बाणासुर एवं चित्रलेखा से संबंधित है आश्विन कृष्ण पक्ष की चतुर्थी की पौराणिक व्रत कथा देवभूमि के लोहाघाट क्षेत्र में है बाणासुर का किला

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, अश्विन कृष्ण पक्ष संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा के अनुसार एक समय की बात है बाणासुर की कन्या उषा ने सुसुप्त अवस्था में अनिरुद्ध का स्वप्न देखा। अनिरुद्ध के विरह से वह इतनी अभिलाषी हो गई कि उसके चित्त को किसी भी प्रकार से शांति नहीं मिल रही थी। उसने अपनी सहेली चित्रलेखा से त्रिभुवन के संपूर्ण प्राणियों के चित्र बनवाए। चित्रलेखा के संबंध में माना जाता है कि चित्रलेखा ऐसी चित्रकार थी वह सपने में देखे हुए व्यक्ति का भी हू- ब-हु चित्र बना देती थी। जब चित्र में अनिरुद्ध को देखा तो कहा मैंने इसी व्यक्ति को सपने में देखा था। इसी के साथ मेरा पाणिग्रहण भी हुआ था। हे सखी यह व्यक्ति जहां कहीं भी मिल सके उसे ढूंढ लाओ। अन्यथा इस के वियोग में मैं अपने प्राण छोड़ दूंगी। अपनी सखी की बात सुनकर चित्रलेखा अनेक स्थानों में खोज करती हुई द्वारकापुरी में आ पहुंची। चित्रलेखा राक्षसी माया जानती थी उसने वहां अनिरुद्ध को पहचान कर उसने उसका अपहरण कर लिया और रात्रि में पलंग सहित अनिरुद्ध को उठाकर वह गोधूलि बेला में बाणासुर की नगरी में प्रविष्ट हुई। इधर प्रद्युम्न को पुत्र शोक के कारण असाध्य रोग से ग्रसित होना पड़ा। अपने पुत्र प्रद्युम्न एवं पौत्र अनिरुद्ध की घटना से भगवान श्री कृष्ण जी भी व्याकुल हो उठे। रुकमणी भी पौत्र के दुख से दुखी होकर रोने लगी और कृष्ण जी से कहने लगी हे नाथ ! हमारे प्रिय पुत्र का किसने हरण कर लिया? अथवा वह अपनी इच्छा से भी कहीं गया है। मैं आपके सामने शोकाकुल हो अपने प्राण छोड़ दूंगी। रुकमणी की ऐसी बात सुनकर नंद नंदन भगवान श्री कृष्ण जी यादवों की सभा में उपस्थित हुए। उन्होंने वहां परम तेजस्वी लोमस ऋषि के दर्शन किए। उन्हें प्रणाम कर भगवान श्री कृष्ण जी ने सारी घटना कह सुनाई। भगवान श्री कृष्ण जी ने महर्षि लोमश जी से पूछा की हे मुनिवर हमारे पौत्र का अपहरण किसने किया? वह कहीं स्वयं तो नहीं चला गया है? हमारे बुद्धिमान पौत्र का किसने अपहरण कर लिया। यह बात मैं नहीं जानता हूं। उसकी माता पुत्र वियोग के कारण बहुत दुखी है। कृष्ण जी की बात सुनकर लोमश मुनि ने कहा हे नन्द नन्दन कृष्ण ! बाणासुर की कन्या उषा की सहेली चित्रलेखा ने आपके पौत्र का अपहरण किया है और उसे बाणासुर के महल में छुपा के रखा है। यह बात नारद जी ने बताई है। आप आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी संकटा चतुर्थी का अनुष्ठान कीजिए। यह व्रत करने से आपका पौत्र अवश्य ही आ जाएगा। ऐसा सुनकर मुनिवर वन में चले गए। भगवान श्री कृष्ण जी ने लोमस ऋषि के कथन अनुसार व्रत किया और इस व्रत के प्रभाव से उन्होंने अपने शत्रु बाणासुर को पराजित कर दिया। यंही उस भीषण युद्ध में शिव जी ने भी बाणासुर की बड़ी रक्षा की फिर भी वह परास्त हो गया। भगवान श्री कृष्ण ने कुपित होकर बाणासुर की हजार भुजाओं को काट डाला। ऐसी सफलता मिलने के कारण व्रत का प्रभाव ही था। भगवान श्री गणेश जी को प्रसन्न करने तथा संपूर्ण विघ्न को दूर करने के लिए इस व्रत के समान कोई दूसरा व्रत नहीं है।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा -हे राजन !संपूर्ण विपत्तियों के विनाश के लिए मनुष्य को इस व्रत को अवश्य ही करना चाहिए। इसके प्रभाव से आप शत्रु पर विजय प्राप्त करेंगे एवं राज्य अधिकारी होंगे। इस व्रत की महिमा का वर्णन बड़े-बड़े विद्वान भी नहीं कर सकते हैं। हे कुंती पुत्र! मैंने इसका अनुभव स्वयं किया है। यह मैं आपसे सत्य कह रहा हूं।

