस्खलन एक प्राकृतिक घटना है जो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण चट्टानों, मिट्टी आदि के अपने स्थान से नीचे की ओर खिसकने के कारण घटित होती है.” नदियों द्वारा किए जाने वाले कटाव से चट्टानें और लगातार बारिश के कारण मिट्टी की परत कमजोर हो जाती है. इससे इन क्षेत्रों में भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है.ऐसी आपदाएं आमतौर पर मॉनसून के दौरान(जून से सितंबर के बीच) आती हैं. वनों के कटाव और बेतहाशा निर्माण कार्यों के कारण कमजोर पड़ी धरती की सतह अत्यधिक बारिश की वजह से और दुर्बल हो जाती है. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण यानी जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का अनुमान है कि भारत के करीब 15 प्रतिशत भूमि पर भूस्खलन का खतरा मंडराता रहता है.भारत में आपदा प्रबंधन के लिए बनी एक स्वायत्त संस्था राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने हिमालयीय राज्यों, उत्तर पूर्व के आराकान-योमा बेल्ट, मेघालय के पठार, पश्चिमी घाट और नीलगिरी पहाड़ियों को भूस्खलन के सर्वाधिक संभावित क्षेत्रों में रखा है.भूवैज्ञानिकों के मुताबिक हिमालयीय क्षेत्रों में, खासतौर से रमणीय प्राकृतिक छटा वाले क्षेत्रों में भूस्खलन की आशंका सबसे ज्यादा रहती है. हिमालय का निर्माण भारतीय औऱ यूरेशियाई प्लेटों की जोरदार टक्कर के कारण हुआ है. भारतीय प्लेट के उभार से चट्टानों पर लगातार भारी दबाव पड़ता है. इससे वे भुरभुरी और कमजोर हो जाती हैं और भूस्खलन व भूकंप की संभावना काफी बढ़ जाती है.खुरदरी सतह वाली पर्वतीय ढाल, भूकंप की प्रबल संभावनाओं वाला क्षेत्र और उस पर भारी बारिश, ये सारे कारक मिलकर हिमालयीय क्षेत्र में भूस्खलन के खतरे को बढ़ा देते हैं. एनडीएमए से जुड़े रहे भूवैज्ञानिक कहते हैं, हालिया मलिन दुर्घटना और उत्तराखंड में हुए भूस्खलन से तो यही बात सामने आती है कि पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष सतर्कता की जरूरत है. ये क्षेत्र पारिस्थितिक लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं. इसलिए यहां निर्माण कार्यों को प्रतिबंधित करना होगा और वनों की कटाई रोकनी होगी.” वैज्ञानिक के अनुसार ऐसे कोमल क्षेत्र में होने वाला सड़क निर्माण खासतौर से नुकसानदायक है क्योंकि इसके लिए चट्टानों को विस्फोट से उड़ाना पड़ता है जिससे चट्टानों और मिट्टी के बीच का संतुलन बिखर जाता है. भारत में भूस्खलन का पूर्वानुमान लगाने के लिए आवश्यक परिष्कृत चेतावनी तंत्र का अभाव है. इस वजह से उत्तराखंड में यह समस्या और जटिल हो जाती है. इंसानों की जान-माल की रक्षा के लिए उपयुक्त चेतावनी तंत्र की तत्काल आवश्यकता है. विशेषज्ञ कहते हैं कि भूस्खलन के लिए संवेदनशील माने जाने वाले देश के किसी भी हिस्से को ले लें, हर जगह जल निकासी के इंतजाम खस्ताहाल हैं. इससे जान-माल की क्षति का खतरा और बढ़ जाता है. भारत सरकार ने ऐसे क्षेत्रों की पहचान की है जहां बार-बार भूस्खलन होते हैं. उसका नक्शा खींचा गया है जिसे लैंडस्लाइड हजार्ड ज़ोनेशन का नाम दिया गया है. एनडीएमए, दुर्भाग्य से जिसका फिलहाल कोई मुखिया नहीं हैं, ने भी भूस्खलन और बर्फ की चट्टानों के खिसकने की घटनाओं के प्रबंधन से जुड़े विस्तृत दिशा-निर्देश बनाए हैं ताकि इन आपदाओं की विनाशक क्षमता को नियंत्रित किया किया जा सके. भूस्खलन के जोखिम को कम करने वाले उपायों को संस्थागत रूप देने की कोशिश हो रही है जिससे इन प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली क्षति को कम किया जा सके.