श्रावणी उपा कर्म व यजुर्वेदी उपा कर्म का क्या है महत्त्व

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श्रावणी उपा कर्म यजुर्वेदी उपा कर्म,,,,,,,, श्रावण का अर्थ है सुनना और उपा कर्म का अर्थ है प्रारंभ करना अथवा शुरू करना। अब सुनना क्या है? और शुरू क्या करना है? आज हमारा हिंदू धर्म मात्र नाम हिंदू धर्म रह चुका है। यदि विश्वास नहीं है तो जांच कर देख लीजिए। लगभग 50% लोगों को जिन्होंने उपनयन संस्कार या यज्ञोपवित संस्कार या जनेऊ संस्कार के बाद कुछ महीने तक ही यज्ञोपवीत धारण किया होगा। जब उनसे पूछा जाए कि ऐसा क्यों? तो जवाब मिलता है कि हम इसे धारण करने के बाद इसका नियम परहेज आदि नहीं कर पाते हैं। खैर यह तो मानने न मानने की बात है। हिंदू धर्म में 16 संस्कारों में उपनयन संस्कार बहुत ही महत्वपूर्ण है सर्वप्रथम आप उपनयन का अर्थ भी समझ लीजिए। उपनयन का अर्थ है उप अर्थात पास या समीप या नजदीक और नयन का अर्थ है ले जाना। आज समय बहुत बदल गया है प्राचीन काल में तो श्रावणी उपा कर्म का बहुत महत्व था जबकि बालकों को शिक्षा ग्रहण हेतु गुरुकुल भेजा जाता था। उन्हें द्विज बनाया जाता था। वेद पाठ के द्वारा उनमें वैदिक संस्कार डाले जाते थे। परंतु अब ऐसा नहीं होता। अब बस यज्ञोपवीत संस्कार और तर्पण ही रह गया है। जो वैदिक एवं वेद पाठी ब्राह्मण है यह कर्म करते हैं। अब मैं पाठकों को बताना चाहूंगा की यह श्रावणी उपा कर्म क्या होता है? यह 10 विधि स्नान कर मनाया जाता है। इसमें पितरों तथा आत्म कल्याण के लिए मंत्रों के साथ हवन यज्ञ में आहुतियां दी जाती हैं। इस महत्वपूर्ण दिन पित्र तर्पण और ऋषि तर्पण भी किया जाता है। ऐसा करने से पितरों का आशीर्वाद और सहयोग मिलता है। जिसके मिलने से जीवन के हर संकट समाप्त हो जाते हैं। श्रावणी गुफा क्रम में वैदिक विधि से हेमाद्रिप्राक्त, प्रायश्चित संकल्प, सूर्य आराधन स्नान तर्पण सूर्योपासना यज्ञोपवीत धारण प्राणायाम अग्निहोत्र तथा ऋषि पूजन किया जाता है। प्रायश्चित संकल्प: इसमें हेमाद्री स्नान संकल्प गुरु के सानिध्य में ब्रह्मचारी गो दुग्ध दही गाय का घी गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्ष भर में जाने अनजाने में हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता देते हैं। स्नान के बाद ऋषि पूजन सूर्योपासना एवं यज्ञोपवीत पूजन करने के विधान हैं। 2- संस्कार। उपरोक्त कार्य के बाद नया जनेऊ धारण करना अर्थात आत्म संयम का संस्कार होना माना जाता है इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि जो व्यक्ति आत्मा संयमी है वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। 3 स्वाध्याय, उपकर्म का तीसरा पक्षी स्वाध्याय का है। इसका प्रारंभ सावित्री ब्रह्मा श्रद्धा निदा प्रज्ञा स्मृति सदसस्पति अनुमति छंद और ऋषि को वृत्त की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती है। इस यज्ञ के बाद वेद वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा 5 या 6 महीने तक चलती है। अब वर्तमान में वैदिक शिक्षा या गुरुकुल तो रहे नहीं प्रतीक के रूप में स्वाध्याय किया जाता है। इस बार सन् 2021 में दिनांक 22 अगस्त दिन रविवार को श्रावणी उपा कर्म यजुर्वेदी उपा कर्म मनाया जाएगा। इसके अतिरिक्त कुमाऊं में तिवारी एवं त्रिपाठी आदि सामवेदी ब्राह्मण हरतालिका तीज यानि भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीय को सामवेदी उपाकर्म होताहै। जो इस बार दिनांक 9 सितंबर 2021 दिन गुरुवार को है, और यदि बात करें देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं की तो यहां इस दिन जन्यो पुन्यू मनाई जाती है। इस दिन नई जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ बनाने और पहनने के पूरे नियम होते हैं विधान हैं प्राचीन समय में ऋषि मुनि ज्ञानी ध्यानी लोग होते थे वह आम और खास तक अपने उपदेशों को पहुंचाने की पूर्णाहुति के लिए सावन मास की पूर्णिमा का दिन ही चुनते थे। और अपने जज्बातों के हाथों में रक्षा का धागा बांधते थे। रक्षा सूत्र बांधने से तीनों देव अर्थात ब्रह्मा विष्णु महेश