खेती की जीवन पद्धति, संस्कृति एवं आजीविका
खेती की जीवन पद्धति, संस्कृति एवं आजीविका
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस के लिए इस वर्ष यानी 2021 की थीम तय की गयी है “स्वस्थ कल के लिए आज का सुरक्षित भोजनये थीम सुरक्षित भोजन के उत्पादन और उपभोग पर केंद्रित है. भोजन के सुरक्षित होने से लोगों, ग्रह और अर्थव्यवस्था को तत्काल रूप से और लम्बे समय तक फायदा होता है. हर वर्ष की तरह ही इस वर्ष भी विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस के दिन आयोजित होने वाले सभी कार्यक्रम तय की गयी थीम पर ही आधारित होंगे. लेकिन कोरोना महामारी के चलते ये कार्यक्रम वर्चुअली आयोजित किये जायेंगे. खाद्य सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करता है और इस दिन को मनाये जाने की घोषणा दिसंबर 2018 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा खाद्य और कृषि संगठन के सहयोग से की गयी थी.यह खाद्य जनित रोगों के संबंध में दुनिया पर पड़ने वाले बोझ को पहचानने के लिए था. विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं खाद्य और कृषि संगठन इस क्षेत्र से संबंधित अन्य संगठनों के सहयोग से विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस मनाने के लिए मिलकर काम करते हैं. विश्व स्वास्थ्य सभा ने दुनिया में खाद्य जनित बीमारियों के बोझ को कम करने के लिए खाद्य सुरक्षा की दिशा में प्रयासों को मजबूत करने का निर्णय लिया है. खाद्य सामग्री के उपभोग से पहले फसल का उत्पादन, भंडारण और वितरण तक खाद्य श्रृंखला का हर स्टेप पूरी तरह से सुरक्षित हो. इसी की वजह से खाद्य सुरक्षा दिवस का महत्व बढ़ जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दूषित खाद्य या बैक्टीरिया युक्त खाद्य से हर साल 10 में से एक व्यक्ति बीमार होता है. विश्व भर आबादी के अनुसार अगर देखा जाए तो यह आंकड़ा साठ करोड़ पार कर जाता है. दुनियाभर में विकसित और विकासशील देशों में हर वर्ष भोजन और जलजनित बीमारी से लगभग तीस लाख लोगों की मौत हो जाती है. उत्तराखंड सरकार ने राज्य की कृषि भूमि को लीज पर देने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। अब कोई भी व्यक्ति या संस्था उत्तराखंड में 30 सालों के लिए जमीन लीज पर ले सकता है। सरकार का कहना है कि इससे उत्तराखंड वासियों को बंजर या खाली पड़ी जमीन से भी आमदनी होगी और उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को फायदा होगा, लेकिन क्या ऐसा होगा?जानेमाने कृषि विशेषज्ञ कहते हैं कि अब तक उत्तराखंड में बटाई पर तो खेती की जमीन देते थे, लेकिन उद्योगपतियों को जमीन लीज पर देने का मतलब किसान अपनी ही जमीन का श्रमिक बन जाएगा। उत्तराखंड ऐसा पहला राज्य है, जो इस तरह का कदम उठा रहा है। देविंदर कहते हैं कि उत्तराखंड धीरे-धीरे कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग (ठेके पर खेती) की ओर बढ़ रहा है। लेकिन अब तक के ज्यादातर अध्ययन से पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग बहुत उपयोगी साबित नहीं हुई है।उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भू-सुधार कानून-1950 में संशोधन के बाद यह व्यवस्था अब लागू हो गई है। इसके तहत किसान अधिकतम 30 एकड़ तक ज़मीन खेती, हॉर्टीकल्चर, जड़ी-बूटी उत्पादन, पॉलीहाउस, दुग्ध उत्पादन और सौर ऊर्जा के लिए किसी व्यक्ति, कंपनी या गैर-सरकारी संस्था को 30 वर्ष के लिए लीज पर दे सकता है। इसके बदले उसे किराया मिलेगा। जिलाधिकारी के मार्फत ये कार्य किया जा सकेगा।