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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून, उत्तराखंड

दुनिया के सबसे खूबसूरत हिमनदों में से एक, मिलाम, समुद्र के स्तर से ऊपर 4250 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पिथौरागढ़ जिले में स्थित है। इस ग्लेशियर का नाम 3 किमी दूर स्थित एक गांव मिलम के नाम पर रखा गया है। मिलाम ग्लेशियर से दूर प्राचीन समय में, मिलम गांव पिथौरागढ़ जिले का सबसे अधिक जनसंख्या वाला गांव था, लेकिन वर्तमान में इसकी आबादी लगभग शून्य है। महान सर्वेयर पंडित नैन सिंह का गाँव था. मेरे लिए वह हिलौरे मारती गोरी गंगा का मायका था. मेरे लिए वह उन महान शौका व्यापारियों का गाँव था जिन्होंने हिमालय पार और गंगा के मैदान के बीच एक जीवंत रिश्ता बनाया. यह गाँव जो कभी इतना बड़ा और फलाफूला था कि इसके समृद्ध व्यापारियों पर हमेशा गोरखा लुटेरों की बुरी नजर रहती.लेकिन विश्व के प्रसिद्ध ग्लेशियर मिलाम के कारण इसका महत्व अभी भी कायम है। काली नदी की एक सहायक नदी मिलाम ग्लेशियर से शुरू होती है ग्लोबलवार्मिग के कारण हिमालय के ग्लेशियरों का जीवन खतरे में पड़ गया है। अधिकांश ग्लेशियरों का आकार अब सिकुड़ने लगा है। हिमालय में स्थित एशिया का दूसरा सबसे बड़ा मिलम ग्लेशियर भी इसका शिकार हो चुका है। कभी मिलम गांव से चार किमी दूर स्थित ग्लेशियर अब नौ किमी दूर तक खिसक गया है। ग्लेशियर का तेजी से पिघलना चिंता का विषय बना है। हिमालय के जानकार इसे लेकर चिंतित हैं।मिलम ग्लेशियर तहसील मुनस्यारी के जोहार में स्थित है। उच्च हिमालयी मिलम गांव के निकट स्थित इस ग्लेशियर को मिलम ग्लेशियर का नाम दिया जाता है। इसी ग्लेशियर से गोरी नदी का उद्गम होता है। गोरी नदी जौलजीवी में काली नदी में मिलती है जो आगे जाकर शारदा बन जाती है। मिलम ग्लेशियर विश्व के सर्वाधिक सुंदर ग्लेशियरों में शामिल है। वहीं एशिया का दूसरा सबसे बड़ा ग्लेशियर माना जाता है। वर्ष 1960 तक मिलम ग्लेशियर मिलम गांव से मात्र दो तीन किमी दूर तक था। इन 57 वर्षों में ग्लेशियर मिलम गांव से नौ किमीदूर तक खिसक चुका है।मिलम ग्लेशियर जो दशकों पूर्व तक मिलम गांव से गोरी पुल पार तक ग्लेशियर से निकलने वाली पानी की धार थी। तब गांव से तीन किमी दूर गोरी नदी के इस उद्गम स्थल से ग्रामीणों लकड़ी का पुल बनाया और उसमें मिट्टी बिछाकर गूल बनाकर मिलम गांव तक पानी पहुंचाया था। आज इस स्थान पर अब बर्फ तक नहीं जहां पर हल्की पानी की धार थी वहां पर ही गोरी नदी का रूप विशाल हो गया है। लगातार ग्लेशियरों के पिघलने से मिलम ग्लेशियर का स्वरूप बदलने लगा है। मिलम ग्लेशियर पूर्व में लंबाई में अधिक और चौड़ाई में कम था। इधर अब इसकी लंबाई घट रही है जिस कारण इसकी चौड़ाई अधिक नजर आने लगी है।जंगलों की आग हिमालय के लिए सबसे खतरनाक हिमालय में ग्लोबलवार्मिग बढ़ाने में जंगलों की आग सबसे प्रमुख कारण मानी जा रही है। पहाड़ों में आदि काल से घास के लिए आग लगाई जाती रही है। ग्रामीण अपने मांग्गों (खेतों से लगे घास वाली भूमि) में आग लगाते थे परंतु यह आग कभी भी जंगलों तक नहीं पहुंचती थी। इधर जब से जंगलों की आग के लिए सरकार ने बजट का प्राविधान रखा तब से जंगल आग की चपेट में आने लगे हैं। बीते वर्ष तो उच्च हिमालय के जंगल तक धधके। जिससे तापमान बढ़ा और सीधा असर ग्लेशियरों पर पड़ा है। इसके चलते हिमालय के ग्लेशियर पिघलने से सिकुड़ रहे हैं।