पहाड़ों को सूखने से बचाने के लिए सतत विकास का एक माडल करना होगा तैयार

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पहाड़ों को सूखने से बचाने के लिए सतत विकास का एक माडल तैयार करना होगा
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
जैवविविधता की दृष्टि से पहाड़ स्वर्ग है, लेकिन इन पहाड़ों को शायद किसी की नजर लग गई है, जिस कारण दुनिया को पानी देने वाला पहाड़ खुद पानी के लिए तरस रहा है। कभी हमेशा पानी से भरे रहने वाले पहाड़ों की कोख लगातार सूखती जा रही है। यहां के बाशिंदे कई इलाकों में बूंद बूंद के लिए संघर्ष करने को मजबूर हैं। कई इलाकों में खेती के लिए तक पर्याप्त पानी उपलब्ध नही हैं। जिस कारण लोग खेती छोड़ रहे हैं। ऐसा ही कुछ हाल उत्तराखंड का है, जहां सरकार और प्रशासन को पहाड़ों के सूखने का कारण तो पता है, लेकिन उनकी तरफ से ऐसी कोई पहल होती नजर नहीं आ रही है, जिससे पहाड़ों की सूखती कोख में फिर से पानी भरा जाए।कहते हैं जंगल के लिए पानी बेहद जरूरी है, लेकिन ‘जंगल’ किस प्रकार का हो, इस पर कोई चर्चा नहीं करता है। फाॅरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘उत्तराखंड़ का कुल भौगोलिक क्षेत्र 53483 स्क्वायर किलोमीटर है। पृथ्वी पर जल के असीम भंडार हैं, जो समुद्र, नदी, झील, तालाब, कुएं, नौले-धारे सहित अन्य प्राकृतिक स्रोतों के रूप में मौजूद हैं। जल का सबसे बड़ा भंडार ‘समुद्र’ है, लेकिन खारा पानी होने के कारण ये पीने योग्य नहीं है। समुद्र को पानी नदियों के माध्यम से मिलता है। तो वहीं नदियों, तालाबों और झीलों को पानी उपलब्ध कराने का सबसे बड़ा माध्यम विभिन्न प्राकृतिक जलस्रोत ही हैं। जलस्रोत पृथ्वी की ऐसे छोटी रक्तवाहिनियां हैं, जिनका उद्गम किसी न किसी रूप में हिमालय व पहाड़ों से होता है और ये पर्वतों के अंदर से छोटी-छोटी धाराओं के रूप में रिसते हुए बहती हैं। बारिश भी इन धाराओं के कैचमेंट एरिया को जल उपलब्ध कराने में अहम भूमिका अदा करती हैं। पानी के यही सब स्रोत भूजल को रिचार्ज करने का काम करते हैं और इस जल से इंसान सहित विभिन्न जीव-जंतु अपनी पानी की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। एक तरह से ‘जल ही जीवन है’, लेकिन वर्तमान में जिस तरह के हालात बने हैं, उससे इंसान और अन्य जीवों को जीवन देने वाले जल (मीठे जल स्रोत) का जीवन धीरे-धीरे धरती से समाप्त होता जा रहा है।धरती पर जल का अस्तित्व ग्लेशियरों पर ही टिका है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलकर लगातार पीछे खिसकते जा रहे हैं। इससे नदियों, तालाबों, झीलों और विभिन्न प्राकृतिक जलस्रोतों पर संकट गहराने लगा है। उत्तराखंड के संदर्भ में यदि बात करें तो हाल ही में अमर उजाला में प्रकाशित खबर में बताया गया कि ‘‘वैज्ञानिकों के मुताबिक कोसी नदी में वर्ष 1992 की तुलना में पानी का स्तर लगभग 16 गुना कम हो गया है।’’ गंगा, यमुना, अलकनंदा, मंदाकिनी, पिंडर, काली, सरयू आदि नदियों में भी पानी कम हो गया है। पर्यावरणविद और पीएसआई के पूर्व निदेशक ने बताया कि ‘‘लगभग 27 प्रतिशत पानी ही ग्लेशियर से गंगा को मिलता है। बाकी पानी जंगलों से निकलने वाली छोटी नदियों, अन्य नदियों व जल धाराओं से गंगा को मिलता है।’’ लेकिन पिछले लंबे समय से हम देखते आ रहे हैं कि नदियों में पानी कम होता जा रहा है। आंकड़ों पर नजर डाले तो, मिलाम ग्लेशियर 16.70 मीटर प्रति वर्ष की दर से पीछे खिसक रहा है, जबकि पिंडारी ग्लेशियर 23.47 मीटर, गंगोत्री ग्लेशियर 18 से 22 मीटर, तिपरा बैंक ग्लेशियर 3.7 मीटर, ढोकरानी ग्लेशियर 18 मीटर और दूनागिरी ग्लेशियर 03 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे खिसक रहे हैं। ग्लेशियरों के खिसकने का सबसे बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन है। जिस कारण पहाड़ तेजी से गर्म होते जा रहे हैं। यहां न केवल गर्मी ज्यादा पड़ रही है, बल्कि पहले की अपेक्षा बारिश भी कम हो रही है। अमर उजाला में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक ‘पिछले सालों में प्रदेश में 13.5 सेमी बारिश कम हुई है। उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में भी बारिश अब कम हो रही है।’