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राज्य सरकार ने वन डिस्ट्रिक, वन प्रोडक्ट के तहत मुनस्यारी के राजमा को प्रस्तावित किया है। उत्तराखण्ड में पाई जाने वाली ढेरों वनस्पतियों में से ज्यादातर औषधीय गुणों से युक्त हैं। बीते समय में इनमें से कई का इस्तेमाल कई बीमारियों के इलाज के लिए या उनसे बचने के लिए भी होता हैं। पुरातन काल से ही ऋषि मुनियों एवं पूर्वजों द्वारा पौष्टिक तथा रोगों के इलाज के लिए विभिन्न प्रकार के जंगली पौधों का उपयोग किया जाता रहा है। राजमा, किडनी बीन्स, उष्ण कटिबंधीय अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका के भागों में यह एक महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। इसे उष्ण कटिबंधीय भारत तथा एशिया के अन्य देशों में भी उगाया जाता है। भारत में इसे उत्तराखण्ड के पर्वतीय भागों, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक के कुछ भाग तथा तमिलनाडु व आन्ध्रप्रदेश में उगाया जाता है। इसके सूखे दानों को दाल के रूप में तथा तल कर खाया जाता है। हरी फलियों को सब्जी के रूप में खाया जाता है। इसमें प्रोटीन की मात्रा 21 प्रतिशत होती है।राजमा का कुल नाम लैगुमिनोसी तथा उपकुल पेपिलियोनेसी है। इसके पौधे सहारे से चढ़ने वाले बेल तथा झाड़ीनुमा होते है। जिसमें अच्छी तरह विकसित मूसला जड़ होती है। पुष्पक्रम एक कक्षीय.असीमाक्ष होता है, जिसमें अनेक पुष्प होते है। बीज का आकार अधिकतर आयताकार या गुर्दे के आकार का होता है। अंकुरण ऊपरिभूमिक होता है। वैज्ञानिक नाम फैजियोलस बल्गेरिस प्रचलित नाम फ्रेन्चबीन हिन्दी भाषा का नाम राजमा उगाने के मौसम रबी मैदानी क्षेत्र तथा खरीफ पहाड़ी क्षेत्र।
उत्पत्ति राजमा की उत्पति अमेरिका में हुई है। उत्तराखंड राजमा की सौ से अधिक किस्मों का घर है, जो सीमांत किसानों द्वारा नकदी फसल के रूप में राज्य भर में बड़े पैमाने पर उगाया जाता है। किसी भी रासायनिक या कीटनाशक से मुक्त, मुनस्यारी राजमा का नाम मुनस्यारी से लिया गया है। जोहार घाटी के प्रवेश द्वार पर स्थित 7,200 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। विटामिन और अन्य खनिजों से भरपूर, मुनस्यारी राजमा प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्रोत है। अपने अद्वितीय और सूक्ष्म स्वाद, उच्च फाइबर सामग्री और रंग के कारण, यह राजमा सभी उम्र में पसंदीदा है। देशभर में प्रसिद्ध जौनसार बावर के राजमा भी खत्म होने की कगार पर है। मौसम में आए बदलाव और इसके रोगों की चपेट में आने से इसका उत्पादन घट रहा है। पहाड़ में किसान फसलों के उत्पादन के लिए बारिश पर निर्भर है। समय पर बारिश न होने और इसमें फूल आते ही रोग लगने से कुछ किसानों ने फसल से मुंह फेर लिया है। राजमा की फसल जिस समय तैयार होती है उस समय बारिश की आवश्यकता नहीं होती है।इस वर्ष अक्टूबर माह के शुरूआती दिनों तक क्षेत्र में भारी बारिश का सीधा असर राजमा की फसल पर पड़ा है। जिस कारण 50 फीसद से अधिक फसल बर्बाद हो चुकी है। राजमा की फसल सितंबर अंत से लेकर मध्य अक्टूबर तक पक कर तैयार होती है। इस अवधि में अधिक बारिश की आवश्यकता नहीं रहती है। फसल तैयार होने के लिए धूप की आवश्यकता होती है। इस वर्ष सितंबर अंतिम दिन में क्षेत्र में प्रतिदिन भारी बारिश होती रही जिसके चलते राजमा की फली नष्ट हो गई।राजमा उत्पादन प्रभावित होने से बौना गांव बुरी तरह प्रभावित है। राजमा के लिए काफी अधिक मेहनत करनी पड़ती है। किसान बोने से लेकर फसल तैयार होने तक मेहनत करते हैं परंतु इस वर्ष मौसम ने मेहनत पर पानी फेर दिया है। हालत यह है कि ग्रामीणों के सम्मुख मांग पूरी करना मुश्किल हो चुका है। वर्ष सीमांत में देर तक भारी बारिश का दौर राजमा उत्पादकों के लिए भारी पडे़ हैं। अधिक बारिश राजमा के लिए सदैव हानिकारक रही है। इस वर्ष तो बारिश देर तक जारी रही। जिसका प्रभाव राजमा की फसल पर पड़ा है। सरकार को राजमा उत्पादन पर हुए प्रभाव का आंकलन कर राजमा उत्पादकों को मुआवजा देना चाहिए।