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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जिस जंगली पौधे सीबकथोर्न के उत्पादों का सेवन कर सेना के जवान चुस्त-दुरुस्त रहते हैं, वह निकट भविष्य में जनता के लिए भी सुलभ हो सकेगा। डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) के डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ हाई एल्टीट्यूड रिसर्च (लेह लद्दाख) के प्रयास से कृषि मंत्रालय ने उत्तराखंड समेत चार प्रदेशों में सीबकथोर्न को वन उपज की जगह कृषि उपज के रूप में मान्यता दे दी है। इससे कृषि सेक्टर की विभिन्न योजनाओं का लाभ सीबकथोर्न की उपज बढ़ाने में मिल सकेगा। अमेज का मूल यूरोप तथा एशिया से माना जाता है, वर्तमान में इसकी अच्छी मांग और उपयोगिता को देखते हुए अमेरिकी देशों में भी उगाया जाने लगा है। भारत के उच्च हिमालयी राज्यों उत्तराखण्ड, हिमाचल तथा जम्मू कश्मीर आदि में यह 2000 से 3600 मीटर (समुद्र तल से) तक की ऊॅचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी, चमोली तथा पिथोरागढ जनपद में इसका बहुतायत उत्पाद होता है। इसे उत्तरकाशी में अमील, चमोली में अमेश तथा पिथोरागढ में चुक के नाम से जाना जाता है।अमेश को हिपोपी भी कहा जाता है और इसमें लगने वाले फल को ही मुख्य रूप से उपयोग में लाया जाता है जिससे जूस, जेम, जेली तथा क्रीम आदि निर्मित कर उपयोग में लाया जाता है। विभिन्न वैज्ञानिक विश्लेषणों तथा इस पर हुए शोध के अनुसार यह एक विशेष पौष्टिक तथा औषधीय फल है। जिसमें कुछ विशेष औषधीय रसायन होने के कारण विभिन्न औषधीय गुण है। इसके एसेंसियल ऑयल में लगभग 190 प्रकार के बायोएक्टिव अवयव पाये जाते है। जिसकी वजह से इसके ऑयल की अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में खास मांग रहती है। प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा अन्य अमीनों एसिड की अच्छी मात्रा होने के साथ यह कैल्शियम, फास्फोरस तथा आयरन का अच्छा प्राकृतिक स्रोत है। इसमें विटामिन सी की मात्रा 695 मिग्रा/100ग्रा जो कि नीबू तथा संतरे से भी अधिक है, विटामिन ई -10 मिग्रा/100ग्रा तक तथा केरोटिन 15मिग्रा/100ग्रा तक पाये जाते है। इसके अलावा यह विटामिन के का एक अच्छा प्राकृतिक स्रोत है जो कि इसमें 230 मिग्रा/100ग्रा तक पाया जाता है। इसके फल का एक अलग ही स्वाद शायद ही किसी अन्य फल से मेल रखता हो जो कि इसमें मौजूद वोलेटायल अवयव जैसे कि इथाइल डोडेसिलोएट, इथाइल औक्टानोएट, डीलानौल, इथाइल डीकानोएट तथा इथाइल डोडेकानोएट आदि के कारण होता है। इसके अलावा यह एक अच्छा प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट का भी स्रोत है जो कि इसमें उपस्थित एस्कोर्बिक एसिड, टोकोफेरोल, कैरोटेनोइडस, फ्लेवोनोइडस आदि के कारण है। अच्छे पोषक तथा औषधीय रसायनों के कारण इसका उपयोग पाचन, अल्सर, हृदय, कैंसर तथा त्वचा रोगों में परम्परागत ही किया जाता है। वर्तमान में अमेज से निर्मित विभिन्न व्यवसायिक उत्पाद जैसे एनर्जी ड्रिंक्स, स्किन क्रीम, न्यूट्रिशनल सप्लिमेंटस, टॉनिक, कॉस्मेटिक क्रीम तथा सेम्पू आदि बाजार में उपलब्ध है। यह त्वचा कोशिका तथा म्यूकस मेम्ब्रेन रिजेनेरेशन आदि में प्रभावी होने के कारण कॉस्मेटिक में खूब प्रयोग किया जाता है। रोमेनियो द्वारा इससे निर्मित क्रीम तथा शैम्पू विकसित कर अन्तर्राष्ट्रीय पेटेंट किया गया है। इसके अलावा अमेज को अच्छा नाइट्रोजन फिक्सेशन करने वाला पौधा भी माना जाता है जो कि लगभग 180मिग्रा/हैक्टअर प्रतिवर्ष नाइट्रोजन फिक्शेसन करने की क्षमता रखता है जो कि मिट्टी की उर्वरकता में प्रभावी होता है। विश्वभर में अमेज से निर्मित विभिन्न उत्पादों की बढती मांग को देखते हुए इसका अच्छी मात्रा में उत्पादन किया जाता है। पूरे