मसूरी अति भूकंपीय संवेदनशील (जोन-4) में है

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मसूरी अति भूकंपीय संवेदनशील (जोन-4) में है

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड
उत्तराखंड के हिल स्टेशन मसूरी और आसपास के 15 प्रतिशत इलाकों पर भूस्खलन का खतरा मंडरा रहा है. संस्थान की ओर से सोमवार को जारी बयान के मुताबिक भाटाघाट, जॉर्ज एवरेस्ट, केम्टी फॉल, खट्टापानी , लाइब्रेरी, गलोगीधर और हाथीपांव की बस्तियों पर बहुत अधिक भूस्खलन संभावित क्षेत्र है क्योंकि यहां पर खंडित चूना पत्थर की चट्टानें हैं और 60 डिग्री की ढलान है.अध्ययन के मुताबिक मसूरी जैसे पहाड़ी शहर लोकप्रिय हिल स्टेशन हैं और यहां कई बार भूस्खलन हो चुका है. इसकी वजह संभवत: विकास गतिविधियां हैं. बयान के मुताबिक, ‘आपदा खतरे को देखते हुए वैज्ञानिकों ने मसूरी और आसपास के इलाके में भूस्खलन की आशंका का आकलन किया जिससे पता चला कि 15 प्रतिशत इलाकों में भूस्खलन का खतरा है.बयान के मुताबिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन डब्ल्यूआईएचजी के वैज्ञानिकों ने मसूरी शहर और आसपास के 84 वर्ग किलोमीटर के लघु हिमालय क्षेत्र का अध्ययन किया. भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण (एलएसएम) को जर्नल ऑफ अर्थ सिस्टम साइंस में प्रकाशित किया गया है जिसके मुताबिक 29 प्रतिशत इलाकों में मध्यम दर्जे के भूस्खलन की आशंका है जबकि 56 प्रतिशत इलाके में भूस्खलन की सबसे कम आशंका है. केंद्रीय ट्रांसपोर्ट मंत्री नितिन गडकरी ने तीन दिन पहले सोशल मीडिया पर यह जानकारी दी कि मसूरी में 2.74 किलोमीटर लंबी सुरंग के लिए उन्होंने 700 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं जिससे मॉल रोड, मसूरी शहर और लाल बहादुर शास्त्री (आईएएस अकादमी) की ओर “आसान और बिना अटकाव” ट्रैफिक चलेगा. ट्रांसपोर्ट मंत्री ने अपने ट्वीट के साथ “प्रगति का हाइवे” हैशटैग लगाया और राज्य के मुख्यमंत्री ने इसके लिए नितिन गडकरी का आभार जताया और कहा कि इससे मसूरी में “कनेक्टिविटी आसान” होगी और आपदा के वक्त राहत कार्य सुचारु होंगे.उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास बसे मसूरी को पहाड़ों की रानी कहा जाता है और यह भारत के सबसे व्यस्त पर्यटन क्षेत्रों में एक है. यह हिमालयी इलाका अति भूकंपीय संवेदनशील (जोन-4) में है. इसके लिए देवदार और बांज समेत कुल 3000 से अधिक पेड़ कटेंगे और वन्य जीव क्षेत्र नष्ट होगा. इसके अलावा पहाड़ों पर खुदाई और ड्रिलिंग की जाएगी जिससे कई स्थानों पर भूस्खलन का खतरा बढ़ सकता है. डीडब्ल्यू ने इस प्रोजेक्ट के बारे में राज्य के संबंधित वन अधिकारियों से बात की लेकिन उन्हें अभी इस प्रोजेक्ट की कोई जानकारी नहीं है. मसूरी की उप वन संरक्षक 1ने कहा, “इसे लेकर हमारे पास कोई चिट्ठी नहीं आई है. अगर उच्च स्तर पर कोई बात हुई है तो मुझे उसका पता नहीं है. मेरे पास न ही कोई लेटर आया और न ही कोई संवाद हुआ है कि सुरंग कहां से कहां बनेगा यह जानकारी मिलने पर ही जंगल को होने वाले नुकसान का सही आकलन हो सकता है. उधर यमुना सर्किल के वन संरक्षक ने डी डब्ल्यू से कहा कि प्रोजेक्ट के बारे में अभी तक उनसे कोई मशविरा नहीं किया गया है. जानकार बताते हैं कि ऐसी विकास परियोजनाओं में विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) बनती है. इसके अलावा जमीन अधिग्रहण से लेकर वन संबंधी क्लियरेंस और पर्यावरण प्रभाव आकलन में फॉरेस्ट डिपार्टमेंट का रोल अहम है. हिमालयी क्षेत्र में हर साल भूस्खलन से ही औसतन 400 लोगों की मौत होती है. भूगर्भविज्ञान के लिहाज से मसूरी और उसके आसपास का इलाका अत्यधिक भूस्खलन प्रभावित है. पिछले साल देहरादून स्थित वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन इकोलॉजी और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी रायपुर के भू-विज्ञानियों और विशेषज्ञों ने एक शोध प्रकाशित किया जिसके मुताबिक मसूरी के करीब 44 प्रतिशत हिस्से में भूस्खलन को लेकर औसत, अधिक या बहुत अधिक खतरा है. इस शोध में कहा गया है कि भट्टाफॉल, जॉर्ज एवरेस्ट, कैम्पटी फॉल और बार्लोगंज जैसे इलाके अधिक खतरे वाले (हाइ हेजार्ड जोन) में हैं.