आबादी नहीं अवैज्ञानिक सोच घातकमिलम ग्लेशियर से सटा मिलम गांव पिथौरागढ़ जिले का सबसे बड़ा गांव है। कुछ दशकों पूर्व तक इस गांव में पांच सौ परिवार और ढाई हजार की आबादी रहती थी। सभी ग्रामीणों के पास भारी संख्या में जानवर रहते थे। साल के छह माह ग्रामीण गांव में व्यतीत करते थे लेकिन इसके बाद भी ग्लेशियर प्रभावित नहीं होता था। आज गांव में कुछ ही परिवार माइग्रेशन पर जा रहे हैं। इसके बाद ग्लेशियर तेजी के साथ पिघल रहा है। अब विकास भी वहां तक पहुंच रहा है ऐसे में ग्लेशियर को बचाने के लिए सोच वैज्ञानिक बनाने की आवश्यकता बताई जा रही है।जंगलों की आग हिमालय में ग्लोबलवार्मिग बढ़ाने में सबसे प्रमुख कारक रही है। प्रकृति के नियम के तहत ग्लेशियर पिघलते हैं परंतु तेजी के साथ पिघलना चिंता का विषय है। पर्यटकों, ट्रैकरों के पहुंचने से ग्लेशियरों को अधिक खतरा नहीं है। बस इसके लिए जागरूक होने की आवश्यकता है। उच्च हिमालय तक कार्बन डाई आक्साइड का स्तर कम पहुंचे इसके लिए प्रयास होना है। जंगलों की आग पर पूरी तरह काबू पाना होगा।ग्लेशियर दूर से देखने पर जितने खूबसूरत लगते हैं, असल में उतने ही खतरनाक होते हैं. इनकी चोटी या फिर किनारे की तरफ जाना किसी दुर्घटना को आमंत्रण दे सकता है. दूसरी ओर ग्लेशियर का टूटना या पिघलना ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जो बड़ी आबादी पर असर डालती हैं. ग्लेशियर से छोटे स्तर पर भी हादसे हो सकते हैं. कई बार पहाड़ों पर घूमने गए सैलानी ग्लेशियर की चोटी पर पहुंचने की कोशिश करते हैं. ये बर्फीले टावर काफी खतरनाक होते हैं और कभी भी गिर सकते हैं. यहां समझ लें कि ग्लेशियर हमेशा अस्थिर होते हैं और धीरे-धीरे सरकते हैं. ये इतनी धीमी गति से भी होता है जो आंखों से दिखाई न दे. ग्लेशियर के ज्यादा पास खड़ा होना भी हादसा ला सकता है. ग्लेशियर से बर्फ के विशाल टुकड़े गिरने से सैलानियों या स्थानीय लोगों की मौत की कई खबरें आती रहती हैं. ग्लेशियर में कई बार बड़ी-बड़ी दरारें होती हैं, जो ऊपर से बर्फ की पतली परत से ढंकी होती हैं. ये जमी हुई मजबूत बर्फ की चट्टान की तरह ही दिखती है. ऐसी चट्टान के पास जाने पर वजन पड़ते ही ग्लेशियर में मौजूद बर्फ की पतली परत टूट जाती है और व्यक्ति सीधे बर्फ की विशालकाय दरार में जा गिरता है. कहना न होगा कि ये जानलेवा होताहै.हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर की स्थिति की लगातार निगरानी जरूरी है. हम समय रहते चेतावनी का सिस्टम विकसित करना चाहते हैं. इससे आबादी वाले निचले इलाकों को संभावित नुकसान से बचाया जा सकता है. राज्य सरकार द्वारा कराये अध्ययन में पाया गया है कि 50 से अधिक ग्लेशियर तेजी से आकार बदल रहे हैं, मगर इसके बाद भी सरकार द्वारा कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि यदि सरकार व सरकारी तंत्र नहीं जागा तो यह स्थिति और खराब होगी. उत्तराखंड के ग्लेशियरों से गंगा, यमुना जैसी कई बड़ी नदियां निकलती हैं. इनसे पूरे उत्तर और पूर्वोत्तर भारत की प्यास बुझती है, लेकिन ये ग्लेशियर पर्यावरणीय लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं. पर्यावरणविदों का मानना है कि उत्तराखंड की नदियों पर बड़े बांध बनाना काफी खतरनाक है.
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय है.

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