के साथ तीनों देवियां सरस्वती लक्ष्मी और पार्वती प्रसन्न होती है। रक्षा सूत्र बांधने के मुहूर्त में ऋषि तर्पण भी संपन्न किया जाता है। इस मुहूर्त के बीच सिर्फ भद्रा दोष नहीं होना चाहिए। कहा जाता है कि कर्क राशि कुंभ और मीन राशि के चंद्रमा में भद्रा हो तो इसका निवास भूलोक में अर्थात मनुष्य लोक में होता है इसका परिहार किया जाता है। यदि उस दिन शनिवार हो तो उसे वृश्चिक भद्रा कहा जाता है। यह सबसे अधिक कष्टकारी तथा अशुभ मानी जाती है। इसी प्रकार कन्या तुला धनु एवं मकर राशि के चंद्रमा में भद्रा का निवास पाताल में माना जाता है। मात्र मेष वृषभ मिथुन और वृश्चिक राशि के चंद्रमा में भद्रा का निवास स्वर्ग में माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा बलि के अति आत्मविश्वास व अभिमान की परीक्षा श्रावण पूर्णिमा के ही दिन विष्णु भगवान ने वामन अवतार लेकर की तभी ब्राह्मण लोग अपने जजमान को रक्षा सूत्र पहनाते समय निम्न मंत्र पढ़ते हैं।येन बध्दो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामनु बन्धामि रक्षे माचल माचल:।। हमारे पहाड़ में श्रावण शुक्ल की पूर्णिमा उपा कर्म व रक्षा सूत्र बंधन का प्रभु व त्यौहार है। ब्राह्मण वर्ग इस दिन उपवास रखते हैं। स्रोत नौले या नदी मैं वेद मंत्र के उच्चारण के साथ स्नान करते हैं। फिर गांव में किसी शिव मंदिर भूमिया मंदिर या कुल इष्ट मंदिर में इकट्ठा होते हैं और ऋषि तर्पण किया जाता है। वेद मंत्रों का उच्चारण होता है। और सभी जनेऊ तथा रक्षा के धागे प्रतिष्ठित करे जाते हैं। और फिर उचित मुहूर्त में जनेऊ बदली जाती है। और वर्ष भर के लिए जनेऊ बदलने के लिए प्रतिष्ठित की जाती है। पंडित जन अपने यजमान के घर जा कर उन्हें जनेऊ देते और रक्षा सूत्र बांधते हैं। पाठकों को एक महत्वपूर्ण बात बताना चाहूंगा इस बात का हमेशा ध्यान रखिएगा। कुछ भक्त नियम पूर्वक जनेऊ नहीं बदलते हैं। जनेऊ बदलने का नियम है सर्वप्रथम नई जनेऊ धारण करें पुरानी जनेऊ को एक साथ मिला लें। इसके बाद पुरानी जनेऊ उतारने चाहिए। नई जनेऊ धारण करने का मंत्र– यज्ञोपवीतं परंम पवित्रं प्रजापतेयतर्तसहजं पुरस्तात।आयुष्य मग्र प्रतिमुन्च शुभ्रम यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।। फिर इसके उपरांत कम से कम 11 बार गायत्री मंत्र का स्मरण करें। अब प्रिय पाठकों को जनेऊ बनाने की विधि भी बताना चाहूंगा। जनेऊ बनाने के बड़े महत्वपूर्ण नियम है। सर्वप्रथम कपास को 3 दिन धूप में सुखा कर रुई निकाल उसे साफ किया जाता था रुई की पोनी जिसे तकुए में आता जाता था। इसे घुमाने और बाएं हाथ पर रुई की डोर हवा में ऊपर उठाए धागा बनाते थे। अब बाजार से बारीक धागा मिलता है उसे कछुए में बट देकर तैयार किया जाता है इसे 3 गुना करके पूरा जाता है। फिर कछुए में बट देकर पुनः 3 गुना करते हैं। आता है नौ तंतु मिलकर एक धागा तैयार होता है। धागा पूरते समय इसे 4 अंगुलियों में 96 बार लपेट कर बनाया जाता है। 96 बार इसलिए क्योंकि 96 की संख्या मैं 32 तो हुई विधाएं जिनमें ऋग्वेद आदि चार वेद फिर चार उपवेद 6 अंक 6 दर्शन तीन सूत्र ग्रंथ और 9 हुए अरण्यक शेष 64 कलायें होती हैं। जिनमें ललित कलायें है । तीन सूत्रों में जो सूत्र बटा होता है उसे ले कर जमीन में बैठकर अपने पैरों के आसन फैला दोनों मुड़े हुए घुटनों में लपेट कर तीन समान हिस्सों में बांटा जाता है। फिर सूत्र के दोनों सिरों में 5 ग्रंथि दी जाती है जिसमें पहली ग्रंथि ब्रह्मा जी की प्रतीक और 64 धर्म अर्थ काम और मोक्ष का बोध कराती हैं। इस प्रकार पहले तीन सूत्र का जनेऊ तैयार होता है। इसे व्यापक प्रतीकों का आधार दिया गया है। पहला ब्रह्मा विष्णु व महेश दूसरा तीन प्रकार के देव ऋण ऋषि ऋण एवं पित्र ऋण तथा तीसरा शक्तियों जैसे आदि दैविक आदि भौतिक एवं आध्यात्मिक चौथा 3 गुण सतोगुण रजोगुण एवं तमोगुण तथा पांचवा गायत्री के 3 चरणों व जीवन की तीन अवस्थाओं ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ का प्रतीक माना जाता है। सन्यास लेने पर जनेऊ उतारने की परिपाटी है।

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