उत्तराखंड के पारंपरिक आभूषण ने दी है वक़्त के साथ अपनी एक अलग पहचान

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किसी भी क्षेत्र की संस्कृति वस्तुत वहां के समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आये संस्कारों की एक अवधारणा होती है. समाज में निहित सांस्कृतिक परम्परा को मानव आंखों से देखता तो है ही साथ ही उसे मन से महसूस करने के अलावा आत्मसात भी करता है. दर्शन, रीति रिवाज, पर्व-त्यौहार, रहन-सहन, अनुष्ठान, कला-साहित्य, बोली-भाषा व वेशभूषा जैसी बातों का अध्ययन संस्कृति के अंतर्गत ही होता है. सही मायने में किसी भी क्षेत्र अथवा देश की समृद्ध संस्कृति को वहां के बौद्धिक विकास की परिचायक माना जा सकता है.भारत के उत्तरी भाग में स्थित उत्तराखंड राज्य दो मण्डलों में विभाजित है- कुमाऊं मंडल और गढ़वाल मंडल। इन दोनों मंडलों की लोक संस्कृति- कुमाऊंनी लोक संस्कृति और गढ़वाली लोक संस्कृति अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। कुमाऊं क्षेत्र की संस्कृति अपने विशिष्ट पर्व, उत्सव, मेले, आभूषण, खान-पान, लोकगाथा, लोककथा, लोकनृत्य, कहावत, मुहावरों और लोकोक्तियों की अतिशय सौन्दर्य एवं समृद्धता से अभूतपूर्व है। गढ़वाली लोक संस्कृति की विश्व संस्कृति में अपनी एक विशेष पहचान है। देवभूमि नाम के अनुरूप ही यहां कई मंदिर और धार्मिक स्थल हैं। यह क्षेत्र हिमालय, नदी-झरनों, एवं घाटियों की सुन्दरता से परिपूर्ण है। यहां की संस्कृति अपनी विशिष्ट छाप छोड़ती है चाहे फिर वे महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा हो या स्वादिष्ट व्यंजन। लोकनृत्य ‘लंगवीर’ हो या लोकगीत ‘थडिया’, यहां की हर चीज लोगों को आपस में एक अटूट बंधन में जोड़तीहै।हम जो वस्त्र धारण करते हैं, उनका भी अपना लोक विज्ञान है। दरअसल, वस्त्र किसी भी क्षेत्र और समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक के साथ आर्थिक पृष्ठभूमि को परिलक्षित करते हैं। वस्त्रों से इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं और संबंधित क्षेत्र के भौगोलिक परिवेश का आकलन भी होता है। हम आपका परिचय उत्तराखंडी पहनावे के इसी पारंपरिक स्वरूप से करा रहे हैं। इसे संपूर्ण संस्कृति का दर्जा दिया गया है। हर समाज की तरह उत्तराखंड का पहनावा (वस्त्र विन्यास) भी यहां की प्राचीन परंपराओं, लोक विश्वास, लोक जीवन, रीति-रिवाज, जलवायु, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, शिक्षा व्यवस्था आदि को प्रतिबिंब करता है। पहनावा किसी भी पहचान का प्रथम साक्ष्य है। प्रथम या प्रत्यक्ष जो दृष्टि पड़ते ही दर्शा देता है कि ‘हम कौन हैं।’ यही नहीं, प्रत्येक वर्ग, पात्र या चरित्र का आकलन भी वस्त्राभूषण या वेशभूषा से ही होता है। पहनावा न केवल विकास के क्रम को दर्शाता है, बल्कि यह इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं के आकलन में भी सहायक है। आदिवासी जनजीवन से आधुनिक जनजीवन में निर्वस्त्र स्थिति से फैशन डिजाइन तक की स्थिति तक क्रमागत विकास देखने को मिलता है। इस हिसाब से देखें तो उत्तराखंड की वस्त्र विन्यास परंपरा आदिम युग से ही आरंभ हो जाती है। यहां विभिन्न जनजातियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र एवं आभूषण धारण करने की परंपरा प्रचलन में रही है। मसलन कुमाऊं व गढ़वाल की बोक्सा, थारूअथवा जौहारी जनजाति की