रिसर्च पेपर कहता है, “इस हिमालयी कस्बे के सीमित भूमि संसाधनों पर बहुत दबाव है इसलिए भूस्खलन के खतरे की मैपिंग को लेकर व्यापक अध्ययन की तुरंत जरूरत है. इस तरह के नक्शे यहां विकास योजनाओं को बनाने और लागू करने के लिए बहुत उपयोगी होंगे.” इस रिसर्च के शोधकर्ताओं में से एक और वाडिया संस्थान में साइंटिस्ट ने इस साल एक और रिसर्च पेपर प्रकाशित किया है जिसमें मसूरी के हर वार्ड में भूस्खलन के कारण उपजे खतरे का आकलन किया है और कहा है कि मसूरी के करीब एक चौथाई भवनों (जिनमें 8,000 लोग रहते हैं) को लैडस्लाइड का “अधिक या बहुत अधिक खतरा” है. साइंटिस्ट कहते हैं कि उन्हें प्रस्तावित सुरंग बनाने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी वरना उसके प्रभावों को अपने शोध में शामिल करते. साइंटिस्ट के मुताबिक “प्रस्तावित सुरंग तो काफी बड़ा प्रोजेक्ट है. अगर (मसूरी जैसे संवेदनशील क्षेत्र में) आप कोई भवन या होटल निर्माण जैसा कोई छोटा प्रोजेक्ट भी करते हैं तो उससे पहले नगरपालिका के पास लार्ज स्केल हेजार्ड का पूरा अध्ययन होना चाहिए कि कहां पर यह किया जा सकता है कहां नहीं. हमने शिमला (हिमाचल प्रदेश) में ऐसी स्टडी की थी और फिर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने चिन्हित कर दिया था कि कहां-कहां स्टडी होगी और कहां नहीं होगी. यह तरीका कार्यप्रणाली में शामिल होना चाहिए.” हालांकि पिछले 30 सालों से देहरादून और मसूरी का करीबी अध्ययन कर रहे मानवविज्ञानी और कार्यकर्ता कहते हैं कि मसूरी की पारिस्थितिकी, पर्यावरणीय महत्व और संवेदनशील जियोलॉजी को देखते हुए यहां 70 के दशक से ही लाइम स्टोन माइनिंग को रोका गया.जानकार मानते हैं कि मानव गतिविधियां, पहाड़ी ढलानों का सड़क निर्माण के लिए कटान और भवन इत्यादि बनने से पहाड़ अस्थिर हो रहे हैं. साल 1996 से ही खनन और निर्माण कार्य यहां प्रतिबंधित हैं. “साल 2010 में मसूरी स्थित आईएएस अकादमी के सेंटर फॉर गुड गवर्नेंस ने ही मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता (कैरिंग कैपिसिटी) को लेकर एक अध्ययन किया था. उसमें कहा गया था कि मसूरी अपनी क्षमता से डेढ़ गुना अधिक दबाव झेल रहा है.” ब्रिटिश हुकूमत के दौर में देहरादून से पहाड़ों की रानी मसूरी के लिए रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हो गया था। लेकिन, देहरादून से लगे राजपुर गांव के निकट घने जंगल में सुरंग बनाने के दौरान हुए हादसे ने अंग्रेजों की उम्मीदें धराशायी कर दीं। हालांकि, इसके बाद एक बार फिर कोशिश की गई, लेकिन सुरंग का पहाड़ धंसने के कारण योजना परवान नहीं चढ़ पाई। हालांकि मुख्यमंत्री की ओर जारी बयान में कहा गया है, “इस टनल के निर्माण एवं सड़कों के सुदृढ़ीकरण से जौनसार बावर क्षेत्र की कनेक्टिविटी और बेहतर होगी तथा इस क्षेत्र में विकास के नए द्वार खुलेंगे. इस पिछड़े क्षेत्र को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में भी इससे मदद मिलेगी. पर्यटन की दृष्टि से भी इस क्षेत्र को नई पहचान मिल सकेगी.
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है.

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