पर्यावरणविद कहते हैं कि ये लोगों की गलती है, जिस जमीन पर हमारे पुरखों के फुटप्रिंट्स दर्ज हैं, वो लीज़ पर दी जा सकेगी। हमने अपने खेतों को बंजर छोड़ा। अगर खेती नहीं कर रहे थे तो पेड़ ही लगा देते। जंगली कहते हैं कि जिस ज़मीन को बंजर छोड़ हमारे लोग दिल्ली-मुंबई कूच कर गए हैं, महानगरों में बढ़ता प्रदूषण एक बार फिर उन्हें अपने पहाड़ों की ओर लौटने को विवश करेगा। आज से दो पीढ़ी पहले तक यही खेत अन्न के भंडार थे। जिन पर कई पीढ़ियां निर्भर रहीं। जलवायु परिवर्तन ने भी पहाड़ की खेती को प्रभावित किया। समय से बारिश न होना, अत्यधिक बारिश होना, जैसी अप्रत्याशित घटनाओं के चलते भी लोगों ने खेती छोड़ी। आज जंगली जानवर हमारे खेतों में घुस गया है।टिहरी के किसान कहते हैं कि यह कदम पहाड़ के हित में नहीं है। सरकार लोगों को खेती के लिए प्रशिक्षित नहीं कर सकी। जब वे पलायन कर रहे थे और उन्हें इकट्ठा करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल-फूलों में भी। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध संसार है। यह फल कभी मुसाफिरों और चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक जीवन का हिस्सा बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है।उत्तराखंड में जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं। बेडू, तिमला, मेलू (मेहल), काफल, अमेस, दाड़िम, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। उत्तराखंड आए और काफल (मिरिका एस्कुलेंटा) का स्वाद नहीं लिया तो समझिए यात्रा अधूरी रह गई। समुद्रतल से 1300 से 2100 मीटर की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के जंगलों में अपने आप उगने वाला काफल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण हमारे शरीर के लिए बेहद लाभकारी है। इसका छोटा-सा गुठलीयुक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है और पकने पर बेहद लाल हो जाता है। तभी इसे खाया जाता है। इसका खट्ठा-मीठा स्वाद मनभावन और उदर-विकारों में अत्यंत लाभकारी होता है। काफल अनेक औषधीय गुणों से भरपूर है। इसकी छाल का उपयोग जहां चर्मशोधन (टैनिंग) में किया जाता है, वहीं इसे भूख और मधुमेह की अचूक दवा भी माना गया है। फलों में एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होने के कारण कैंसर व स्ट्रोक के होने की आशंका भी कम हो जाती है। काफल ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता। यही वजह है उत्तराखंड के अन्य फल जहां आसानी से दूसरे राज्यों में भेजे जाते हैं, वहीं काफल खाने के लिए लोगों को देवभूमि ही आना पड़ता है। काफल के पेड़ काफी बड़े और ठंडे छायादार स्थानों में होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मजबूत अर्थतंत्र दे सकने की क्षमता रखने वाले काफल को आयुर्वेद में ‘कायफल’ नाम से जाना जाता है। इसकी छाल में मायरीसीटीन, माइरीसीट्रिन व ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। इसके फलों में पाए जाने वाले फाइटोकेमिकल पॉलीफेनोल सूजन कम करने सहित जीवाणु एवं विषाणुरोधी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं।