साहित्यकाश का अनाम कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

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साहित्यकाश का अनाम कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
चमोली जनपद के मालकोटी पट्टी के नागपुर गांव में 20 अगस्त 1919 को चंद्र कुंवर बर्त्वाल का जन्म हुआ। उनके पिता भूपाल सिंह बर्तवाल अध्यापक थे। वे अपने माता पिता की इकलौती संतान थे। चंद्र कुंवर बर्तवाल की शुरुवाती शिक्षा गांव के स्कूल से हुई। उसके बाद पौड़ी के इंटर कॉलेज से उन्होंने 1935 में उन्होंने हाई स्कूल किया। उन्होंने उच्च शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद में ग्रहण की। 1939 में इलाहाबाद से स्नातक करने के पश्चात लखनऊ विश्वविद्यालय में उन्होंने इतिहास विषय से एम0 ए0 करने के लिये प्रवेश लिया। इस बीच उनकी अचानक तबीयत खराब हो गई और वे 1941 में अपनी आगे की पढ़ाई छोड़ गांव आ गए। चंद्र कुंवर बर्त्वाल को अपनी जन्मभूमि उत्तराखंड से बहुत लगाव था। उनका उत्तराखंड के प्रति प्रेम ऊपर लिखी पंक्तियों में साफ झलकता है। वहीं प्रकृति से उनका लगाव किसी से भी छुपा नहीं है। उन्होंने न जाने कितनी ही कविताएं अपने प्रकृति प्रेम पर लिख डाले। आज भी जब हिंदी की छायावादी कविताओं का जिक्र उठता है तो चंद्र कुंवर बर्त्वाल को याद किया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि चंद्र कुंवर बर्त्वाल का महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी मित्रता थी। कहा जाता है कि उन्होंने निराला जी के साथ 1939 से 1942 तक अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था । चंद्र कुंवर बर्तवाल ने 25 से अधिक गद्य लिखीं हैं। किन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे। चंद्र कुंवर बर्त्वाल को लिखने का बचपन से ही काफी शौक था। वे प्रकृति की खूबसूरती को अपनी लेखनी के माध्यम से बयां करते थे। जो भी उनके मन में रहता कागज पर कलम की मदद से उकेर देते। कहा जाता है कि वे अपने लिखे काव्य, कविताओं को ना तो कहीं प्रकाशित करने के लिए देते ओर ना ही किसी पत्रिकाओं में देते। चंद्र कुंवर बर्त्वाल कवितायें लिख ते और अपने पास रख लेते, बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज देते। इसे दुर्भाग्य ही कहे कि वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने उनकी 350 कविताओं का संग्रह संपादित किया । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था। बर्त्वाल जी की कविताओं में तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का भी चित्रण हुआ है। भारतीय जनता में आजादी के लिए क्रांति की लहर जोरों पर चल पड़ी थी। साहित्यकार भी लेखनी के माध्यम से जनता को उद्बोधित कर रहे थे। बत्र्वाल जी भी जयवान, नवप्रभात, नवयुग आदि कविताओं के माध्यम से नए युग को आमंत्रण देते हैं। ‘मैकाले के खिलौने’ रामनाम की गोलियों’ आदि कविताएं समाज के कुछ खास वर्गों के आडम्बरपूर्ण जीवन पर तीखा प्रहार करती है। कवि की अनुभूति उनके काव्य में सहज रूप से अभिव्यक्त हुई है। उनकी भाषा में क्लिष्टता नहीं वरन् एक सहज प्रवाह है। भावानुकूलता उनकी काव्य भाषा की एक प्रमुख विशेषता है। विगत कुछ वर्षों से चन्द्रकुंवर बत्र्वाल जन्म-तिथि को उत्तराखण्ड तथा दिल्ली में समारोहपूर्वक मनाया गया, जो कि एक हर्ष का विषय है। सन् 1991 में अनिकेत तथा क्षेत्र प्रचार कार्यालय द्वारा अगस्त मुनि तथा पंवालिया में 1992 में प्रयास द्वारा गोपेश्वर में, 1993 में पौड़ी, आदिबद्री, देहरादून, कोटद्वार तथा पर्वतवाणी द्वारा दिल्ली में कवि के कृतित्व पर परिचर्चा हुई। 1995 मे मचकोटी तथा श्रीनगर (गढ़वाल) में तथा इस वर्ष पुन: अगस्त्यमुनि में कवि की जयंती मनाई जानी हिन्दी साहित्य के अनाम नक्षत्र का सम्मान होगा। साथ ही यह जरूरी होगा कि पाठ्यपुस्तकों में जिन छायावादी, प्रगतिवादी या अन्य कवियों को जगह मिली है, उनके सम्मुख चन्द्रकुंवर बत्र्वाल-उपेक्षित क्यों हैं? चंद्रकुंवर ने अपने समय तक की संस्कृत, बांग्ला, हिन्दी और अंग्रेजी कविता का गंभीर अध्ययन किया था पर एक कवि के रूप में उनका सर्वश्रेष्ठ पहलू ये है कि उनकी कविता में भावी ट्रेंड्स की आहट भी सुनी-पढ़ी जा सकती है. छायावाद के उत्कर्ष में उन्होंने सृजन किया पर छायावाद में ही सिमट कर नहीं रहे. उनकी छायावादी कविताएँ तो पहला सोपान थी जिनसे उन्हें भविष्य में उच्चतर शिखरों का आलिंगन करना था. विधि ने उन्हें जीवन के तीन दशकीय सोपान भी नहीं दिए जिसमें सृजन के लिए तो एक ही सम्भव था. छोटे रचनाकाल में उन्होंने हिमालयी प्रकृति, मनुष्य और उसके सरोकारों, पीड़ाओं को बखूबी अभिव्यक्ति दी. सादगी के बीच काव्य सौंदर्य है और निरंतर प्रयोगशीलता है. इसलिए कविता और हिन्दी दोनों में चंद्र कुंवर का स्थान नज़र आयेगा. जन्म के एक सौ एक वर्ष पूरे होने पर, हिमालय के सुकुमार कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल का पुण्य स्मरण. रैमासी के दिव्य फूल बन तुम हिमालय में चंद्रप्रभा-सी पवित्रता बिखेरते हुए सदैव महसूस किए जाओगे.चंद्रकुंवर में छायावादी और प्रगतिवादी दोनों काव्यधाराएँ समानान्तर प्रवाहित होती हुई भी दिखती हैं. अब छाया में गुँजन होगा, जैसी नैसर्गिक सौंदर्य को जीवंत करती कविताएँ एक छोर पर दिखती हैं तो दूसरी ओर साम्प्रदायिकता, कट्टरता, अंधविश्वास, पाखण्ड, लैंगिक विषमता जैसे प्रगतिशील विचाराधारित कविताएँ भी उनकी कलम से निकली हैं. छायावाद के आधुनिक समीक्षक मानते हैं कि चंद्रकुंवर की छायावादी कविताएँ भी प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा की कविताओं पर भारी पड़ती हैं. चंद्रकुंवर के नाम पर सरकार के स्तर से साहित्यिक संस्थान या अकादमी स्थापित किए जाने का प्रस्ताव रखा गया के लिए प्रयत्न किया तो चंद्र कुंवर का स्थान नज़र आयेगा
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय dk;Zjr है.

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