महिलाएं पुलिया, पैजाम, झड़तार छाड़ जैसे आभूषण धारण करती हैं। पुलिया अन्य क्षेत्रों में पैरों की अंगुलियों में पहने जाने वाले आभूषण हैं, जिनका प्रचलित नाम बिच्छू है। गढ़वाल में इन्हें बिछुआ तो कुमाऊं में बिछिया कहते हैं। इसके अलावा गले में पहनी जाने वाली सिक्कों की माला भी उत्तराखंड की सभी जनजातियों में प्रचलित है। गढवाल में इसे हमेल और कुमाऊं में अठन्नीमाला, चवन्नीमाला, रुपैमाला, गुलुबंद, लाकेट, चर्यों, हंसुली, कंठीमाला, मूंगों की माला जैसे नामों से जाना जाता है। हिंदू धर्म में शादी के बाद दुल्हन को सुहाग से जुड़ी कई चीजें धारण कराई जाती हैं। इन सभी चीजों का अपना महत्व होता है। इन्हीं चीजों में बिछिया भी धारण किया जाता है। बिछिया शादीशुदा होने का प्रतीक मानी जाती है लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ विज्ञान में भी बिछिया को काफी महत्व दिया गया है। माना जाता है कि बिछिया पहनने से एक महिला के शरीर में बहुत असर पड़ता है। बिछिया सुहागिन औरतों का शृंगार है, जिसे पैरों की उंगलियों में पहना जाता है। बिछिया पहनने का चलन कैसे बना? इसे क्यों पहनते हैं या इसे पहनने के क्या लाभ हैं। सनातन परंपरा में बिछिया पहनने का चलन वैदिक युग से ही रहा है। इसलिए आज भी नवदुर्गा पूजा में माता को सोलह शृंगार चढ़ाया जाता है। बिछिया पहनने का वैज्ञानिक कारण भी है और शादीशुदा महिलाओं को बिछिया पहनने का स्वास्थ्य लाभ भी प्राप्त होता है। वहीं रामायण काल में भी बिछिया का वर्णन कुछ इस तरह से आया है। कहते हैं भारतीय महाकाव्य रामायण में बिछिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जब रावण ने सीता का अपहरण कर लिया था तो उन्होंने अपनी बिछिया (कनियाझी) को भगवान राम की पहचान के लिए फेंक दिया था। पांव की बीच की तीन उंगलियो में बिछिया पहनने का चलन है। इस उंगली की नस महिलाओं के गर्भाशय और दिल से संबंध रखती हैं। पैर की उंगली में रिंग पहनने से गर्भाशय और दिल से संबंधित बीमारियों की गुंजाइश नहीं रहती है। बिछिया सोने व चांदी की होती है इससे पहनने से सेहत पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। चांदी ध्रुवीय ऊर्जा से शरीर को ऊर्जावान बना देती है। यह मन को भी शांत रखता है। वेदों में ऐसा कहा गया है कि बिछिया पहनने से महिलाओं का मासिक चक्र नियमित बना रहता है। बिछिया पांव की उंगलियों में भी एक्यू प्रेशर का काम भी करती हैं, जिससे तलवे से लेकर नाभि तक सभी मांस-पेशियों में रक्त का संचार अच्छी तरह से होता है। विज्ञान के अनुसार, पांव में बिछिया महिलाओं की प्रजनन क्षमता को बढ़ाता है। आयुर्वेद में तो बिछिया को मर्म चिकित्सा के अंतर्गत बताया गया है। उत्तराखंड के पारंपरिक आभूषण का सदियों से अपना खास एक महत्व होता है, एक समय में पुरूष कानों में कुंडल धारण करते थे जिसे मुर्की, बजनि या गोरख कहा जाता है। उत्तराखंड में महिलाओं के लिए सिर से लेकर पांव तक हर अंग के लिए विशेष प्रकार के आभूषण है। कुमाऊंनी में आभूषणों को जेवर या हतकान (हाथ-कान) कहते हैं। यहां महिलाएं सिर पर शीशफूल, सुहाग बिन्दी, मांगटीका धारण करती हैं। नाक में नथुली, नथ, बुलाक, फूल, फुली आदि पहनती है। कानों में मुर्खली, बाली, कर्णफूल, तुग्यल, गोरख, झुमके, झुपझुपी, उतरौले, जल-कछंव, मछली आदि सोने-चांदी के से बने इन आभूषणों को पहनती हैं। गले के लिए