इधर अब मुनस्यारी के राजमा को जियोग्राफिकल इंडेकेशन यानी जीआइ टैग मिलने से राजमा के उत्पादन से लेकर गुणवत्ता तक में अधिक सुधार आने के लिए आसार बन चुके हैं।सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले गांव क्वीरी, जीमियां, साईपोलू, ल्वां, बोना, तोमिक, गोल्फा, नामिक, बुई, पातों, निर्तोली, झापुली सहित उच्च हिमालयी आदि गांवों में पैदा होने वाली राजमा को मुनस्यारी के राजमा नाम से जाना जाता है।अपने स्वाद के चलते विशेष पहचान रखती है।मैदानी क्षेत्रों में पैदा होने वाली राजमा से आकार में कुछ बड़ी सीमांत की राजमा पूरी तरह जैविक तरीके से उत्पादित की जाती है।इसके उत्पादन में किसी तरह की रासायनिक खाद का उपयोग नहीं होता है। अब मुनस्यारी की राजमा को जियोग्राफिकल इंडेकेशन यानी जीआइ टैग मिल गया है। इसके बाद मुनस्यारी की राजमा की धाक और बढ़ गयी है। जीआई टैग उन उत्पादों को मिलता है जो विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में पैदा होती हैं।सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले मुनस्यारी के गांवों में यह राजमा पैदा होती है। अपने स्वाद के लिए विशेष पहचान रखती है। इसका उत्पादन जैविक तरीके से किया जाता है। यह पौष्टिक गुणों से भरपूर है। इन्हीं गुणों के चलते पूरे उत्तर भारत में इसकी मांग है, हालांकि मांग की तुलना में उत्पादन सीमित है। यही वजह है कि यह हल्द्वानी के बाजार तक ही पहुंच पाती है।राजमा, जीआई टैगिंग से बढ़ेगी वैल्यू।
उत्तराखंड में देहरादून जिले के चकराता, उत्तरकाशी के हर्षिल और पिथौरागढ़ के मुनस्यारी की राजमा देश भर में प्रसिद्ध है। इसकी कुकिंग क्वालिटी और टेस्ट इतना बढ़िया है कि देश के कई राज्यों में इसकी मांग है। जौनसार बावर के लाखामंडल, चकराता, त्यूनी, कथियान, दारागाड़, सावड़ा, लोखंडी और कोटी कनासर की राजमा की खुशबू और स्वाद तो कुछ अलग ही है। मुन्स्यारी की राजमा को जीआई टैग मिलतै एक ब्रांड वैल्यू बनेगी है।। ऊचाई पर बसे मुनस्यारी के ग्राम जलथ,कविरिजिमि,साई पौलु,बुई पातो ओर सबसे अधिक उच्चाई वाले गांव बोना की राजमा सबसे ज्यादा स्वादिष्ट बतायी जाती है किसान ने बताया कि यहां राजमा कि लगभग 60/65 किस्में उगाई जाती है। राजमा की प्रमुख किस्में में लाल,चित्रा, सफेद, पीला, काला,दूधिया सफेद चित्रा के विभिन्न रंग व आकर के दाने व किस्में होती है इसे राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय बाजार मिलेगा। इससे जुडे़ लोगों की आमदनी बढ़ेगी। इससे क्षेत्र की विशेष पहचान जिस क्षेत्र के प्रोडक्ट को जीआई टैग मिले वहां पर्यटन बढ़ेगा। मुनस्यारी आर्थिक दृष्टिकोण से सम्पन्न तहसील में गिना जाता है। शादी, विवाह हो या फिर कोई अन्य कार्यक्रम सभी में मुनस्यारी की राजमा की मांग रहती है। सात हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले गांव क्वीरी, जीमियां, साईपोलू, ल्वां, बोना, तोमिक, गोल्फा, नामिक, बुई, पातों, निर्तोली, झापुली सहित उच्च हिमालयी आदि गांवों में पैदा होने वाली राजमा को मुनस्यारी के राजमा नाम से जाना जाता है।अपने स्वाद के चलते विशेष पहचान रखती है।मैदानी क्षेत्रों में पैदा होने वाली राजमा से आकार में कुछ बड़ी सीमांत की राजमा पूरी तरह जैविक तरीके से उत्पादित की जाती है।इसके उत्पादन में किसी तरह की रासायनिक खाद का उपयोग नहीं होता है। डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।

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