शुभ मुहूर्त,,,,,,,

इस बार सन 2023 में दिनांक 2 अक्टूबर 2023 दिन सोमवार को आश्विन संकष्टी चतुर्थी मनाई जाएगी। इस दिन यदि चतुर्थी तिथि की बात करें तो तीन घड़ी 40 पल अर्थात प्रातः 7:36 बजे से चतुर्थी तिथि प्रारंभ होगी। यदि नक्षत्र की बात करें तो इस दिन भरणी नामक नक्षत्र 30 घड़ी 35 पल अर्थात शाम 6:22 तक है। यदि योग की बात करें तो हर्षण नामक योग 10 घड़ी 40 पल अर्थात प्रातः 10:24 बजे तक है। इस दिन विष्टि नामक करण अर्थात भद्रा तीन घड़ी 40 पल अर्थात प्रातः 7:36 बजे तक है। सबसे महत्वपूर्ण यदि इस दिन के चंद्रमा की स्थिति को जाने तो इस दिन चंद्र देव पूर्ण रूपेण मेष राशि में विराजमान रहेंगे।

देवभूमि में कहां है बाणासुर का किला? आइए जानते हैं।

देवभूमि उत्तराखंड के चंपावत जनपद के लोहाघाट में स्थित है बाणासुर का किला। देवभूमि उत्तराखंड के चंपावत जनपद के लोहाघाट क्षेत्र अंतर्गत लोहाघाट शहर से लगभग 6 किलोमीटर दूर सुंई गांव और कर्णकरायत नामक स्थान पर लगभग 19 00मीटर ऊंची चोटी पर स्थित है बाणासुर का किला इस किले को वहां के स्थानीय लोग बानेकोट या बाणाकोट भी कहते हैं। इतिहास विद पंडित बद्री दत्त पांडे जी के “कुमाऊं का इतिहास”नामक पुस्तक में इसके लिए बौनकोट नाम का प्रयोग किया गया है। पंडित बद्री दत्त पांडे ने लिखा है कि लोहाघाट क्षेत्र का सबसे पुराना किला कौटौलगढ़ है जिस के संबंध में कहते हैं कि बाणासुर दैत्य ने यह किला अपने लिए बनाया था ।जब वह भगवान विष्णु से न मारा गया तो महाकाली ने प्रकट होकर उसे मारा। लोहा नदी इसी दैत्य के लहू अर्थात खून से निकली। वहां की मिट्टी कुछ लाल कुछ काली है। ऐसा माना जाता है कि दैत्य के खून से वह इस रंग की हुई है। और भी सुंई कोट, चुमल कोट, चंदीकोट छतकोट,बौनकोट किले कहे जाते हैं जो खंडहर के रूप में हैं। यह छोटे-छोटे मांडलिक राजाओं द्वारा बनाए गए हैं।”

