भीष्म अष्टमी के दिन करें तिल कुशा और गंगाजल से भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण

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भीष्म अष्टमी के दिन करें तिल कुशा और गंगाजल से भीष्म पितामह के निमित्त तर्पण,,,,, भीष्म अष्टमी एक महान पर्व है। पंचम वेद कहे जाने वाले सनातन धर्म के महाकाव्य महाभारत के भीष्म को समर्पित है यह पावन दिन। मुख्य रूप से उन लोगों के लिए तो यह दिन बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है जोकि पितृदोष से छुटकारा चाहते हैं। इस दिन प्रत्येक हिंदू को भीष्म पितामह के निमित्त कुशा तिल व जल लेकर तर्पण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुंदर एवं गुणवान संतान के लिए यह व्रत किया जाता है। इस पावन दिन तिल कुशा और जल से पितामह भीष्म के निमित्त तर्पण करने का विधान है। ऐसा करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत से पित्र दोष से भी मुक्ति मिलती है।
भीष्म अष्टमी का महत्व,,,,,,,,। मान्यता के अनुसार भीष्म अष्टमी का व्रत जो व्यक्ति करता है उसके सभी पाप नष्ट होते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में बताया गया है कि किस प्रकार अर्जुन के बाणों से घायल होकर महाभारत के युद्ध में जख्मी होने के बाद भी भीष्म पितामह सर शैय्या पर लेटे थे। इसके बाद माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के पावन दिन पावन तिथि को पितामह भीष्म को मोक्ष प्राप्त हुआ। पितामह भीष्म 58 दिनों तक बाणों की शैया पर लेटे रहे। युद्ध समाप्त होने के बाद जब सूर्य देव दक्षिणायन से उत्तरायण हुए तब उन्होंने अपने प्राणों का त्याग किया। क्योंकि उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। अतः योग क्रिया के द्वारा उन्होंने अपने प्राण त्याग किए। भीष्म पितामह ने प्राणवायु रोककर जिस जिस अंग के ऊपर चढ़ाते जाते वहां के घाव भर जाते थे कुछ समय उपरांत उनके सभी घाव भर गए और परम प्राण ब्रह्मांड अर्थात मस्तक को फोडकर निकल गए।
महत्वपूर्ण पौराणिक कथा, ,,,,,,,, पंचम वेद कहे जाने वाले धार्मिक ग्रंथ महाभारत के अनुसार गंगा पुत्र देवव्रत अर्थात भीष्म की माता देवी गंगा अपने पति को दिए वचन के अनुसार अपने पुत्र को अपने साथ ले गई थी। देवव्रत अर्थात भीष्म पितामह की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा और लालन-पालन उसकी माता के पास ही पूर्ण हुआ। उन्होंने महर्षि परशुराम जी से अस्त्र शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी। दैत्य गुरु शुक्राचार्य से भी उन्होंने बहुत कुछ सीखा। जब देवव्रत की शिक्षा पूर्ण हुई उन्हें उनकी माता ने उनके पिता हस्तिनापुर के महाराज शांतनु को सौंप दिया कई वर्षों के बाद पिता पुत्र का मिलन हुआ और महाराज शांतनु ने अपने पुत्र को युवराज घोषित कर दिया,
भीष्म प्रतिज्ञा, ,,,,,,, एक समय राजा शांतनु शिकार खेलते खेलते गंगा तट के पास चले गए। वहां से लौटते समय उनकी भेंट हरिदास केवट की पुत्री सत्यवती से हुई। सत्यवती बहुत ही रूपवान थी। उसे देखकर शांतनु उसके लावण्य पर मोहित हो गए। राजा शांतनु हरिदास के पास जाकर उसका हाथ मांगते हैं। परंतु वह राजा के प्रस्ताव को ठुकरा देता है। और कहता है कि महाराज आपका जेष्ठ पुत्र देवव्रत है जो आपके राज्य का उत्तराधिकारी है। यदि आप मेरी कन्या के पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनने की घोषणा कर दे तो मैं सत्यवती का हाथ देने को तैयार हूं। परंतु राजा शांतनु को यह प्रस्ताव किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं था। और वे हरिदास केवट के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। ऐसे ही समय व्यतीत होता जा रहा था। लेकिन महाराज शांतनु सत्यवती को न भुला सके। और दिन-रात उसकी याद में व्याकुल रहने लगे। यह सब देख कर एक दिन देवव्रत ने अपने पिता से व्याकुलता का कारण पूछा संपूर्ण वृतांत जानने के बाद देवव्रत स्वयं हरिदास केवट के यहां गए। और उसकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए गंगाजल हाथ में लेकर प्रतिज्ञा लेते हैं कि ” मैं गंगा पुत्र देवव्रत आज से प्रतिज्ञा करता हूं कि आजीवन अविवाहित ही रहूंगा।” देवव्रत को इस कठिन प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा। तब राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। महाभारत के युद्ध की समाप्ति पर जब सूर्य देव दक्षिणायन से उत्तरायण हुए तब भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्यागे। इसलिए माघ शुक्ल पक्ष अष्टमी को उनका निर्वाण दिवस मनाया जाता है।
शुभ मुहूर्त–इस बार भीष्म अष्टमी दिनांक 28 जनवरी 2023 दिन शनिवार को मनाई जाएगी।

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