गुलूबंद, लॉकेट, चर्यों, हंसुली, कंठीमाला, मूगों की माला, चवनीमाला, चंदरोली, चंपाकली आदि का विशेष महत्व है। हाथों में धागुला, पौछी, अंगूठी या गुंठी, चूड़ी, कंगन, गोखले आदि पहनती हैं। पैरों के लिए भी कण्डवा, पैटा, लम्छा, पाजेब, इमरती, झिवंरा, प्याल्या, बिछुवा आदि आभूषण हैं इनमें से पाजेब झांजर, झिंगोरी, पौटा और धागुले आदि अपना-अपना विशेष स्थान रखते हैं। कुमाऊं में तगड़ी या तिगड़ी कमर पर पहने जाने वाला प्रमुख आभूषण भी है। गढ़वाल में भी पारंपरिक रूप से यहां की महिलाएं गले में गलोबंद, चरयो, जै माला, तिलहरी, चंद्रहार, सूत या हंसुली, नाक में नथुली, नुलाक या नथ, कानों में कर्णफूल, कुण्डल पहनती हैं। साथ ही सिर में शीषफूल, हाथों में सोने या चांदी के पौंजी, नग एवं बिना नग वाली मुंदरी, या अंगूठी, धागुला, स्यूण-सांगल, पैरो में विघुए, पायजब, कमर में ज्यैडि आदि परंपरिक आाभूषण पहनती हैं।कुमाऊं एवं गढ़वाल लोक संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध हैं। प्रदेश में विभिन्न उत्सवों, पर्वों, धार्मिक अनुष्ठानों, देव यात्राओं, मेलों-खेलों, पूजाओं और मांगलिक कार्यक्रमों का वर्ष भर आयोजन होता रहता है ये आमोद-प्रमोद और मनोरंजन के सर्वोत्कृष्ट साधन होने के साथ ही लोक जीवन के आनंद और उल्लास को भी व्यक्त करते हैं। विभिन्न तीर्थ स्थल, विश्वास मान्यताएं, लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनृत्य, लोकसंगीत आदि यहां की लोक संस्कृति को विश्व में एक अलग पहचान दिलाती हैं। लोककला की दृष्टि से भी उत्तराखंड बहुत समृद्ध है। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवित चौकी, विवाह चौकी आदि बनाई जाती है। यहां की कांगडा शैली विश्व प्रसिद्ध है।निष्कर्षत: कहा जा सकता है कुमाऊंनी-गढ़वाली संस्कृति की अपनी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत है, जो विभिन्न रूपों से परिपूर्ण है। पुरुषों द्वारा सामान्यतः यहां बहुत कम आभूषण पहने जाते हैं. बावजूद इसके जिन आभूषणों को पुरुषों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है उनमें अंगूठी परम्परागत आभूषण के तौर पर सर्वाधिक चलन में है।। वर्तमान दौर अब में अधिकतर पुरुष कुण्डल, बाली, गले की जंजीर व कड़े आदि को भी आभूषणों के रुप में प्रयुक्त करने लगे हैं।कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निःसन्देह उत्तराखण्ड में पुराने समय से प्रचलित तमाम परिधान और यहां के आभूषण अपनी कला और पारम्परिक विशेषताओं की दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं और यहां की सांस्कृतिक विरासत की जीवंतता को बनाये रखने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। आधुनिक शिक्षा के साथ ही तेजी से हो रहे समाजिक आर्थिक बदलाव का प्रभाव स्थानीय पारम्परिक परिधानों पर पड़ने लगा है। इस वजह से परम्परागत परिधानों को पहनने का चलन समाज में धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। पलायन, व्यवसाय के कार्य की प्रकृति तथा प्रवास में बसने, दूसरी संस्कृति के सम्पर्क में रहने आदिे वजहों से भी परम्परागत परिधानों के पहनावे में कमी दिखायी दे रही है। बहरहाल उत्तराखंड के समाज ने विरासत के तौर इन परिधानों को किसी न किसी रुप अपना संरक्षण दिया ही हैं। डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।

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