सुर सम्राट हीरा सिंह राणा लोकप्रियता के नए आयाम
सुर सम्राट हीरा सिंह राणा लोकप्रियता के नए आयाम
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हीरा सिंह राणा जी का जन्म 16 सितंबर 1942 को उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल के ग्राम-मानिला डंढ़ोली, जिला अल्मोड़ा में हुआ.उनकी माताजी का नाम नारंगी देवी और पिताजी का नाम मोहन सिंह राणा था.अल्मोड़े के मानिला गाँव में.रोजी-रोटी के लिए 1958-59 में दिल्ली चले आए थे. पाँच रुपया महीने पर एक कपड़े की दुकान पर काम करने लगे. उस दौर में उत्तराखण्ड के गम्भीर सांस्कृतिक अध्येता जैसे डॉ. नारायण दत्त पालीवाल, डॉ. गोविंद चातक का प्रोत्साहन पूर्ण सान्निध्य प्राप्त हुआ.देखते ही देखते अपनी अद्भुत लोकगायकी की कला से एक लोकप्रिय कुमाऊंनी कलाकर के रूप में प्रसिद्ध हो गए. कोई भी पर्वतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम तब तक सफल नहीं माना जाता था जब तक सुर सम्राट हीरा सिंह राणा की उपस्थिति न हो. गीत-संगीत कला से अपने समाज के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था हीरा सिंह राणा ने वह सब संजीदगी और समर्पितभाव से किया दिल्ली में रहते हुए भी उन्होंने अपने गीत-संगीत को फिल्मी ग्लैमर से बचाए रखा. वे विशुद्ध पहाड़ी थे उनकी गीत संगीत की कला में भी पहाड़ की आत्मा रची बसी थी.हीरा सिंह राणा जी ने कुमाउनी संगीत को लोकप्रिय बनाने और उसे गम्भीर साहित्यिक स्वर देने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. उन्होंने ऐसे गाने बनाए जो हृदय की गहराइयों को छूने वाले होते हैं. उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति हो या तीज त्योहार, देशभक्ति हो या जन-जन की सामाजिक पीड़ा,संघर्षों और पहाड़ की विभीषिकाओं को झेलती नारी की व्यथा कथा, पर्वतीय जन जीवन के हर पहलू पर हीरा सिंह राणा ने अपनी लेखनी चलाई और जन मानस की भावनाओं को बहुत ही गहराई से छूआ है.लोक गायक हीरा सिंह राणा जी के एमपी 3 में गाए कुछ सदाबहार बेमिसाल गाने जो आज भी हर दिल को छू जाते हैं, उनमें ‘मेरी मानिल डानी’, ‘आ ली ली बाकरी’ ‘नोली पराणा’ आदि गीत उल्लेखनीय हैं. दिल्ली में हमारी संस्था ‘पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल’, नेहरू विहार में होली आदि सांस्कृतिक पर्वों पर हीरा सिंह राणा जी के गीतों को सामूहिक रूप से जब तक नहीं गाया जाता तब तक लोकसंगीत का यह कार्यक्रम अधूरा ही माना जाता था. पर्वतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का जहां कहीं आयोजन होता है हीरा सिंह राणा जी के “म्यरि मानिलै डानी मैं त्येरि बलाई ल्योंला.” गीत को बहुत आत्मीयता और तन्मयता से गाया जाता है.इस गीत की शब्द लहरियों में मानो देवभूमि पहाड़ का आध्यात्मिक सौंदर्य आंखों के सामने झूमने सा लगता है. जब भी देश-प्रदेश में राणा जी के गीतों को सामूहिक रूप से गाया या सुना जाता है, जन्मभूमि पहाड़ की आत्मीयता और अस्मिता, उसका नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य और मानवीय मूल्यों के नैतिक आदर्श एक साथ हिलोरें मारने लगते हैं. इसलिए पहाड़ की लोक संस्कृति का यदि मूल्यांकन किया जाए तो हीरा सिंह राणा महज एक लोकगायक ही नहीं बल्कि युग चेतना के मर्मस्पर्शी चितेरे कलाकार के रूप में भी जाने जाते रहेंगे.हीरा सिंह राणा के गीतों में पर्वतीय जनमानस के सरोकार बहुत संजीदगी से अभिव्यक्त हुए हैं. उत्तराखंड राज्य का गठन जिन खुशहाली के सपनों को पूरा करने के लिए किया गया था वे सपने अब तक अधूरे ही रहे हैं. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां पलायन सबसे ज्यादा हुआ है.उसका एक मुख्य कारण है राज्य सरकारों द्वारा जल, जमीन से जुड़े कृषि के संसाधनों के प्रति घोर उपेक्षा भाव रखना. लोक कवि हीरासिंह राणा ने पहाड़ के पलायन की इस जनपीड़ा को भली भांति समझा और अपने गीतों में बयां करते हुए कहा है-
“कैकणी सुणानू पहाड़ै डाड़,
काट्यी ग्यीं जंगल सुकिगे गाड़.
सब्ब ज्वान नान् यां बटि न्है गई टाड़..
क्वे सुणों पहाड़कि दुःखों कहाणी,
जै शिव शंकर जै हो भवानी॥”
प्रारम्भ से ही हिरदा की कविताओं में जहां एक ओर प्रकृति की गोद में रची बसी पहाड़ की सुषमा हिलोरे मारती नज़र आती है तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ को भेदने,उससे स्वार्थसिद्ध करने वाली वह पहाड़ी मनोवृत्ति भी अभिव्यंजित होने लगती है जो आज के उत्तराखंड का कटु यथार्थ भी बन गया है. हीरा सिंह राणा की एक कविता ‘त्यर पहाड़ म्यर पहाड़’ वर्त्तमान पलायन के दौर में आज बहुत ही प्रासंगिक है. किस प्रकार विकास के नाम पर हमारे नेताओं द्वारा पर्यावरण के रक्षक प्रहरी पहाड़ों को तोड़ा और फोड़ा जा रहा है,उसकी दर्दभरी टीस यदि कहीं सुनाई पड़ती है तो वह टीस ‘हिरदा कुमाऊनी’ की कविता में ही सुनाई पड़ सकती है-
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़,
रौय दुखोंक ड्योर पहाड़..