ग्लेशियरों का पिघलना जहां नदियों में पानी की मात्रा को कम कर रहा है, तो वहीं बारिश का कम होना नौलों-धारों सहित अन्य प्राकृतिक स्रोतों को सुखा रहा है। प्राकृतिक स्रोतों के सूकने का कारण अनियोजित विकास और बढ़ती आबादी के साथ चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों का कटान भी है। जिस कारण अभी से उत्तराखंड के कई इलाकों में जल संकट गहरा रहा है। नीति आयोग की रिपोर्ट में भी बताया गया था कि ‘‘भारत में करीब 5 मिलियन स्प्रिंग्स है, जिनमें से 3 मिलियन स्प्रिंग्स इंडियन हिमालय रीजन में हैं। उत्तराखंड में लगभग ढाई लाख नौले-धारे व अन्य स्प्रिंग्स हैं, जिन पर पर्वतीय गांव पानी के लिए निर्भर हैं,लेकिन उत्तराखंड में 12 हजार से ज्यादा नौले-धारे व स्प्रिंग्स या तो सूख गए हैं या सूखने की कगार पर हैं। अकेले अल्मोड़ा जिले में 83 प्रतिशत स्प्रिंग्स सूख गए हैं।प्रदेश में जो बाकी स्प्रिंग्स बचे हैं, उन पर भी खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि पहाड़ अब शहर बनते जा रहे हैं। बड़े पैमाने पर यहां की भौगोलिक परिस्थितियों को नजरअंदाज कर निर्माण कार्य किया जा रहा है। जिससे पहाड़ों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है। इन निर्माण कार्यो के लिए वहां की भौगोलिक स्थिति और जैव-विविधता को बनाए रखने वाले पेड़ों को काट दिया जाता है। जो न केवल वहां के पर्यावरण में बदलाव लाता है, बल्कि जल की उपलब्धता भी कम होने लगती है। स्रोत सूखने लगते हैं। इसका जीता जागता उदाहरण – देहरादून में रिस्पना और बिंदाल नदी है। इन दोनों नदियों को पानी देने वाले स्रोत सूखे चुके हैं। नदियों के किनारे अतिक्रमण कर पक्के निर्माण किए जा चुके हैं। यही सब गंगा और यमुना नदी के साथ हो रहा है। बरसाती नदियों पर भी अतिक्रमण किया गया है। हर साल बारिश कम होने से बरसाती नदियों में भी पानी की मात्रा घट गई है। दरअसल, पानी के स्रोत सूखने या उनमें पानी कम होने से पर्वतीय इलाकों लोग तो प्रभावित होते ही हैं, साथ नदियों में पानी कम होने से मैदानों को भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। उत्तराखंड के ग्रीन एंबेसडर जगत सिंह जंगली ने बताया कि यदि ऐसा नहीं किसा जाता, तो जलस्रोतों पर मंडराता खतरा भविष्य में भयानक परिणाम सामने ला सकता है।पहाड़ के लोगों के तमाम दर्द हैं, लेकिन जल संकट का दर्द पहाड़ की समस्या बनता जा रहा है। राज्य के 12 लाख 45 हजार 472 घरों में पानी का नल नहीं है। ये लोग पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न जलस्रोतों पर निर्भर हैं। पर्वतीय इलाकों में जिन घरों में पानी के नल हैं, उनके घरों तक पानी नदियों, झील और प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित पेयजल योजनाओं के माध्यम से आता है, लेकिन अधिकांश प्राकृतिक जलस्रोत सूख चुके हैं, जो बचे हैं उनमें से अधिकांश प्रदूषित हैं। कई नदियां सूखने की कगार पर हैं। झीलों के जलस्तर में भी गिरावट आई है। ऐसे में पहाड़ के कई इलाकों को पानी के लिए मशक्कत करनी पड़ती है। इसलिए जल जीवन मिशन के तहत हर घर को नल से जल देने की योजना है, लेकिन पहाड़ में घटते और प्रदूषित होते जल के बीच इस योजना की राह आसान नहीं होगी। लेकिन सबसे जरूरी है, रोपे गए पौधों की देखभाल करना। ये कार्य सभी गांवों को अपने अपने स्तर पर करना होगा और पेड़ों की देखभाल अपने बच्चों की तरह ही करनी होगी। तभी हम अपने पहाड़ों और भविष्य को सुरक्षित रख पाएंगे।विश्व में जल के कुल प्राकृतिक स्रोतों का मात्र 4 प्रतिशत ही इस देश में पाया जाता है। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ देश के एक बड़े भू-भाग के लिये जल उपलब्ध कराती हैं और इन नदियों के जल का मुख्य स्रोत हिमालय क्षेत्र में झरनों जैसे ही जल के अन्य प्राकृतिक स्रोत हैं (उदाहरण- देवप्रयाग में गंगा का मुख्य स्रोत लगभग 27 प्रतिशत ग्लेशियर व 73 प्रतिशत जल के अन्य प्राकृतिक स्रोत)। ऐसे में यदि हिमालय क्षेत्र के वर्तमान जल संकट पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो शीघ्र ही यह पूरे भारत के लिये एक बड़ी समस्या बन सकता है।जल संकट का प्रभाव पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि पर भी देखने को मिला है। उदाहरण के लिये पानी की कमी से सिक्किम में बड़ी इलायची की खेती में कमी। भारतीय हिमालय क्षेत्र में लगभग 60 हज़ार गाँव हैं, इनमें रहने वाले लोगों की पूरी जीवनशैली प्राकृतिक झरनों पर निर्भर है। प्राकृतिक झरनों में जल की कमी और प्रदूषण बढ़ने से आस-पास के क्षेत्रों में संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाएगा। यदि वर्तमान जल संकट का निवारण नहीं किया गया तो आगामी वर्षों के दौरान शहरों में बढ़ती जनसंख्या के लिये साफ पानी उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती होगी।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.

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