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तबाही भरे अतीत से तंत्र ने नहीं लिया सबक
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड प्राचीनकाल से ही भूकंप, बाढ़, भूस्खलन व अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं की त्रासदी झेलता आ रहा है, मगर सरकार व सरकारी मशीनरी ने अतीत में हुई तबाही से भी कोई सबक नहीं लिया है। पिछले साढे तीन दशक में ही दैवीय आपदा की करीब एक दर्जन घटनाओं ने न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि पूरे देश को झकझोर कर रख दिया, लेकिन इसके बावजूद राज्य में आपदा प्रबंधन के ठोस व कारगर इंतजाम अब तक नहीं हो पाए।देवभूमि उत्तराखंड का इतिहास भी दैवीय आपदा से हुई त्रासदी की कई दिल दहला देने वाली दास्तां बयां करता है। नंदादेवी बायोस्फियर में स्थित रूपकुंड में सैकड़ों नरकंकाल भी किसी प्राकृतिक आपदा के प्रमाण माने जाते हैं। बहरहाल, पिछले साढ़े तीन दशक के अतीत पर ही नजर दौड़ाएं, तो प्राकृतिक आपदा की करीब दर्जनभर घटनाएं ऐसी हैं, जिसने उत्तराखंड ही नहीं समूचे देश को भी भीतर तक हिला दिया। पिछले तीन महीनों के दौरान उत्तराखंड अतिवृष्टि और भूस्खलन से होने वाले नुकसान की 7 घटनाएं हो चुकी हैं। लेकिन, इनमें तीन महीने में तीन ऐसी घटनाएं हुई, जिनमें जनहानि हुई।उत्तराखंड में मानसून आने के बाद बारिश का यह दूसरा दौरा शनिवार शाम से शुरू हुआ। शनिवार रात और रविवार दिन पर्वतीय क्षेत्रों में मैदानों की तुलना में कम बारिश दर्ज की गई। ज्यादातार पर्वतीय जिलों में तो शनिवार रात और रविवार शाम तक बारिश हुई ही नहीं, जबकि इस दौरान मैदानी क्षेत्रों में कई जगह 160 मिमी तक बारिश दर्ज की गई। रविवार शाम से राज्य के पर्वतीय इलाकों में बारिश तेज हुई और देर रात तक कई इलाकों में जबरदस्त बारिश शुरू हो गई। चमोली जिले में तो सामान्य से 800 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई। हालांकि यहां जनहानि नहीं हुई। लेकिन, इस दौरान पौड़ी में एक महिला की और अल्मोड़ा में पोकलैंड मशीन के चालक की मलबे में दबकर मौत हो गई। जबकि 19 जुलाई देर रात उत्तरकाशी जिले के भटवाड़ी ब्लाॅक के गांवों में हुई घटनाओं में अब तक तीन लोगों की मौत होने की सूचना है।इसके अलावा 3 मई को रुद्रप्रयाग जिले के खांखरा और उत्तरकाशी के चिन्यालीसौड़ में, 4 मई को चमोली के घाट में, 5 मई को अल्मोड़ा का चैखुटिया में और 11 मई को टिहरी जिले के देवप्रयाग में अतिवृष्टि और भूस्खलन से नुकसान होने की घटनाएं सामने आई। उत्तराखंड में हाल ही में आई विनाशकारी बाढ़ इस बात का सबूत है कि जलवायु संकट को अब नजरांदाज नहीं किया जा सकता। पिछले 20 सालों में उत्तराखंड ने 50 हजार हेक्टेयर से अधिक फारेस्ट कवर खो दिया है। उत्तराखंड में 1970 से बाढ़ घटनाएं चार गुना बढ़ गई हैं। राज्य के 85 प्रतिशत जिले बाढ़ और भूस्खलन के हॉट स्पॉट बने हैं। पिछले दो दशक में 50 हजार हेक्टेयर फारेस्ट कवर इन प्राकृतिक आपदाओं की भेंट चढ़ गया है। इसका कुप्रभाव स्थानीय जलवायु में बदलाव के रूप में सामने आया है जो बादल फटने, भूस्खलन और अचानक बाढ़ की बढ़ती घटनाओं की वजह बना है। यह खुलासा ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) के स्वतंत्र विश्लेषण में सामने आया है। काउंसिल की रिपोर्ट बता रही है कि उत्तराखंड में 85 प्रतिशत जिले अत्यधिक बाढ़ की चपेट में हैं। इनमें चमोली, नैनीताल, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, हरिद्वार सबसे अधिक प्रभावित हैं। आपदा की विभीषिका झेल रहे उत्तराखंड राज्य के नैनीताल और मसूर में लगने को स्वीकृत दो डाप्लर राडार सरकार आज तक यहां नहीं लगवा सकी है। इस स्वीकृति को पांच साल बीतने को हैं। आज सियासतदां बड़ी बड़ी बातें इस आपदा को लेकर कर रहे है। लेकिन दो नाली जमीन इन सत्ता दलों में से कोई डाप्लर राडार प्रणाली की स्थापना को नहीं दिला सके हैं। प्रदेश में नदियां लगातार अपने खतरे के निशान के करीब बह रही हैं. हालांकि, आपदा प्रबंधन विभाग का कहना है कि अभी कोई भी नदी अपने खतरे के निशान के ऊपर नहीं गई है. साथ ही कहना है कि जिस तरह से लगातार बारिश हो रही है अगर कहीं पर भी जलस्तर खतरे के निशान के ऊपर बहता है तो उसके बाद तुरंत तटीय इलाकों के लोगों को विस्थापित करने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी. पर्वतीय जिलों की लाइफ लाइन सड़कें ही मानी जाती हैं।ऐसे में लाव लश्कर के साथ लोक निर्माण विभाग के साथ ही आपदा प्रबंधन विभाग को भी मुस्तैद होना पड़ता है। यह तैयारी जून के पहले हफ्ते से शुरू होती है और कई बार चार धाम यात्रियों से तक राज्य सरकार को मानसून के दौरान यात्रा न करने की है। अब आपदा प्रबंधन विभाग का पुनर्गठन करेगी। आपदा प्रबंधन मंत्री ने इसका आदेश भी जारी कर दिया है। पुनर्गठन का यह प्रस्ताव कैबिनेट में लाया जाएगा। इसके लिए विभागीय नियमावली में संशोधन का भी फैसला किया गया है।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.

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