पौराणिक कथा के अनुसार माना जाता है कि बाणासुर एक शक्तिशाली राजा और भगवान शिव का भक्त था। उसकी परम भक्ति से प्रसन्न होकर 1 दिन भगवान शिव बाणासुर के सामने प्रकट हुए और उसे हजार भुजाएं देने का वरदान प्राप्त हुआ। वरदान प्राप्त करने के बाद बाणासुर ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करना प्रारंभ कर दिया और आकाश के साथ-साथ धरती पर भी तबाही मचाई। यहां तक कि अहंकारी बाणासुर ने भगवान शिव जी को चुनौती दी कि वे उस व्यक्ति का नाम बताएं जो उसे कड़ी टक्कर दे सकता है। भगवान शिव ने बाणासुर को उसके किले के पास फहराने के लिए एक झंडा दिया और उससे कहा जिस दिन यह झंडा टूट जाएगा तुम्हारा दावेदार आ जाएगा। समय बीतने लगा और बाणासुर ने यह महसूस किया कि उसकी बेटी शादी के योग्य हो गई है। चित्रलेखा जिसके पास अपारशक्ति थी उन्होंने राजकुमार अनिरुद्ध जो कि भगवान श्री कृष्ण के पोते थे उन्हें बाणासुर की पुत्री से मिलवाया। वह उसे नींद से अगवा कर उषा के पास ले आयी। वे दोनों प्यार में पड़ गए और अगले 4 महीने खुशी-खुशी साथ रहने लगे। एक दिन जब बाणासुर अपने राज्य का चक्कर लगा रहा था उसने देखा कि वहां झंडा पूर्णतया टूट गया था जो कि भगवान शिव ने बाणासुर को यह कह कर दिया था कि जिस दिन झंडा टूट जाएगा उस दिन तुम जान लेना कि तुम्हारे बुलावे के बराबर कोई बलशाली आ गया है।
जब भगवान कृष्ण बलराम और अन्य यादवों को पता चला कि क्या हुआ है। जब अनिरुद्ध का समाचार भगवान कृष्ण को पता चला तो उनके और बाणासुर के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ उन्होंने क्षेत्र के पूर्व नाम सोनितपुर की ओर प्रस्थान किया। भगवान कृष्ण और बाणासुर का भयंकर युद्ध हुआ अंत में बाणासुर को भगवान श्री कृष्ण ने मिटा दिया।

बाणासुर का किला अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। किले से 360 अंश तक चारों दिशाओं में बहुत दूर-दूर तक का नजारा साफ देखा जा सकता है। हिमालय पर्वत तो यहां से इतना विहंगम दृश्य दिखता है कि पर्यटन विभाग ने अब यहां एक शक्तिशाली दूरबीन लगा दी है। किले के चारों तरफ का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। चोटी पर लगभग 90 मीटर लंबे और 25 मीटर चौड़ाई आकार के बने हुए किले के अवशेष अब भी साफ दिखाई देते हैं। यह किला भी अब भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। किले से पूर्व एवं उत्तर दिशा में हिमालय की श्रृंखलाएं दिखाई देती है और नेपाल की चोटियों से लेकर चौखंभा तक की चोटियों को यहां से देखा जा सकता है। पश्चिम की ओर गहरी खाई है और उस और घना जंगल भी दिखाई देता है। दक्षिण की कर्णकरायत के आसपास की उपजाऊ जमीन इस किले से दिखाई देती है। इस किले के दो प्रवेश द्वार हैं। लंबा कार बने इस किले के वर्तमान स्वरूप को देखकर यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि इस किले का निर्माण कम से कम तीन अलग-अलग कालों में हुआ होगा। किले के चारों कोनों पर चार सुरक्षा बुर्ज बने हुए हैं। चांदपुर गढ़ी की तरह ही बाणासुर के किले में भी दीवारों बाहर देखने के लिए रोशनदान का प्रकाश छिद्र बने हुए हैं। इन८५छिद्रों की निचली सत्ता ढालदार है। संभवतः यह आकार इनके सामरिक उपयोग में सहायक होता होगा।
पानी की व्यवस्था के लिहाज से बाणासुर के किले में विशेष इंतजाम किया गया है। चांदपुर गढी में एक गोलाकार कुआं दिखाई देता है जो मुख्य भवन से बाहर है। परंतु बाणासुर के किले में आयताकार कुआं बना हुआ है और मुख्य भवन के बीचो बीच बना है। 13 मीटर लंबा और 5 मीटर चौड़ा यह जल संग्राहक लगभग 8 मीटर गहरा है और इसमें नीचे तक उतरने के लिए सीढ़ियां भी बनी है। संभवतः जब इस किले का उपयोग किया जाता होगा तो उन दिनों निश्चित रूप से इसी जल कुंड का पानी किले के निवासियों के उपयोग में आता होगा। शायद यह भी हो सकता है कि उन दिनों युद्ध आदि की स्थितियों में इस कुंड को किसी बाहरी जल स्रोत के पानी से भरा जाता होगा। किले की दक्षिणी दिशा में कर्णकरायत क्षेत्र में जल स्रोतों की अधिकता आज भी इन क्षेत्रों के बेहद उपजाऊ होने की एक बड़ी वजह है। संभवतः ऐसे ही किसी जलस्रोत ने अतीत में बाणासुर के किले को एक बेहतरीन दुर्ग के रूप में अपनी उपयोगिता दिखाने का मौका दिया होगा।

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