इन दिशा-निर्देशों में सभी कार्यों को समयबद्ध तरीके से पूरा करने के लिए कई नियामक और गैर-नियामक रूपरेखाएं तय की गई हैं. इसमें कुछ उपायों को तो रोजाना तौर पर आजमाने की बात कही गई है. मसलन, तूफानी बारिश के पानी को ढलानों से दूर रखा जाए, नालियों की नियमित तौर पर सफाई करके उसमें से प्लास्टिक, वृक्षों के पत्ते और दूसरे कचरे निकाले जाएं. नागरिकों के लिए भी कुछ जरूरी सलाह जारी किए गए हैं- जैसे, गडढ़ों को खुला न रखें और छतों पर पानी जमा करने से बचें. विशेषज्ञों की राय है कि आसन्न भूस्खलन संकट के चेतावनी संकेतों के प्रति जागरूक और सतर्क समाज, इस चुनौती से निपटने में अहम योगदान कर सकता है. एनडीएमए की वेबसाइट पर बताया गया है कि पूर्व चेतावनी तंत्र वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञता पर आधारित होना चाहिए. उसमें सूचनाओं के प्रवाह व चेतावनी की सूचना मिलते ही त्वरित प्रभावी कार्रवाई की क्षमता होनी चाहिए. इनके अलावा ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण जिसकी जड़ें मिट्टी की पकड़ को मजबूत बनाती हैं, चट्टानों के गिरने के सर्वाधिक संभावित क्षेत्रों की पहचान और चट्टानों में आने वाली दरारों की निगरानी जैसे उपाय भी बड़े कारगर साबित होते हैं. चेतावनी के संकेत मौजूद होते हैं. बस उसे कम करने और उसके बेहतर प्रबंधन की जरूरत होती है जिसके लिए जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान, उनकी निगरानी और कुशल पूर्व चेतावनी तंत्र स्थापित करना होगा.”भूस्खलन के प्रबंधन के लिए सभी संबंधित पक्षों के बीच एक समन्वित और बहुआयामी नजरिए की जरूरत होती है जिसे चलाने के लिए आवश्यक जानकारी, कानूनी, संस्थागत व वित्तीय सहायता मुहैया कराकर बेहद कारगर बनाया जा सकता है. देश, दुनिया में बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक भूस्खलन से जहां हर साल हजारों इंसानों को अपनी जिंदगी बचानी पड़ती है। वहीं अरबों की संपत्ति का नुकसान होता है। उत्तराखंड में सरकार और शासन इसके प्रति गंभीर नजर नहीं आते। वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी जैसे वैज्ञानिक संस्थानों को भी भूस्खलन के कारणों के विस्तृत अध्ययन करने व रोकने को लेकर ठोस उपायों की सिफारिश देने के लिए नहीं लगाया गया है।सरकार और तमाम वैज्ञानिक संस्थान कितने संवेदनशील हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे उत्तराखंड में भूस्खलन पर निगरानी को लेकर कहीं भी अर्ली वार्निंग सिस्टम नहीं लगाए गए हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट की ओर से आपदा के लिहाज से संवेदनशील कुछ ग्लेशियरों की निगरानी को लेकर ही अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाए गए हैं।संस्थान के वैज्ञानिकों की ओर से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश समेत देश के हिमालयी राज्यों में भूस्खलन को लेकर समय-समय पर अध्ययन किए जा रहे हैं। हाल ही में वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने उत्तराखंड के नैनीताल और मसूरी जैसे इलाकों में भूस्खलन को लेकर विस्तृत अध्ययन किया है और जिसकी रिपोर्ट भी सरकार शासन को सौंपी गई। लेकिन ऐसी प्राकृतिक आपदाओं को लेकर अभी कुछ किया जाना बाकी है। ऑलवेदर रोड हर मौसम में भूस्खलन की वजह से आए दिन बाधित हो रही है। इससे इसकी गुणवत्ता पर भी सवाल उठने लगे हैं। सरकारी तंत्र भूस्खलन को लेकर संवेदनशील नहीं है। न सभी आशंकित जोनों की निगरानी हो रही और न ही किसी प्रकार का चेतावनी सिस्टम ही लगाया गया है। प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन जोन बढ़ते ही जा रहे हैं। इनसे, खासतौर पर मानसून के दिनों में यात्रा करना खतरे से खाली नहीं है। कब किस सड़क पर पहाड़ से गिरकर मलबा और बोल्डर आ जाए, कहा नहीं जा सकता है। प्रदेश में इस समय करीब 84 डेंजर जोन (भूस्खलन क्षेत्र) सक्रिय हैं।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय है.

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