बुजुर्गो ले जोड़ पहाड़,
राजनीति ले तोड़ पहाड़.
ठेकदारों ले फोड़ पहाड़,
नान्तिनो ले छोड़ पहाड़..
ग्वाव नै गुसैं घर नै बाड़.
त्यर पहाड़ म्यर पहाड़..
उत्तराखंड के पर्यावरणवादी हों, या फिर राजनैतिक दल, पत्रकार बन्धु हों या साहित्यकार, उत्तराखंड की जन समस्याओं को उतनी बारीकी से नहीं समझ पाए जितनी आत्मीयता से राणा जी की कविता ने पहाड़ के दर्द को समझा है. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का सरकारी स्तर पर दोहन हुआ, प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट हुई और जेई और एई मिल बांट कर सरकारी ठेकेदारों से पैसों से जेब भरते रहे, निश्चित रूप से पहाड़ की उस पीड़ा को केवल हीरा सिंह राणा जैसा कवि ही बांच सकता है,जिसकी कविता की आत्मा में पहाड़ बसा हो.इस दुःख की घड़ी में हीरा सिंह राणा की इस कविता के चंद बोलों को जरा ध्यान से सुनने की जरूरत है जो उनकी हृदय से निकले अत्यंत मार्मिक स्वर हैं इतने घनघोर संकट के बावजूद भी जितनी भी हरियाली आज उत्तराखंड में बची है वह इस देव भूमि में विराजमान देवताओं का आशीर्वाद, प्रकृति परमेश्वरी का कृपा प्रसाद और हमारी तपस्यारत नारी शक्ति के कठोर परिश्रम का ही फल है.मां,बेटी, बहन तथा पत्नी के रूप में नारीशक्ति की इस राज्य को खुशहाल बनाने में अहम भूमिका रही है. वह नारी शक्ति ही आज भी उत्तराखंड को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए संघर्षशील है. पलायन के भारी संकट के बाद भी हम जहां इधर उधर एक दूसरे पर आरोप मढ़ने में लगे हैं वहां पहाड़ की नारीशक्ति इस घोर पलायन के दौर में भी बंजर खेतों को हरा भरा करने के लिए अपने दुख सुख की परवाह किए बिना जी जान से जुटी है.उत्तराखंड की धरती से जुड़े कवि हीरासिंह राणा ने अपने शब्दों के माध्यम से उत्तराखंड की मातृभूमि को हरितक्रांति से जोड़ने वाली इस नारी शक्ति के संघर्ष को भी इन मार्मिक शब्दों में अपनी भावपूर्ण अभिव्यक्ति से जोड़ा है हीरासिंह राणा को देश भर मे स्थापित प्रवासी सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न अनगिनत सम्मानों से नवाजा गया था. विभिन्न अवसरों पर उनके सम्मान मे भव्य समारोह भी आयोजित किए जाते रहे थे. वर्ष 2003 मे उत्तराखंड क्लब दिल्ली द्वारा उन्हे ‘उत्तराखंड गौरव’ सम्मान से. 6 जून 2004 को अल्मोड़ा मे ‘मोहन उप्रेती लोक संस्कृति पुरुस्कार से. 16 सितम्बर 2018 को दिल्ली के आईटीओ स्थित हिंदी भवन में उत्तराखंड की शीर्ष संस्था ‘पहाड़’ व अन्य संस्थाओं द्वारा हीरासिंह राणा की हीरक जयंती पर भव्य समारोह आयोजित कर उन्हे ‘गीत व संगीत के 75 साल’ प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया था. 29 जनवरी 2020 को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्वतीय कला केंद्र द्वारा उन्हें स्वर्ण जयंती समारोह मे सम्मानित किया गया था. 16 सितम्बर को पश्चिमी विनोदनगर दिल्ली में हीरासिंह राणा का 77वां जयंती समारोह ‘लोक संस्कृति सम्मान दिवस’ के रूप मे बड़े धूमधाम से मनाया गया था.फरवरी 2020 में भारत सरकार द्वारा उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सलाहकार नियुक्त किया गया था. परन्तु विधि का विधान कुछ और ही था. 13 जून 2020 को 78 वर्ष की अवस्था में हीरा सिंह राणा ने अपनी कर्मभूमि दिल्ली में ही अंतिम सांस ली और अपने हजारों लाखों प्रेमियों को निराश कर के अनन्त की यात्रा पर निकल पड़े.महानगरीय संस्कृति के प्रभाव से आज कुमाउँनी भाषा और संस्कृति अपनी पहचान खोने के दौर से गुजर रही है. ऐसे कठिन दौर में हमारे बीच से हीरा सिंह राणा जैसे लोककवि और दुदबोलि भाषा के उन्नायक लोक गायक का अचानक ही चला जाना बहुत ही दुःखद था. उनके साहित्यिक और लोकगायिकी से कुमाउँनी भाषा और संस्कृति को लोकप्रियता के नए आयाम मिले हैं, इसलिए यह पर्वतीय लोकसंस्कृति के लिए भी अपूरणीय क्षति थी. आज उत्तराखंड के लोकगायक श्री हीरा सिंह राणा को शत शत नमन! अभिवंदन!