किनगोड़ की झाड़ियां पहाड़ में जंगलों और रास्तों के किनारे बहुतायत में दिख जाती हैं। समुद्रतल से 1200 से 2500 मीटर तक की ऊंचाई पर पाए जाने वाले किनगोड़ का वैज्ञानिक नाम बरबरीस एरिसटाटा है। आयुर्वेद में इसेदारुहल्दी के नाम से जाना जाता है और विभिन्न बीमारियों के निदान में इसका उपयोग होता है। विश्वभर में इसकी 656 और उत्तराखंड में लगभग 22 प्रजातियां पाई जाती हैं। पारंपरिक रूप से किनगोड़ त्वचा रोग, अतिसार, जॉन्डिस, आंखों के संक्रमण, मधुमेह समेत अन्य कई बीमारियों के निदान में लाभकारी पाया जाता है। पोषक तत्वों और मिनरल्स की बात करें तो इसमें प्रोटीन 3.3 प्रतिशत, फाइबर 3.12 प्रतिशत, कॉर्बोहाइडे्रट्स 17.39 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, विटामिन-सी 6.9 मिग्रा प्रति सौ ग्राम व मैग्नीशयम 8.4 मिग्रा प्रति सौ ग्राम पाया जाता है। आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में किनगोड़ का इतना महत्व है कि इसके एक ही पेड़ से न जाने कितने तत्व निकाल लिए जाते हैं। इसके फल में विटामिन-सी प्रचुर मात्रा में मिलता है, जो त्वचा और मूत्र संबंधी समस्याओं में अत्यंत लाभकारी है। स्वाद के मामले में इस फल का कोई जवाब नहीं है। इसलिए बच्चे इसे बड़े चाव से खाते हैं।हिमालयी क्षेत्र में समुद्रतल से 750 से 1800 मीटर तक की ऊंचाई पर बहुतायत में पाया जाने वाला हिंसर (यलो रसबेरी या हिमालयन रसबेरी) बेहद जायकेदार फल है। यह भी जंगलों और पहाड़ी रास्तों पर अपने आप उगता है। हिंसर का वैज्ञानिक नाम रूबस इलिप्टिकस है, जो रोसेसी कुल का पौधा है। हिंसर में अच्छे औषधीय अवयवों के पाए जाने के कारण इसे विभिन्न रोगों के निवारण में परंपरागत औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक हिंसर के संपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण और परीक्षण के उपरांत ही इसे एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी ट्यूमर और घाव भरने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। अच्छी फार्माकोलॉजी एक्टिविटी के साथ-साथ हिंसर में पोषक तत्व, जैसे कॉर्बोहाइड्र्रेट, सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, आयरन, जिंक और एसकारविक एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें विटामिन सी 32 प्रतिशत, मैगनीज 32 प्रतिशत, फाइबर 26 प्रतिशत और शुगर की मात्रा चार प्रतिशत तक आंकी गई है। इसके अलावा हिंसर का उपयोग जैम, जेली, विनेगर, वाइन, चटनी आदि बनाने में भी किया जा रहा है। यह मैलिक एसिड, सिटरिक एसिड, टाइट्रिक एसिड का भी अच्छा स्रोत है। यही वजह है कि धीरे-धीरे इसके फलों से बाजार भी परिचित होने लगा है।मध्य हिमालय में समुद्रतल से 800 से 2000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाने वाला तिमला, एक ऐसा फल है, जिसे स्थानीय लोग, पर्यटक व चरवाहा बड़े चाव से खाते हैं। तिमला, जो पौष्टिक एवं औषधीय गुणों का भंडार है। मोरेसी कुल के इस पौधे का वैज्ञानिक नाम फिकस ऑरिकुलेटा है। तिमले का न तो उत्पादन किया जाता है और न खेती ही। यह एग्रो फॉरेस्ट्री के अंतर्गत स्वयं ही खेतों की मेंड पर उग जाता है। तिमला न केवल पौष्टिक एवं औषधीय महत्व का फल है, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों की पारिस्थितिकी में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। पारंपरिक रूप में तिमले को कई शारीरिक विकारों, जैसे अतिसार, घाव भरने, हैजा व पीलिया जैसी गंभीर बीमारियों की रोकथाम में प्रयोग किया