उत्तराखंड के बुग्यालों में मिलने वाली यारसा गुम्बा
उत्तराखंड के बुग्यालों में मिलने वाली यारसा गुम्बा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
कीड़ाजड़ी (यारसा गुम्बा) में एक फफूंद एक कीड़े पर हमला करता है और परजीवी की तरह उसका शोषण करता है. फफूंद और कीड़े का यही संयोग एक अद्भुत बूटी तैयार करता है जिसे उत्तराखंड के गांवों में यारसा गुम्बा या कीड़ाजड़ी के नाम से जाना जाता है.भारत के पश्चिमी और मध्य हिमालयी क्षेत्र के अलावा यारसा गुम्बा तिब्बत, नेपाल और भूटान के इलाके में पाया जाता है. भारत में इसके खरीदार नहीं हैं लेकिन दुनिया के दूसरे देशों खासतौर से चीन, सिंगापुर, ताइवान, इंडोनेशिया और अमेरिका जैसे देशों में इसकी काफी मांग है. पिछले करीब दो दशकों में इसकी बढ़ती मांग की वजह से कीड़ाजड़ी की कीमत सातवें आसमान पर पहुंच गई है.साल 2003 तक करीब 60,000 रुपये प्रति किलो में मिलने वाली कीड़ाजड़ी की कीमत आज 17 से 20 लाख रुपये प्रति किलो पहुंच गई है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कारोबारियों को इसकी कीमत 40 से 50 लाख रुपये प्रति किलो तक मिल जाती है. उत्तराखंड के धारचूला से करीब 40 किलोमीटर दूर है छिपला केदार का इलाका. यहां कोई 2000 मीटर की ऊंचाई पर बसे एक दर्जन गांवों के 700 से अधिक लोग हर साल ऊंचे पहाड़ी बुग्यालों पर एक बूटी की तलाश में जाते हैं. ये है यारसा गुम्बा (तिब्बत में यारसा गुन्बू) नाम की हिमालयी बूटी जिसे स्थानीय भाषा में कीड़ाजड़ी भी कहा जाता है.धारचूला ब्लॉक के सूआ गांव निवासी बताते हैं, “इन बुग्यालों में हमारे गांवों के ही नहीं बल्कि दूर दराज के तमाम गांवों से लोग कीड़ाजड़ी निकालने आते हैं. साल में एक बार (इसे इकट्ठा कर बेचने से) होने वाली कमाई ही हमारे पूरे समय का गुजारा होती है.” दुनिया के कई देशों में हिमालयन वियाग्रा के नाम से मशहूर कीड़ाजड़ी को सेक्स वर्धक होने के साथ-साथ ट्यूमर, टीबी, कैंसर और हेपेटाइटिस जैसी जानलेवा बीमारियों का इलाज माना जाता है. हालांकि इस बूटी को लेकर किए जा रहे सभी दावों की जांच नहीं हुई है और उन पर वैज्ञानिक शोध चल ही रहा है. फिर भी इस बूटी ने दुनिया भर में करीब 10000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का सालाना बाजार खड़ा कर लिया है कीड़ाजड़ी हिमालयी लोगों के लिए रोजगार का एक महत्वपूर्ण जरिया है. हालांकि रिजर्व फॉरेस्ट से किसी तरह वन उत्पाद को निकालने पर मनाही है लेकिन वन पंचायतों के अधिकार क्षेत्र के तहत आने वाले इलाकों से कीड़ाजड़ी निकाली जाती है. जंगल से निकाली गई इस बूटी के बदले ग्रामीणों को सरकार को रायल्टी अदा करनी पड़ती है.कीड़ाजड़ी निकालने का कारोबार ऐसा है कि कागजों पर इसका रिकॉर्ड बहुत सीमित है और ज्यादातर ‘माल’ गैरकानूनी तरीके से तस्करी के जरिये देश के बाहर भेज दिया जाता है. पिछले कुछ वक्त में इस बूटी के अति दोहन की वजह से अब हिमालयी क्षेत्र में यह गायब होती जा रही है. इसे निकालने के कारोबार में लगे ग्रामीण बताते हैं कि इसकी उपलब्धता में पिछले 10 सालों में 20% से 25% की कमी आई है.पिछले दो दशकों से यारसा गुम्बा पर रिसर्च कर रहे डॉक्टर कहते हैं कि बाजार में कीड़ाजड़ी की अधिक कीमत पाने के लिए उसे जल्द निकालने की होड़ बनी रहती है. जितना जल्दी इसे निकाला जाए इसकी कीमत उतनी अधिक मिलती है. लेकिन इसी जल्दबाजी के कारण कीड़ाजड़ी के अस्तित्व का संकट भी मंडरा रहा है., “जब तक कीड़ाजड़ी अपनी परिपक्व अवस्था में नहीं पहुंचती, तब तक बीज का निर्माण नहीं होता और यदि बीज ही हवा में नहीं बिखरेगा तो लार्वा पर फफूंद के हमले का नया चक्र शुरू ही नहीं होगा. साफ है कि फिर अगले साल आपको कीड़ाजड़ी नहीं मिलेगी. यही संकट अभी बढ़ रहा है.”