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पोषक तत्त्वों से भरपूर मोटे अनाज
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने भारत द्वारा प्रायोजित एक प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया है। इसके तहत 2023 को ‘मोटे अनाज का अंतरराष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया गया है। मोटे अनाज में बाजरा, ज्वार, जौ या कोदी जैसी फसलें आती हैं। इस प्रस्ताव का 70 से अधिक देशों ने समर्थन किया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने ट्वीट किया, ‘यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि भारत द्वारा प्रायोजित प्रस्ताव को आज सुबह आम सहमति से स्वीकार कर लिया गया। प्रस्ताव के तहत 2023 को मोटे अनाज का अंतरराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया है।’उन्होंने कहा, ‘विश्व में जौ, ज्वार या बाजरे के पोषक और पारिस्थितिकी लाभ को प्रोत्साहित करने की दिशा में यह बड़ा कदम है।’ तिरुमूर्ति ने प्रस्ताव के समर्थक देशों- बांग्लादेश, केन्या, नेपाल, नाइजीरिया, रूस, सेनेगल और अन्य के प्रति आभार जताया। 193 देशों के सदस्य वाली संयुक्त राष्ट्र महासभा का यह फैसला भारत की दृढ़ इच्छाशक्ति को भी दर्शाता है। तिरुमूर्ति ने कहा, बाजरा का उत्पादन कई देशों में घट रहा है जबकि इसकी खेती काफी व्यापक रही है। ऐसे में इसे लाभ पहुंचाने की तत्काल आवश्यकता है।उत्तराखंड की पहाड़ियों में बाजरा की किस्में भोजन का प्रमुख हिस्सा है। उत्तराखंड सरकार जैविक खेती का समर्थन करती रही है। यूकेएपीएमबी एक अनूठी पहल के माध्यम से जैविक प्रमाणीकरण प्राप्त के लिए हजारों किसानों का समर्थन कर रहा है। ये किसान मुख्य रूप से रागी, बार्नयार्ड मिलेट, अमरनाथ आदि जैसे बाजरा की किस्में पैदा करते हैं।डेनमार्क को बाजरा के निर्यात से यूरोपीय देशों में निर्यात के अवसरों का विस्तार होगा। निर्यात से जैविक खेती से जुड़े हुए हजारों किसानों को भी फायदा मिलेगा। उच्च पोषकता और ग्लूटेन मुक्त होने के कारण भी बाजरा विश्व स्तर पर बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रहा है देवभूमि में पिघली हुई बर्फ से बने गंगा जल से उगाए गए बाजरे की पहली खेफ उत्तराखंड से डेनमार्क को निर्यात की जाएगी। हिमालय में उगाई गई जैविक बाजरे की इस पहली खेप की उत्तराखंड कृषि उत्पाद विपणन बोर्ड (यूकेएपीएमबी) ने राज्य के किसानों से सीधे खरीद की और जिन्हें मंडी बोर्ड द्वारा निर्मित और जस्ट ऑर्गेनिक द्वारा संचालित अत्याधुनिक प्रसंस्करण इकाई में प्रसंस्कृत किया गया है 60 के दशक में आई हरित क्रांति के दौरान हमने गेहूं और चावल को अपनी थाली में सजा लिया और मोटे अनाज को खुद से दूर कर दिया. जिस अनाज को हम साढ़े छह हजार साल से खा रहे थे, उससे हमने मुंह मोड़ लिया और आज पूरी दुनिया उसी मोटे अनाज की तरफवापसलौटरहीहै.पिछले दिनों आयुष मंत्रालय के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने भी मोटे अनाज की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने पर बल दिया. पीएम मोदी बोले, ‘आज हम देखते हैं कि जिस भोजन को हमने छोड़ दिया, उसको दुनिया ने अपनाना शुरू कर दिया. जौ, ज्वार, रागी, कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, ऐसे अनेक अनाज कभी हमारे खान-पान का हिस्सा हुआ करते थे. लेकिन ये हमारी थालियों से गायब हो गए. अब इस पोषक आहार की पूरी दुनिया में डिमांड है.’