जाता है। कई अध्ययनों के अनुसार तिमला का फल खाने से कई सारी बीमारियों के निवारण के साथ-साथ आवश्यक पोषक तत्वों की भी पूर्ति भी हो जाती है। इंटरनेशनल जर्नल फार्मास्युटिकल साइंस रिव्यू रिसर्च के अनुसार तिमला व्यावसायिक रूप से उत्पादित सेब और आम से भी बेहतर गुणवत्ता वाला फल है। पकाहुआ फल ग्लूकोज, फ्रुक्टोज व सुक्रोज का भी बेहतर स्रोत माना गया है, जिसमें वसा व कोलस्ट्रोल नहीं होता। इसमें अन्य फलों की अपेक्षा काफी मात्रा में फाइबर और फल के वजन के अनुपात में 50 प्रतिशत तक ग्लूकोज पाया जाता है। वर्तमान में तिमले का उपयोग सब्जी, जैम, जैली और फॉर्मास्युटिकल, न्यूट्रास्युटिकल व बेकरी उद्योग में बहुतायत हो रहा है। प्रसिद्ध उत्तराखंडी लोकगीत ‘बेडु पाको बारामासा’ सुनते ही जीभ में बेडु (वाइल्ड फिग) के मीठे रसीले फलों का स्वाद घुल जाता है। बारामासा यानी बारह महीनों पाया जाने वाला। यह स्वादिष्ट जंगली फल उत्तरी-पश्चिमी हिमालय में निम्न से मध्यम ऊंचाई तक पाया जाता है। कई राज्यों में इसे सब्जी व औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। वैसे तो बेडु का संपूर्ण पौधा ही उपयोगी है, लेकिन इसकी छाल, जड़, पत्तियां, फल व चोप औषधीय गुणों से भरपूर हैं। पारंपरिक रूप से इसे उदर रोग, हाइपोग्लेसीमिया, टयूमर, अल्सर, मधुमेह व फंगस संक्रमण के निवारण के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। आयुर्वेद में बेडु के फल का गूदा कब्ज, फेफड़ों के विकार व मूत्राशय रोग विकार के निवारण में प्रयुक्त किया जाता है। जहां तक बेडु के फल की पौष्टिक गुणवत्ता का सवाल है तो इसमें प्रोटीन 4.06 प्रतिशत, फाइबर 17.65 प्रतिशत, वसा 4.71 प्रतिशत, कॉर्बोहाइड्रेट 20.78 प्रतिशत, सोडियम 0.75 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, कैल्शियम 105.4 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, पोटेशियम 1.58 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, फॉस्फोरस 1.88 मिग्रा प्रति सौ ग्राम और सर्वाधिक ऑर्गेनिक मैटर 95.90 प्रतिशत तक पाए जाते हैं। बेडु के पके हुए फल में 45.2 प्रतिशत जूस, 80.5 प्रतिशत नमी, 12.1 प्रतिशत घुलनशील तत्व व लगभग छह प्रतिशत शुगर पाया जाता है।आड़ू और बेडू के साथ पहाड़ में घिंघारू (टीगस नूलाटा) की झाडिय़ां भी छोटे-छोटे लाल रंग के फलों से लकदक हो जाती हैं। मध्य हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में समुद्रतल से 3000 से 6500 फीट की ऊंचाई पर उगने वाला घिंघारू रोजैसी कुल का बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है। बच्चे इसके फलों को बड़े चाव से खाते हैं और अब तो रक्तवर्द्धक औषधि के रूप में इसका जूस भी तैयार किया जाने लगा है। विदेशों में इसकी पत्तियों को हर्बल चाय बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में पाया जाने वाला उपेक्षित घिंघारू हृदय को स्वस्थ रखने में सक्षम है। घिंघारू के फलों में उक्त रक्तचाप और हाइपरटेंशन जैसी बीमारी को दूर करने की क्षमता है। जबकि, इसकी पत्तियों से निर्मित पदार्थ त्वचा को जलने से बचाता है। इसे एंटी सनबर्न कहा जाता है। साथ ही पत्तियां कई एंटी ऑक्सीडेंट सौंदर्य प्रसाधन और कॉस्मेटिक्स बनाने के उपयोग में भी लाई जाती है। घिंघारू की छाल का काढ़ा स्त्री रोगों के निवारण में लाभदायी होता है। छोटी झाड़ी होने के बावजूद घिंघारू की लकड़ी की लाठियां व हॉकी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।