विश्व के सम्पूर्ण उत्पादन का लगभग 90 प्रतिशत उत्पादन चीन, रूस, कनाडा, मंगोलिया तथा उतरी यूरोप में होता है। प्राकृतिक रूप में लगभग 750 से 1500 किग्रा बेरी प्रति हैक्टेयर उत्पादन जंगलों से प्राप्त होता है। चीन में इसके लगभग 200 से अधिक प्रोसेसिंग प्लांट हैं। विस्तृत वैज्ञानिक तथा शोध अध्ययन के अनुसार अमेज की पौष्टिक तथा औषधीय महत्ता को देखते हुए पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड की आर्थिकी का बेहतर विकल्प बनाया जा सकता है। प्रदेश में इसके वैज्ञानिक तथा औद्योगिक तथ्यों के प्रचार प्रसार की आवश्यकता है जिससे कि इसे भी एक स्वरोजगार का उतम विकल्प बनाया जा सके। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तनाव के बीच चीन से 2300 टन सीबकथोर्न (छरमा) का आयात बंद हो गया है। इससे देश में 120 वस्तुओं के उत्पादन पर संकट खड़ा हो गया है। इनमें इम्युनिटी बूस्टर च्यवनप्राश, चाय, जूस और जैम जैसे उत्पाद शामिल हैं। कच्चा माल न मिलने से परेशान हरियाणा के फरीदाबाद की कंपनी बॉयोसॉश बिजनेस प्राइवेट लि. ने हिमाचल सरकार को पत्र लिखकर जनजातीय जिलों में करीब 2000 हेक्टेयर वन क्षेत्र में सीबकथोर्न लगाकर देश में इसकी कमी को पूरा करने का आग्रह किया वर्तमान में देश में करीब 3000 टन सीबकथोर्न की जरूरत है जबकि देश में मात्र 700 टन उपलब्ध है। वर्ष 2025 में देश में 5000 टन सीबकथोर्न की जरूरत होगी। कंपनी की ओर से लाहौल-स्पीति सीबकथोर्न को-ऑपरेटिव सोसायटी के अध्यक्ष को भी यह पत्र भेजा गया था अध्यक्ष ने कहा कि एक दशक से भी अधिक समय से जनजातीय इलाकों में वन क्षेत्र में सीबकथोर्न लगाने को लेकर काम किया जा रहा है। जनजातीय जिला लाहौल स्पीति में सीबकथोर्न की खेती के लिए पिछले दो दशकों से काम चल रहा है। कुल्लू से शिमला तक कई कार्यशालाएं हो चुकी हैं लेकिन वन विभाग ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। डेढ़ साल पहले सीबकथोर्न एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने सरकार के आदेश पर 250 करोड़ के प्रोजेक्ट का प्रस्ताव भी भेजा पर वह फाइलों में धूल फांक रहा है। लाहौल-स्पीति, किन्नौर और पांगी वन क्षेत्र की 6000 हेक्टेयर जमीन पर सीबकथोर्न को लगाने के लिए यह प्रस्ताव भेजा गया था। मई 2018 में जम्मू यूनिवर्सिटी में प्रधानमंत्री ने भी लेह, लद्दाख सहित बर्फीले क्षेत्रों में सीबकथोर्न लगाने की बात कही थी। बावजूद इसके सरकारी अमला नहीं जागा। यह दुनिया का ऐसा एकलौता फल है। जिसमें ओमेगा 7 फैटी एसिड पाया जाता है। जिस तरह यह फल हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहतर है। उसी तरह की पत्तियां किसी चीज में कम नहीं है। इसके इतने अधिक स्वास्थ्य लाभ है कि आज के समय में 120 से अधिक वैज्ञानिक इसका अध्ययन कर रहे है। आज इससे लेह बेरी नाम का ऐसा जूस तैयार किया जाता है, जो माइनस 20 डिग्री में भी तरल ही रहता है। इसके अलावा उच्च हिमालयी क्षेत्रों सूरज की अल्टावॉयलेट (यूवी) किरणों से जवानों को बचाने के लिए एसपीएफ (सन प्रोटेक्शन फैक्टर)-45 का सन्सक्रीन लोशन तैयार किया गया है। साथ ही इसके पत्तों की चाय समेत तमाम ऐसे उत्पाद तैयार किए जा चुके हैं, जिससे हमारे जवान फिट हर मौसम में फिट रहते हैं। सबसे अच्छी बात यह कि इस वन उपज को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू एंड कश्मीर, सिक्किम में कृषि उपज का दर्जा मिल जाने के बाद अन्य क्षेत्रों में भी इसकी पैदावार को बढ़ावा मिलेगा, जिससे इसके उत्पादों की पहुंच आमजन तक भी हो पाएगी। सीबकथोर्न लगाने से लोगों को रोजगार मिलेगा, पर्यावरण संरक्षण भी हो सकेगा।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय है.

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