। मोटा अनाज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उत्पादन में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती. ये अनाज कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं. धान और गेहूं की तुलना में मोटे अनाज के उत्पादन में पानी की खपत बहुत कम होती है. इसकी खेती में यूरिया और दूसरे रसायनों की जरूरत भी नहीं पड़ती. इसलिए ये पर्यावरण के लिए भी बेहतरहै.ज्वार, बाजरा और रागी की खेती में धान के मुकाबले 30 फीसदी कम पानी की जरूरत होती है. एक किलो धान के उत्पादन में करीब 4 हजार लीटर पानी की खपत होती है, जबकि मोटे अनाजों के उत्पादन नाममात्र के पानी की खपत होती है. मोटे अनाज खराब मिट्टी में भी उग जाते हैं. ये अनाज जल्दी खराब भी नहीं होते. 10 से 12 साल बाद भी ये खाने लायक होते हैं. मोटे बारिश जलवायु परिवर्तन को भी सह जाती हैं. ये ज्यादा या कम बारिश से प्रभावित नहीं होती. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी वर्ष 2023 को ‘अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष’ के रूप में घोषित किया है संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत के प्रस्ताव को मिली सफलता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया कि मोटे अनाजों को लोकप्रिय बनाने के मोर्चे पर जुटा भारत इस फैसले से सम्मानित महसूस कर रहा है। इससे न सिर्फ खाद्य सुरक्षा और किसानों के कल्याण को बल मिलता है, बल्कि यह कृषि वैज्ञानिकों और स्टार्ट-अप समुदाय के लिए शोध और नवोन्मेष के द्वार भी खोलता है। कृषि अर्थशास्त्री और कर्नाटक कृषि मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष टीएन प्रकाश कामराड़ी ने कहा कि बाजरा में जलवायु, पोषण और सांस्कृतिक भाग के तीन अलग-अलग आयाम हैं। “यह इसलिए है क्योंकि वे जलवायु-लचीले हैं और शुष्क खेत की खेती के अनुकूल हैं। इसी तरह, उनके पास उच्च पोषण मूल्य है। वे संस्कृति से भी संबंधित हैं क्योंकि वे भोजन की आदतों का एक अभिन्न अंग हैं, ”उन्होंने कहा।एक अंतरराष्ट्रीय अभियान के अलावा, उत्पादन के पहलुओं पर ध्यान देने की सख्त जरूरत थी, उन्होंने कहा, यह बताते हुए कि बाजरा की खेती के क्षेत्र में राज्य और देश दोनों में कमी आई थी। “अगर हमें संयुक्त राष्ट्र के 2023 को मिल्ट्स वर्ष के रूप में घोषित करने के अवसर को भुनाने की आवश्यकता है, तो हमें उत्पादकों के बीच जागरूकता पैदा करके बाजरा की खेती के तहत क्षेत्र का विस्तार करने के लिए अच्छी योजना बनाने की जरूरत है,” कोरोना काल में संक्रमण के खतरे से बचाव व पौष्टिकता के लिहाज से मोटे अनाजों की मांग बढ़ी है। सरकार इसकी खेती करने पर भी जोर दे रही है। किसान भी वक्त की मांग समझ खरीफ की फसल में बाजरा, ज्वार, सांवा, कोदो व दलहनी फसल तो बोना चाह रहे हैं, लेकिन उन्हें इसका बीज नहीं मिल पा रहा है। देश में मोटे अनाजों की खेती और वितरण को प्रोत्साहन दिये जाने के नियमों में बदलाव लाने का समय आ गया है।’’ सरकार मोटे अनाज की पैदावार पर जोर तो दे रही है लेकिन इनके लिए अलग से सरकारी खरीद केंद्र और भंडारण की कोई व्यवस्था नहीं है। इस बारे के मुताबिक, ” मोटे अनाज को बढ़ावा देना तो अच्छी बात है लेकिन किसानों को इसका पूरा लाभ मिलना चाहिए। इसके लिए देश में इसके लिए पहले सरकारी खरीद केंद्र और भंडारण की व्यवस्था ठीक होनी चाहिए। अन्य उत्पादों की तरह ऐसा न हो कि फसल बारिश में खराब हो जाये। साथ ही किसानों को उचित मूल्य भी मिलना चाहिए।” एक चुनौती मोटे अनाज की पैदावार बढ़ाने की भी है। भारतीय कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1966 में देश में करीब 4.5 करोड़ हेक्टेयर में मोटा अनाज उगाया जाता था जबकि अब इसका रकबा घटकर ढाई करोड़ हेक्टेयर के आसपास रह गया है। भारत में पैदा होने वाले कुल अनाज उत्पादन में चावल का हिस्सा 44 प्रतिशत है और खरीफ के मौसम में कुल खाद्यान्न उत्पादन में 73 प्रतिशत चावल शामिल रहता है। खरीफ के दौरान शेष 27 प्रतिशत अनाज उत्पादन में मक्का (15%), बाजरा (8%), ज्वार (2.5%) और रागी (1.5%) शामिलहैं। हरिद्वार के किसानों के खेतों में उत्पादित करी पत्ता, भिंडी, नाशपाती और करेला सहित सब्जियों की पहली खेप आज संयुक्त अरब अमीरात के दुबई को निर्यात की गई। सब्जियों का निर्यात उत्तराखंड में उगाए गए बाजरा की एक खेप के मई, 2021 में डेनमार्क को निर्यात करने के बाद हुआ है। उत्तराखंड से कृषि उत्पादों के निर्यात को यह बड़ा प्रोत्‍साहन है। उत्तराखंड कृषि उत्पाद विपणन बोर्ड (यूकेएपीएमबी) तथा निर्यातक जस्ट ऑर्गेनिक के सहयोग से एपीडा ने निर्यात के लिए उत्तराखंड के किसानों से रागी और झिंगोरा लेकर प्रसंस्‍कृत किया, जो यूरोपीय संघ के जैविक प्रमाणन मानकों को पूरा करता है।वर्ष 2019-20 में 10114 करोड़ रुपये के समान निर्यात की तुलना में 2020-21 में भारत ने 11019 करोड़ रुपये के फलों एवं सब्जियों का निर्यात किया, जो 9 प्रतिशत की वृद्धि को प्रदर्शित करता है।एपीडा खाद्य उत्पादों के निर्यात के लिए बाजार संवर्धन गतिविधियां, सूचित निर्णय लेने के लिए मार्केट इंटेलीजेंस, अंतर्राष्ट्रीय अनुभव, कौशल विकास, क्षमता निर्माण और उच्च गुणवत्ता वाली पैकेजिंग का कार्य करता है।उत्तराखंड सरकार जैविक खेती में सहायता करती रही है। यूकेएपीएमबी जैविक प्रमाणन के लिए किसानों की सहायता करता रहा है। ये किसान मुख्य रूप से रागी, झिंगोरा, चौलाई आदि जैसे मोटे अनाजों का उत्पादन करते हैं कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) उत्तराखंड को भारत के कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों के निर्यात मानचित्र पर लाने के लिए प्रचार संबंधी गतिविधियाँ करता रहा है।एपीडा उत्तराखंड में एक पैक हाउस स्थापित करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने की योजना बना रहा है, जो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ताजे फल और सब्जियों के निर्यात के लिए अनिवार्य आवश्यकता या बुनियादी ढांचे की जरूरत को पूरा करेगा।एपीडा कृषि उपज की पूरी आपूर्ति श्रृंखला को सुदृढ़ करनेके जरिये खरीददारों को किसानों से जोड़कर क्षमता निर्माण, गुणवत्ता उन्नयन और बुनियादी ढांचे के विकास, दोनों प्रकार से उत्तराखंड क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना जारी रखेगा।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय है.

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