हिमालय क्षेत्रों में समुद्रतल से एक हजार से 3000 मीटर तक की ऊंचाई पर पाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण फल है भमोरा। कॉरनेसेई कुल के इस पौधे का वैज्ञानिक नाम कॉर्नस कैपिटाटा है। वैसे तो भमोरे का फल विरले ही खाने को मिलता है, परंतु चरावाहे आज भी जंगलों में इसे बड़े चाव से खाते हैं। सितंबर से नवंबर के मध्य पकने के बाद भमोरे का फल स्ट्रॉबेरी की तरह लाल हो जाता है, इसलिए इसे हिमालयन स्ट्राबेरी भी कहते हैं। पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ यह बेहद स्वादिष्ट भी होता है। वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय जनरल ऑफ फार्मटेक रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भमोरा में मधुनाशी गुण भी पाए जाते हैं। इसके फल में एक महत्वपूर्ण अवयव एन्थोसाइनिन अन्य फलों की तुलना में दस से 15 गुणा ज्यादा पाया जाता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों में यह भी बताया गया कि भमोरा में मौजूद टेनिन को कुनैन के विकल्प के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। भमोरे के फल में पौष्टिक गुणवत्ता की बात करें तो इसमें प्रोटीन 2.58 प्रतिशत, फाइबर 10.43 प्रतिशत, वसा 2.50 प्रतिशत, पोटेशियम 0.46 मिग्रा और फॉस्फोरस 0.07 मिग्रा प्रति सौ ग्राम तक पाया जाता है। भूखों को भोजन मिले यह निःसंदेह अच्छा काम है। किंतु भूख कैसे पैदा हो रही है और अन्नदाता स्वयं भुखमरी की ओर क्यों बढ़ रहा है इसका समाधान ढूंढा जाना बहुत जरुरी है। खेती के बिना खाद्य सुरक्षा कैसे होगी? सभी तरह के अनाज खेतों से किसानों की मेहनत से ही आते हैं किसी कारखाने से नहीं। किंतु लगता है सरकार के लिए अन्नदाता किसान नहीं बल्कि वे बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, जो भारतीय किसान की जड़ काटने में लगी हैं। ये कंपनियां अब विदेशों में हर वर्ष डम्प पड़ने वाले घटिया गेहूं-चावल को भारत सरकार को अच्छे दामों से बेचेगी, फिर पीडीएस के मार्फत यही अनाज गरीबों तक पहुंचेगा। इसका सबसे बुरा असर छोटे एवं सीमांत किसानों पर तो पड़ेगा ही किंतु बड़ा किसान भी इसकी मार झेलेगा।पहली हरित क्रांति एवं गलत कृषि नीति ने किसानों की जीवन पद्धति व संस्कृति को उजाड़ कर कृषि को व्यापार बनाकर उसे घाटे का सौदा बना दिया। विविधता युक्त खेती एकल नगदी फसल में बदल दी गई। बिना लागत की खेती भारी लागत आधारित हुई। पहले किसान कर्जदार नहीं थे किंतु आज हर एक किसान कर्ज के जाल में फंसा है। किसानों के घरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीज, रासायनिक खादें, कीटनाशक जहर सहित अनेक उपकरण हैं किंतु अन्न का दाना नहीं है। ऊपर से बैंक और साहूकारों का कर्ज और साथ में उगाही का उत्पीड़न। इसी निराशा से दुखी किसान अब तक आत्महत्या कर चुके हैं। यही कारण है कि किसान के बेटा-बेटी अब किसान नहीं बनना चाहते। एक अनुमान के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक किसान खेती छोड़कर बेरोजगारी की तरफ बढ़ना चाहते हैं। सरकार किसानों को पारम्परिक जीवन पद्धति, संस्कृति और विविधतापूर्ण खेती की ओर लौटने में मदद करने के बजाए उनसे अप्रत्यक्ष रूप से खेती छीनने के प्रयास कर रही है।
