वीरों की धरती के नाम से भी जाना जाता है अपनी देवभूमि उत्तराखंड को

ख़बर शेयर करें

वीर सपूत वीर शहीद केसरी चंद
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
देवभूमि के साथ ही उत्तराखंड को वीरों की धरती के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड का इतिहास अपने भीतर शौर्य और बलिदान के कई किस्से समेटे हुए है। भारत की स्वतंत्रता, प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध और कारगिल जैसे कई बड़े युद्धों में उत्तराखंड के कई जवानों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया है। ऐसे ही एक वीर अमर शहीद केसरी चंद है, जिन्होंने भारत को आजादी दिलाने में अपने प्राणों की आहुति दे दी। भारत को गुलामी से आजाद करने के लिए केसरी चंद 1945 में फांसी पर लटक गए।अमर शहीद केसरी चंद का जन्म 1 नवम्बर सन 1920 में जौनसार बावर के क्यावा गांव में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा विकासनगर में पूरी की। जिसके बाद डीएवी कॉलेज से दसवीं और बारहवीं की शिक्षा ली। खेल कूद में कई खेलों के कप्तान भी रहे। उनके पिता पंडित शिव दत्त उन्हें सरकारी नौकरी में जाने के लिए प्रेरित करते रहे। इंटर की शिक्षा पूरा किए बिना ही वो 10 अप्रैल 1941 को रायल इंडियन आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गए और उसी साल 1942 में ही फिरोजपुर में वायसराय कमीशन ऑफिसर का कोर्स पूरा किया। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध जोरों पर था। 29 अक्टूबर 1941 को उन्हें मलायी के युद्ध के मोर्चे पर भेजा दिया गया। युद्ध के मोर्चे पर 15 फरवरी 1942 को जापानी फौज ने केसरी चंद को बंदी बना लिया। नेता जी सुभाष चंद्र बोस के नारे ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ से प्रेरित होकर केसरी चंद आजाद हिंद फौज में भर्ती हो गए थे।आजाद हिंद फौज की ओर से लड़ते हुए इंफाल के मोर्चे पर उन्हें ब्रिटिश फौजौं ने पकड़ लिया था। जिसके बाद उन्हें दिल्ली जिला जेल में रखा गया। आर्मी एक्ट की दफा 41 के भारतीय दंड संहिता की 121 की विरुद्ध ब्रिटिश राज्य के खिलाफ युद्ध करने के आरोप में 12 और 13 दिसंबर 1944 व 10 जनवरी 1945 को लाल किले में जनरल कोर्ट मार्शल में ट्राई किया गया। 3 फरवरी 1945 को जनरल सीजे आचिनलेक ने उन्हें मृत्यु दंड की सजा सुनाई। 24 साल 6 महीने की अल्पायु में केसरी चंद को 3 मई 1945 को दिल्ली जिला जेल में फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया। इसी दिन को याद करते हुए जौनसार बावर के लोगों द्वारा अमर शहीद केसरी चंद के बलिदान और मातृभक्ति को याद किया जाता है।भारत की आजादी के लिए स्वतन्त्रता संग्राम में लाखों की संख्या में देशभक्तों ने अपना बलिदान दिया था। ये बात भी सच है कि उत्तराखंड के कई सपूत आजादी की इस लड़ाई में कूदे थे। उत्तराखण्ड का स्वतन्त्रता संग्राम में स्वर्णिम इतिहास रहा है। जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा आजाद हिन्द फौज की स्थापना की गई तो उत्तराखण्ड के कई रणबांकुरे इस सेना में शामिल हुए थे। उत्तराखण्ड के वीर सपूत शहीद केसरी चन्द इन्हीं में से एक थे सिर्फ 24 साल 6 महीने की अल्पायु में उन्हें फांसी के फंदे पर चढ़ाया गया था। 3 मई, 1945 को ’भारतमाता की जय’ और ’जयहिन्द’ का उदघोष करते हुए ये वीर सपूत दुनिया से चला गया। वीर शहीद केसरी चंद की पुण्य स्मृति में चकराता के पास रामताल गार्डन में प्रतिवर्ष एक मेला लगाया जाता है.मेले में हजारों लोग अपने वीर सपूत को नमन करने आते हैं. लेकिन, इस वर्ष कोरोना महामारी के चलते हुए लॉकडाउन के कारण मेला समिति ने 3 मई को लगने वाले मेले को स्थगित है 3 मई 1945 को देश के वीर सिपाही केसरी चंद ने आजादी की खातिर हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था।केसरी चन्द की शहादत ने न केवल भारत वर्ष का मान बढ़ाया, वरन उत्तराखण्ड और जौनसार बावर कासीना गर्व से चौड़ा कर दिया। भले ही उनकी शहादत को सरकारों ने भुला दिया हो, लेकिन उत्तराखण्ड के लोगों ने उन्हें और उनकी शहादत को नहीं भुलाया।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय है.

You cannot copy content of this page