पहाड़ी बुग्यालों में उन वनस्पतियों के खत्म होने का संकट भी गहरा रहा है जो लार्वा को पल्लवित करते हैं. अकसर औषधीय पौधों की खोज में जाने वाले लोग इन बुग्यालों से उन प्रजातियों को भी चुन लाते हैं जिनकी जड़ों पर कीड़ाजड़ी का लार्वा फलता फूलता है. जहां अत्यधिक दोहन किया गया उन कुछ पहाड़ी बुग्लायों में यह बूटी अब नहीं मिल रही. भारत में उत्तराखंड अकेला राज्य है जहां वन-पंचायतों का चलन है. चतुर्वेदी कहते हैं कि कीड़ाजड़ी को चुनने के काम में वन पंचायत एक मॉनीटर का प्रभावी रोल अदा कर सकती है. महत्वपूर्ण है कि नेपाल और तिब्बत में किसी सरकारी नियम से नहीं, बल्कि सामुदायिक स्तर पर जागरूकता से ही लोगों ने यह पहल की है. कीड़ाजड़ी निकालने के लिए साल में 40 से 50 दिन निर्धारित हैं और ग्रामीण स्वयं ग्राम समितियों को आश्वस्त करते हैं कि कोई साल में बाकी दिनों बुग्यालों में नहीं जाएगा. भूटान ने कीड़ाजड़ी के कारोबार को नियंत्रित करने के साथ इसे कानूनी मान्यता दी है, जिससे वहां तस्करी रोकने और बुग्यालों की उर्वर जमीन को बचाने में मदद मिली है. इसके साथ ही खुली नीलामी के जरिए किसानों को अच्छी कीमत दिला कर बिचौलियों को हटाया गया है. यह रास्ता भारत में कीड़ाजड़ी निकालने वाले पहाड़ी परिवारों के लिए भी काफी मददगार हो सकता है. भारत में भी हिमालयी इलाकों में रहने वाले लोग चाहते हैं कि उनकी कमाई में बिचौलियों का दखल न हो. वैज्ञानिकों कहते हैं, “सरकार की देखरेख में धारचूला और मुनस्यारी जैसी जगहों में नीलामी कराई जा सकती है. सभी ग्रामीण कहते हैं कि बिचौलिए उन पर दबदबा बनाए रखना चाहते हैं और उनकी कमाई के बड़े हिस्से पर उनका अधिकार हो जाता है. ऐसे में इन ग्रामीणों को सीधे खरीदारों से जोड़ना सरकार की जिम्मेदारी है. इससे स्थानीय लोगों को फायदा होगा और सरकार के लिए आसानी होगी.” यारसा गुम्बा की खोज हिमालयी बुग्यालों के चरवाहों द्वारा तब की गयी जब उन्होंने याक, बकरी और भेड़ों में इस जड़ी को खाने के बाद आये बदलावों को देखा. उन्होंने पाया कि कीड़ा जड़ी के सेवन से ये जानवर काफी मजबूत हो जाते हैं. तब इन चरवाहों ने मवेशियों की प्रजनन क्षमता, जीवन शक्ति और दूध का उत्पादन बढ़ने के लिए यारसा गुम्बा के पाउडर को दूध में मिलाकर उन्हें खिलाना शुरू किया. फिर इन्हीं चरवाहों ने इसे खुद खाना और अपने दोस्तों रिश्तेदारों को तोहफे में देना शुरू किया. इन्होने पाया कि यारसा गुम्बा ने जोश और जीवटता के साथ उनकी कामोत्तेजना में भी अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी की. धीरे-धीरे इसके औषधीय गुणों के बारे में जानकारी मिलने पर इसे 2 दर्जन से ज्यादा बीमारियों के उपचार के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा. मौसम में बदलाव और अत्यधिक दोहन से यारसा गुम्बा का अस्तित्व अब खतरे में आ गया है. हाल के सालों में इसकी उपलब्धता में 30 फीसदी तक की कमी देखी गयी है. कीड़ाजड़ी के परिपक्व होने से पहले ही मुनाफे की होड़ में उसका दोहन कर लिया जाता है. इस समय तक इसमें बीज का निर्माण नहीं हुआ होता और हवा में बीज नहीं बिखर पाता. इस वजह से लार्वा पर फफूंद के पनपने का नया चक्र शुरू ही नहीं होता.
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.