खाद्य सुरक्षा में सिर्फ गेहूं-चावल की व्यवस्था करने का मतलब है बहुमूल्य, स्वाभिमानी, स्वावलम्बी एवं पोषणकारी जैव विविधता पर अप्रत्यक्ष हमला। देश के कुल कृषि क्षेत्र का दो तिहाई के लगभग असिंचित है, जिससे 44 प्रतिशत खाद्यान्न, 75 प्रतिशत दालें व 90 प्रतिशत कथित मोटा अनाज मिलता है। 50 प्रतिशत श्रमिकों को रोजगार एवं 60 प्रतिशत मवेशियों का चारा भी इसी असिंचित क्षेत्र से आता है। असिंचित खेती में मुख्यतः मंडुआ (रागी), ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी एवं चीना आदि सहित विविधता युक्त दलहन, तिलहन व साग भाजी मिश्रित फसलें उगाई जाती हैं। ये अनाज ग्रामीण मेहनतकश लोगों के भोजन का मुख्य हिस्सा हैं और उनकी खान-पान की संस्कृति में रचे बसे हैं। इसलिए वैज्ञानिक एवं सरकारी भाषा में इन्हें उपेक्षित भाव से मोटे अनाज कहा जाता है। जबकि पौष्टिकता की दृष्टि से ये गेहूं-चावल से कई गुना ज्यादा हैं। अंग्रेजी में इन्हें मिलेट कहते हैं। अब इनके महत्व को देखते हुए डॉक्टर व आहार विशेषज्ञ आरोग्य व पोषण की दृष्टि से लोगों को मिलेट खाने की सलाह देते हैं। इनसे बहुराष्ट्रीय निगमों का बीज, खाद एवं कीटनाशक उद्योग नहीं चलता इसलिए इन्हें हतोत्साहित करने की योजनाएं बनाई जाती हैं। सन् 1956-61 में गेहूं की खेती 12.84 मिलियन हेक्टेयर में और मोटे यानि पौष्टिक अनाज 36.02 मिलियन हेक्टेयर में की जाती थी। 2001-20 आते-आते गेहूं का क्षेत्र बढ़कर 26.02 मिलियन हेक्टेयर हो गया और पौष्टिक अनाज का क्षेत्र घटकर 21.31 मिलियन हेक्टेयर रह गया।
सरकार पीडीएस एवं अपने बफर स्टाक में सिर्फ गेहूं-चावल रखकर खाद्यसुरक्षा मानकर बड़ी गलती कर रही है। जबकि कई आदिवासी बाहुल्य इलाकों में आज भी गेहूँ नहीं खाया जाता। रागी, ज्वार, बाजरा एवं सांवर आदि के बिना खाद्यसुरक्षा अधूरी है। दरअसल ये विविधता युक्त फसलें उन बहुराष्ट्रीय निगमों के कब्जे में नहीं हैं, जो पहले भूख पैदा कर रहे हैं और पीछे से भोजन परोसने की वकालत करते हैं। सरकार भी इन पौष्टिक अनाजों को खाद्यान्न के बजाए शराब बनाने के लिए कच्चा माल मानकर अमीरों की मौज-मस्ती की पूर्ति कर रही है। खाद्य सुरक्षा कानून खाद्यान्न असुरक्षा पैदा न करे इसके लिए जरुरी है कि किसानों और खेती की बदहाली के लिए जिम्मेदार कृषि नीति में बदलाव लाया जाए। पीडीएस में गेहूं-चावल के अलावा पौष्टिक अनाजों एवं दलहन तिलहन को शामिल किया जाना चाहिए। ग्रामीण भारत सिर्फ पीडीएस के सहारे नहीं है अपितु ग्रामीणों की खाद्य व्यवस्था के मूल आधार विविधता युक्त फसलें, जल, जंगल एवं जमीन हैं। जंगलों से बारहमासी कुछ न कुछ कंदमूल, फल एवं साग-भाजी मिलती है तो नदियों एवं समुद्र किनारे रहने वाले लोगों की जीविका का आधार मछलियां हैं लेकिन आज इन संसाधनों पर विकास की मार पड़ने से लोगों की आजीविका खतरे में है। जिस उपजाऊ जमीन पर फसलें उगती थीं, वहां बड़े-बड़े प्रदूषणकारी उद्योग, कॉलोनियां, सेज एवं माल्स के कांक्रीट से बने जंगल उगाने की योजनाओं को विकास माना जा रहा है। जलवायु परिवर्तन एवं जंगली जानवरों की मार अलग से है। खेती की जीवन पद्धति, संस्कृति एवं आजीविका को छीनकर सिर्फ कमाई का धंधा बनाना और खेती पर कंपनियों की दखल से खाद्य सुरक्षा को बड़ा खतरा है। खेतों से भूख शांत करने वाली फसलें उगाने के बजाए एकल नगदी फसलें, उद्योगों के लिए कच्चा माल व अमीरों की गाड़ियां चलाने के लिए निर्मित सड़कें एवं जेट्रोफा जैसी फसलें उगाना खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.