वसंत पंचमी का त्यौहार माँ सरस्वती वंदना के साथ क्या है खास ? आइए जानते हैं?
माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को बसंत पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है। इस बार यह त्यौहार दिनांक 5 फरवरी दिन शनिवार को मनाया जाएगा। वैसे तो संपूर्ण भारत वर्ष में यह त्यौहार मनाया जाता है। परंतु देव भूमि उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग में यह त्यौहार कुछ विशेष रीति से मनाया जाता है। जिसे कुमाऊं में सिर पंचमी का त्यौहार कहते हैं। कुमाऊं में यह त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस त्यौहार में विशेष यह है कि इस दिन खेतों से जौ की पत्तियां लाकर सर्वप्रथम स्नान करने के उपरांत जौ की पत्तियां कुल ईस्ट मंदिरों देवा लयों में चढ़ाई जाती है। फिर परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे को हरेले की तरह जौ पूजते हैं। लड़कियां अपने माता पिता भाई बहन चाचा चाची ताऊ ताई आदि घर के सभी सदस्यों के सिर में जौ पूजती हैं। बालिकाएं इस पावन दिन अपने नाक कान छिदवाती है। कुमाऊं के अल्मोड़ा बागेश्वर पिथौरागढ़ नैनीताल चंपावत जनपदों के कई भागों में इस दिन जौ की पत्तियां गाय के गोबर के साथ टीका चंदन कर घर की देहली पर भी रखते हैं। देवभूमि के कई भागों में इस दिन यज्ञोपवित संस्कार अर्थात जनेऊ संस्कार एवं चूड़ाकरण संस्कार भी करवाए जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन छोटे बच्चों की शिक्षा दीक्षा आरंभ करने के लिए भी अत्यंत शुभ माना जाता है। इस पावन दिवस पर बच्चे की जीभ में मधु अर्थात शहद से ओम बनाना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से बच्चे ज्ञानवान बनते हैं। क्योंकि जिह्वा का संबंध मां सरस्वती से है। वाणी जो जिह्वा से प्रकट होती है उसका संबंध भी मां सरस्वती से है। इसके अतिरिक्त 6 माह पूरे कर चुके बच्चे को अन्न का पहला निवाला अर्थात अन्नप्राशन के लिए भी यह पावन दिन शुभ माना जाता है। इस दिन मुहूर्त सु जाने की आवश्यकता नहीं होती है। बसंत पंचमी के दिन सरसों के खेतों में सुनहरी चमक फैल जाती है। पेड़ों पर फूल खिलने लगते हैं। संपूर्ण धरती श्रृंगार करती है। आदिकाल से ही विद्वानों ने भारतवर्ष में पूरे वर्ष को 6 भागों में विभक्त किया था। जो छह ऋतु के नाम से जानी जाती हैं। इसमें वसंत ऋतु लोगों को सबसे मनचाही एवं सर्वश्रेष्ठ ऋतु लगी। इसी कारण इसे ऋतुराज के नाम से भी जाना जाता है। मात्र प्रकृति प्रेमियों के लिए ही नहीं वरन सभी जीव जंतुओं के लिए यह महत्वपूर्ण है। यह वह मौसम है जब फूलों पर बाहर आ जाती है। सरसों के खेत सुनहरे रंग से चमकने लगते हैं। जो एवं गेहूं की बालियां आने लगती हैं। प्रत्येक तरफ रंग बिरंगी तितलियां मंडराने लगती हैं। इसी ऋतुराज वसंत के स्वागत के लिए माघ मास के शुक्ल पक्ष पंचमी के दिन एक महान उत्सव मनाया जाता है। जिसमें मां सरस्वती भगवान ब्रह्मा विष्णु एवं कामदेव की पूजा होती है। जो बसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता है। इस दिन बसंती अर्थात पीले रंग का विशेष महत्व है। लोग पीले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। यदि संभव न हो तो कम से कम पीले रंग का रुमाल अपने पास रखते हैं और पीले रंग का रुमाल मंदिरों देवालयम में चढ़ाते हैं। इस दिन पकवान भी पीले रंग के बनाकर रिश्तेदारों मित्र गणों एवं आस पड़ोस में बांटने की परंपरा भी देवभूमि में है। इसके अतिरिक्त छोटे शिशुओं की शिक्षा का प्रारंभ भी इसी दिन से किया जाता है। शिशु की तख्ती पर शुभ चिन्ह अंकित कर शिशु को अक्षर ज्ञान कराने का प्रारंभ भी इसी दिन किया जाता है। अब वर्तमान आधुनिक समय में तख्ती पर लिखने की परंपरा तो रही नहीं। शिशु को अक्षर ज्ञान घर पर कराने की व्यवस्था भी लगभग समाप्त हो चुकी है। इसके बावजूद भी शिशु के विभिन्न संस्कार इस पावन तिथि को संपन्न किए जाने की परंपरा कुछ शेष बची है। देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग में इस पावन दिवस का एक और महत्व इस कारण से भी है कि बसंत पंचमी के दिन से ही कुमाऊनी बैठकी होली का आरंभ भी इस दिन से होता है। कुमाऊनी बैठकी होली की परंपरा के अनुसार इस पावन दिवस से लेकर फाल्गुन शुक्ल पक्ष एकादशी अर्थात आंवला एकादशी तक बैठकी होली का गायन चलता है। इसी प्रकार बैठकी होली के गायन के प्रारंभ के साथ ही होली के उत्सव का प्रारंभ भी हो जाता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने 8400000 योनियों के साथ मनुष्य योनि की रचना की इसके बावजूद भी वे अपनी इस रचना से पूर्णतया संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि सृष्टि में कुछ कमी रह गई है। जिस कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। अंत में विष्णु भगवान से आज्ञा लेकर ब्रह्मा ने अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल छिड़का। जिस कारण जल के कण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा तथा वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति प्रकट हुई। प्रकृति का यह प्राकट्य एक चतुर्भुज देवी के रूप में था उसके एक हाथ में वीणा थी तथा दूसरे हाथ वर देने की मुद्रा में था। अन्य दो हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तथा उनसे वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा के तारों को झंकृत किया मधुर नाथ से धरती के सभी जीव जंतुओं को वाणी प्राप्त हो गई। विश्व के समस्त जल धाराओं में स्वरों का संचार होते ही उसमें कोलाहल व्याप्त हो गया। पाठकों की जानकारी हेतु बताना चाहूंगा कि ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है कि- ” प्रणोदेवी सरस्वती वाजेभिवर्जिनीवती धीनामणित्रयवतु” अर्थात यह परम चेतना है सरस्वती के रूप में यह हमारी बुद्धि प्रज्ञा तथा मनोवृति की संरक्षिका है। हम में जो आचार और मेधा है उसका आधार देवी भगवती सरस्वती ही है। माँ सरस्वती सबको शुभ वाणी दें और शुभ विद्या दें इसी शुभकामना के साथ जय सरस्वती मां।